________________
धनवान् हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी आपका स्तवन करके आपके समान तीर्थंकर नामकर्मका उपार्जन कर सकता हूं॥१०॥ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः। पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः .
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्॥११॥ अनिमेष नित्य विलोकनीय, जिनेश तुमहिं विलोकके । पुनि और ठौर न तोष पावहि, जननयन इहि लोकके॥ शशिप्रभाके सम नीर पीकर, क्षीरनिधिको भावनो। को पियन चाहत सरितपतिको, क्षारजल असुहावनो।
अन्वयार्थों-हे भगवन् (अनिमेपविलोकनीयं ) अनिमेष अर्थात् टिमकाररहित नेत्रोंसे सदा देखने योग्य (भवन्तम्) आपको (दृष्ट्वा) देखकरके (जनस्य) मनुष्योंके (चक्षुः) नेत्र (अन्यत्र) दूसरोंमें अर्थात् हरिहरादि देवोंमें (तोषम् ) संतोषको (न उपयाति) नही प्राप्त होते है । सो ठीक ही है, क्योकि (शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः) चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्ज्वल है शोभा जिसकी, ऐसे क्षीर समुद्रके ( पयः) जलको (पीत्वा) पी करके (का) ऐसा कौन पुरुष है, जो (जलनिधेः) समुद्रके
१ टिमकाररहित नेत्रोंसे । २ चन्द्रमाकी प्रभाके समान उज्ज्वल । ३ समुद्रका। ४ यद्यपि चक्षुः पद और उपयाति क्रिया दोनों एकवचन है, परन्तु जातिकी अपेक्षा होनेसे यहां बहुवचनमें अर्थ किय गया है।