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दैदीप्यमान सघन और अनेक संख्यावाले सूर्योके तुल्य ( ते विभोः ) तुम्हारे ( शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा ) शोभायमान भामंडलकी अतिशय प्रभा ( लोकत्रयद्युतिमतां ) तीनों लोकके प्रकाशमान पदार्थोंकी ( द्युतिम् ) द्युतिको ( आक्षिपन्ती ) तिर - स्कार करती हुई ( सोमसौम्या अपि ) चन्द्रमाकी नाई सौम्य होनेपर भी ( दीया ) अपनी दीप्तिके द्वारा ( निशाम् अपि ) रात्रिको भी ( जयति ) जीतती है ।
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भावार्थ: - यह विरोधाभास अलंकार है । इसमें विरोध तो यह है कि, "सोमसौम्या" अर्थात् जो प्रभा चन्द्रमासरीखी होगी, वह रात्रिको सुशोभित करेगी । परन्तु यहां कहा है कि, जीतती है आच्छादित करती है । और विरोधका परिहार इस प्रकार होता है कि, “दीप्या" अर्थात् दीप्तिसे रात्रिको जीतती है, अर्थात् रात्रिका अभाव करती है । सारांश यह है कि, भामंडलकी प्रभा यद्यपि कोटि सूर्यके समान तेजवाली है, परन्तु आताप करनेवाली नहीं है । चन्द्रमाके समान शीतल है, और रात्रिका अन्धकार नहीं होने देती है । (यह सातवा प्रातिहार्य है ) ॥ ३४ ॥
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स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः । दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ सर्वभाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥
१. " गुणप्रयोज्यः " और " गुणप्रयोज्या" भी पाठ है ।