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हरिगीतिका । कारो समद-पिक-कंठसम, चख अरुन जासु भयावने । ऊंचौ करें फन फुकरत, आवै चलो जो सामने ॥ तिहि सांपके सिर पांव देकरि, चलै सो अति निडर हो। तुव नामरूपी नागदमनी, धरत जो हियमें अहो! ॥४॥
अन्वयार्थों-हे जगन्नाथ, (यस्स) जिस (पुंसः) पुरुषके (हदि ) हृदयमें ( त्वन्नामनागदमनी) तुम्हारे नामकी नागदमनी जड़ी है, वह पुरुष (क्रमयुगेन) अपने पैरोंसे (रक्तक्षणं) लाल नेत्रवाले, (समदकोकिलकण्ठनीलं) मदोन्मत्त, कोयलके कंठसमान काले, (क्रोधोद्धतं) क्रोधसे उद्धत हुए
और (उत्फणं) उठाया है ऊपरको फण जिसने ऐसे (आपतन्तं) डसनेके लिये झपटते हुए (फणिनं ) सांपको (निरस्तशङ्कः) शंकारहित अर्थात् निडर होकर (आक्रामति) उल्लंघन करता है, अर्थात् पांव देकर उसके ऊपरसे चला जाता है।
भावार्थ:-आपका नामस्मरण करनेवाले भक्तजनोंको भयङ्कर सपाका भी कुछ भय नही होता है ॥ ४१ ॥ वल्गत्तुरङ्गगजगर्जितभीमनाद
माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥४२॥ १ नेत्र । २ नागदमनी नामकी एक जड़ी होती है, जिससे सापके जहरका असर नहीं होता है।