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स्वर्ग और अपवर्ग मार्गकी, वाट वतावनहारी। परम धरमके तत्त्व कहनको, चतुर त्रिलोकमझारी॥ होय जगतकी सव भाषनमें, जो परिनत सुखदानी । ऐसी विशद अर्थकी जननी, हे जिनवर, तुव वानी ॥३५॥
अन्वयार्थी हे जिनदेव! (स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः) स्वर्ग और मोक्ष जानेके मार्गको अन्वेषण करनेमें इष्ट (आवश्यक) अथवा स्वर्ग मोक्ष मार्गको शोधनेवाले मुनियोंको इष्ट तथा (त्रिलोक्याः ) तीन लोकके ( सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुः) समीचीन धर्मके तत्त्वोंके कहनेमें एक मात्र चतुर और (विशदार्थसर्वभापावभावपरिणामगुणैः) निर्मल जो अर्थ और उसके समस्त भाषाओंके परिणमनरूप जो गुण, उन गुणोंसे (प्रयोज्यः) जिसकी योजना होती है, ऐसी (ते) आपकी (दिव्यध्वनिः) दिव्यध्वनि ( भवति) होती है। ___ भावार्थ:-भगवान्की वाणीमें यह अतिशय है कि, सुननेवालोंकी सम्पूर्ण भाषाओंमें निर्मल रूपसे उसका परिणमन हो जाता है । अर्थात् भगवान्की वाणी जो सुनता है, वही अपनी भाषामें उसे सरलतासे समझ लेता है। (आठवां प्रातिहार्य ॥३५॥ उन्निद्रहेमनवपङ्कजपुञ्जकान्ती
पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः
पद्मानितत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥ १ मोक्ष । २ निर्मल। ३ उत्पन्न करनेवाली।