________________
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । विम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं
तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ मनिकिरननसों चित्रित दुतियुत, सिंहासन मन भावै । तापै जिन, तुव कनकवरन तन, ऐसी उपमा पावै ॥ तान वितान गगनमें अपनी, किरननको सुखदाई। ऊंच उदयाचलके ऊपर, दिनकरविम्ब दिखाई ॥ २९ ॥
अन्वयार्थों-हे भगवन् , ( मणिमयूखशिखाविचित्रे) मणियोंकी किरणपंक्तिसे चित्र विचित्र (सिंहासने) सिंहासनपर (तव ) तुम्हारा ( कनकावदातम् ) सुवर्णके समान मनोज्ञ (वपुः) शरीर (तुङ्गोदयादिशिरसि) ऊंचे उदयाचलके शिखरपर (वियद्विलसदंशुलतावितानं) आकाशमें शोभित हो रहा है किरणरूपी लताओंका चंदोवा जिसका ऐसे (सहस्ररश्मेः विम्बं इव ) सूर्यके विम्बकी तरह (विभ्राजते) अतिशय शोभित होता है।
भावार्थ:-उदयाचल पर्वतके शिखरपर जैसे सूर्यबिम्ब शोमा देता है, उसी प्रकार मणिजटित सिंहासनपर आपका शरीर शोभित होता है (यह भगवान्के दूसरे प्रतिहार्यका वर्णन है ) ॥२९॥
१ चंदोवा । २ जिस पर्वतसे सूर्य उदय होता है, उसको उदयाचल कहते है। ३ सूर्यका विम्ब । ४ आकाशमे जो सूर्यको किरणें फैलती हैं, वे उदयकी अवस्थामे रक्त वर्ण होती हैं।