Book Title: Adinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 61
________________ ४७ हय गय हजारों लरत करत, अपार नाद भयावने । अस विकट सैन वली नृपनिकी, झुक रही हो सामने । संग्राममें, सो तुरत तुव, गुनगानसों नशि जात है। ज्यों उदित दिनपतिके करनसों, तमसमूह विलात है।।४२ अन्वयार्थों-हे जिनेश्वर, (आजी) संग्राममें(त्वत्कीर्तनात) आपके नामका कीर्तन करनेसे ( बलवताम् ) बलवान् ( भूपतीनाम् ) राजाओंका (वल्गत्तुरहुगजगर्जितभीमनादम्) युद्ध करते हुए घोड़ों और हाथियोंकी गर्जनासे जिसमें भयानक शब्द हो रहे है, ऐसा (वलम् अपि) सैन्य भी (उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं ) उदयको प्राप्त हुए सूर्यकी किरणोंके अग्रभागसे नष्ट हुए (तमः इव) अंधकारके समान ( आशु) शीघ्र ही (भिदाम्) भिन्नताको-नाशको ( उपैति ) प्राप्त होता है। भावार्थ:-जैसे सूर्यके उदय होनेसे अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आपके गुणोंका गान करनेसे राजाओंकी बड़ी २ सेनायें भी नष्ट हो जाती है ।। ४२॥ कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह वेगावतारतरणातुरयोधभीमे। युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा स्त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४॥ सिर गजनके वरछीनसों छिद, जहँ रुधिरधारा वहैं। परि वेगमें तिनके तरनको, वीर वह आतुर रहें। १ गज-हाथी । २ किरणोंसे । ३ विलीन हो जाता है, नष्ट हो जाता है।

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