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जैसी प्रभा देखियतु रविमें, तेजवन्त तमहारी। तैसी उडुगनमाँहिं कहां है ? यद्यपि करत उजारी ॥३७॥
अन्वयार्थों-(जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र, (धर्मोपदेशनविधौ) धर्मोपदेशके विधानमें अर्थात् धर्मका उपदेश देते समय समवसरणमें (इत्थं) पूर्वोक्त प्रकारसे ( तव ) आपकी (विभूतिः) समृद्धि ( यथा) जैसी ( अभूत) हुई ( तथा ) वैसी ( परस्य ) हरिहरादिक दूसरे देवोंके (न)नहीं हुई । सो ठीक ही है। (दिनकृतः) सूर्यकी (यादृक् ) जैसी (प्रहतान्धकारा) अंधकारको नष्ट करनेवाली (प्रभा) प्रभा होती है, ( तादृक् ) वैसी प्रमा (विकाशिनः अपि) प्रकाशमान होते हुए भी (ग्रहगणस) तारागणोंकी (कुतः) कहांसे होवे ! ___ भावार्थः-यद्यपि तारागण थोड़े वहुत चमकनेवाले होते हैं, तो भी वे सूर्यके समान प्रकाशित नहीं हो सकते । इसी प्रकार यद्यपि हरिहरादिक देव है, तो भी आपकी समवसरण जैसी विभूतिको वे धारण नही कर सकते ॥ ३७॥
त्र्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल___ मत्तभ्रमद्भमरनादविवृद्धकोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥ मदजलमलिन विलोल कपोलन,-पै इत उत मड़राके। कोप वढायो जिहिको अलिगन, अतिशय शोर मचाके ॥
१ अधकारको नाश करनेवाली । २ तारोंमें। ३ "उत्कटम्" भी पाठ है। ४ अतिशय चंचल ।