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यह लखि दोषवृन्द सपनेहुँमें, जो न ओर तुव जोवै । तो नहिं अचरज हुआश्रयतैं, गरव सवनको होवै ॥ २७ ॥
अन्वयार्थी - (मुनीश) हे मुनियोंके ईश्वर, ( यदि ) यदि ( अशेषैः ) सम्पूर्ण (गुणैः ) गुणोंने ( निरवकाशतया ) सघनतासे ( त्वं संश्रितः ) तुम्हारा भले प्रकार आश्रय ले लिया, (अपि) तथा ( उपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः ) प्राप्त किये हुए अनेक देवादिकों के आश्रयसे जिन्हे घमंड हो रहा है, ऐसे ( दोषैः ) दोषोंने ( स्वप्नान्तरे अपि ) स्वप्न प्रतिखमावस्थाओं में भी ( कदाचित् अपि ) किसी समय भी तुम्हें ( न ईक्षितः असि ) नही देखा, तो ( अत्र ) इसमें ( को नाम विस्मयः ) कौनसा आश्चर्य हुआ ? कुछ नही ।
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भावार्थ:- संसारमें जितने गुण थे, उन सबने तो आपमें इस तरह से ठसाठस निवास कर लिया कि, फिर कुछ भी अवकाश शेष नही रहा । और दोषोंने यह सोचकर घमंडसे आपकी ओर कभी देखा भी नही कि, जब संसारके बहुत से देवोंने हमें आश्रय दे रक्खा है, तब हमको एक जिनदेवकी क्या परवाह है ? उनमें हमको स्थान नहीं मिला, तो न सही । सारांश यह है कि, आपमें केवल गुणोंका ही समूह है, दोषों का नाम भी नही है ॥२७॥
उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
१ जिनके ठहरनेको बहुतसे आश्रय होते है, उन्हें घमंड होता ही है । २ स्वप्नके भीतर जो स्वम आते हैं, उन्हें प्रतिखम कहते हैं ।