Book Title: Adinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 66
________________ नलाहिसङ्ग्रामवारिधिमहोदरवन्धनोत्थम् ) मत्त हाथी, सिंह, अग्नि, सर्प, संग्राम, समुद्र, महोदर रोग, और बन्धन इन आठ कारणोंसे उत्पन्न हुआ (भयं) भय (भिया इव) डरकर ही मानो (आशु ) शीघ्र ही (नाशं) नाशको (उपयाति) प्राप्त हो जाता है। भावार्थ:-ऊपर कहे हुए आठ तथा इनके सदृश और भी भय उस पुरुषसे डरकर शीघ्र ही नष्ट हो जाते है, जो पुरुष इस स्तोत्रका निरन्तर पाठ किया करता है ।। १७ ॥ स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्रगुणैर्निबद्धां ___ भक्त्या मयां रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्रं तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥ हौं गूंथि लायौ विरदमाला, नाथ, तुव गुनगननसों। बहु भक्तिपूरित रुचिर वरन, विचित्र सुन्दर सुमनसों ।। यासों सदा सौभाग्यजुत, प्रेमी जो कंठ सिँगारि है। तिहिमानतुंग सुपुरुषको, कमलाविवश उर धारि है ॥४८॥ अन्वयार्थी-(जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र, (इह ) इस संसारमें १ "विविधवर्णविचित्रपुष्पाम्" भी पाठ है । २ "मानतुङ्गमिव सा" और "मानतुगविधिना" ऐसा भी पाठ है, जिसका अर्थ "मानतुंगके समान वह लक्ष्मी" और "मानतुंगकी तरह" होता है । ३ मूलकी नाई इस छन्दका भी दोनों पक्षमें अर्थ घटित होता है।

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