Book Title: Adinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ ४१ सुवरन-वरन खिले कमलनकी, ललित कांति जो धाएँ। त्यों ही नख किरननकी चहुँघा, छटा अनूप उछारें ॥ अस तुव चरननकी डगजहँ जह, परत अहो जिनराई। तहँ तह पंकजपुंज अनूपम, रचत देवगन आई ॥३६॥ अन्वयार्थी-(जिनेन्द्र ) हे जिनेन्द्र, (उन्निद्रहेमनवपङ्कजपुञ्जकान्ती) फूले हुए सुवर्णके नवीन कमलसमूहके सदृश कान्ति धारण करनेवाले और (पर्युल्लसन्नखमयुखशिखाभिरामौ) चारोंओर उछलती हुई नखोंकी किरणोंके समूहकरके सुन्दर ऐसे (तव) आपके (पादौ) चरण ( यत्र) जहांपर (पदानि) डग (धत्तः) रखते है, (तत्र) वहांपर (विबुधाः) देवगण (पद्मानि) कमलोंको (परिकल्पयन्ति ) परिकल्पित करते है, अर्थात् कमलोकी रचना करते है । भावार्थ:-जहां २ भगवान्के चरण पड़ते है, वहां २ पर देवता कमलोंकी रचना करते है ॥ ३६ ॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य। यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा तादृकुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥ इहि विधि वृषउपदेशसमय तुव, समवसरनके मॉहीं। भई विभूति अपूरव हे जिन, सो औरैनके नाहीं॥ - १ धर्मोपदेशके समय। २ दूमरोंके-हरिहरादि देवोंके ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69