Book Title: Adinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 51
________________ ३७ मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजात सन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा। गन्धोदविन्दुशुभमन्दमरुत्प्रपाता दिव्या दिवः पतति ते वचसांततिर्वा॥३३॥ गन्धोदक विन्दुनसों पावन, मन्दपवनकी प्रेरी । पारिजात मन्दार आदिके, नव कुसुमनकी ढेरी॥ ऊरधमुखि व्है नभसों वरसत, दिव्य अनूप सुहाई। मांनों तुव वचननकी पंकति, रूपराशि धरि छाई ॥३३॥ अन्वयार्थी-हे नाथ, (गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमरुत्प्रपाता) गन्धोदककी बूंदोंसे मंगलीक और मन्दमन्द वायुसे पतन करनेवाली, (उद्धा) ऊर्ध्वमुखी और (दिव्या) दिव्य ऐसी (मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजातसन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिः) - - १ आचार्य प्रभाचन्द्रजीकी टीकामे "वयसां ततिः" ऐसा भी पाठ है । और उसका अर्थ “ पक्षियोंकी पकि" किया है । अर्थात् पुष्पवृष्टि ऐसी जान पड़ती है, मानों आकाशसे पक्षियोंकी श्रेणी पृथ्वीपर उतरती हो । जो महाशय "वयसां ततिः" पाठको पसन्द करें, वे यहा इस प्रकारसे पढ़े-"मानों यह विहगनकी पंकति, देवलोकसों आई ।" २ रुपराशिसे यह प्रयोजन है कि, दिव्यध्वनि जो देखी नहीं जाती, वह मानो दृश्य अर्थात् पुद्गलरूप होकर फैल रही है। ३ भगवान्के समवसरणमें जो फूल बरसते हैं, उनके मुंह ऊपरको रहते हैं, और डंठल नीचेको । श्रीरत्नचन्द्रसूरिने अपनी संस्कृतटीकामे उद्धाका अर्थ श्लाघ्य-प्रशंसनीय लिखा है। ४ देवलोकमें जो उत्पन्न होवे, अथवा देवों के द्वारा जो की जावे। पारमार्थिकीको भी दिव्य कहते है।

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