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जिनके शरीर पावसे लेकर गलेतक बड़ी २ संकलोंसे निरन्तर जकड़े हुए रहते है, और (गाढं वृहन्निगडकोटिनिघृष्टजड्डाः) बड़ी २ वेडियोंके किनारोंसे जिनकी जंघाये अत्यन्त छिल गई है, ऐसे (मनुजाः) मनुष्य ( त्वन्नाममन्त्रम् ) तुम्हारे नामरूपी मंत्रको (सरन्तः) स्मरण करनेसे (सद्यः) तत्काल ही (स्वयं) आपसे आप (विगतवन्धभयाः) वन्धनके भयसे सर्वथा रहित (भवन्ति) होते है।
भावार्थ:-आपका स्मरण करनेसे कठिन कैदमें फंसे हुए जीव भी शीघ्र छूट जाते हैं ॥ १६ ॥ मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि
सङ्गामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥ मदमत्त गज मृगराज दावा-, नल समुद्र अपारको । संग्राम सांप तथा जलोदर, कठिन कारागारको ॥ भय, स्वयं भयकरि तुरत ताको, भागि जावै नेमसों। यह आपकी विरदावली, वांचै सुधी जो प्रेमसों ॥४७॥
अन्वयार्थों-(यः) जो (मतिमान ) बुद्धिमान् (इम) इस (तावक) तुम्हारे ( स्तवं) स्तोत्रको (अधीते) अध्ययन करता है, पढ़ता है, (तस्य) उसके (मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवा
१" तेऽनिशं" भी पाठ है।
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