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भावार्थ:-जिस प्रकारसे पके हुए धान्यवाले देशमें बादलोंका बरसना व्यर्थ है, क्योंकि उस जलसे कीचड़ होनेके सिवाय और कुछ लाभ नही होता; उसी प्रकारसे जहां आपके मुखरूपी चन्द्रमासे अज्ञान अन्धकारका नाश हो चुका है, वहां रात्रि और दिनमें चन्द्र सूर्य व्यर्थ ही शीत तथा आतपके करनेवाले हैं ।। १९ ॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ जो स्वपरभाव प्रकाशकारी, लसत तुममें ज्ञान है। सो हरिहरादिक नायकोंमें, नाहिं होवत भान है। जैसो प्रकाश महान मनिमें, महतताको लहत है। तसो न कवहूँ कांतिजुत हू, कॉचमें लख परत है ॥२०॥
अन्वयार्थों-हे नाथ, ( कृतावकाशं) किया है अनन्त पर्यायात्मक पदार्थोंका प्रकाश जिसने, ऐसा (ज्ञानं) केवलज्ञान ( यथा ) जैसा (त्वयि ) आपमें (विभाति ) शोभायमान है, (तथा) वैसा (हरिहरादिषु ) हरिहरादिक (नायकेषु ) नाय
१ "काचोद्भवेषु न तथैव विकासकत्वं" ऐसा भी पाठ है। २ अनन्तपर्यायात्मके वस्तुनि कृतो विहितोऽवकाशः प्रकाशो येन तत् । ३ अपने अपने शासनके नायकों अर्थात् खामियोंमें ।