Book Title: Adinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 40
________________ तुम पायेरौं भलीभांतिसों, नीच मीचं जय होई। यासों तुमहिं छाँड़ि शिवेपदपथ,विधनरहित नहिं कोई २३ अन्वयार्थी-(मुनीन्द्र ) हे मुनीन्द्र, (मुनयः) मुनि जन ( त्वाम् ) तुम्हें ( परमंपुमांसं) परम पुरुष, और (तमसः) अंधकारके (पुरस्तात् ) आगे ( आदित्यवर्णम् ) सूर्यके खरूप तथा ( अमलं) निर्मल (आमनन्ति) मानते है । तथा वे मुनिजन (त्वाम् एव) तुम्हें ही ( सम्यक् ) भले प्रकार (उपलभ्य ) पा करके (मृत्यु) मृत्युको (जयन्ति) जीतते है। इस लिये तुम्हारे अतिरिक्त ( अन्यः) दूसरा कोई (शिवः) कल्याणकारी अथवा निरुपद्रव (शिवपदस्य) मोक्षका ( पन्थान) मार्ग नही है। भावार्थ-साधु मुनियोंके समूह आपको परमपुरुष मानते है। रागद्वेषरूपी मलसे आप रहित है, इस कारण निर्भल मानते हैं । मोह अंधकारको आप नाश करते हैं, इस कारण सूर्यके समान मानते है । आपके प्राप्त होनेसे मृत्यु नही आती, इस कारण मृत्युंजय मानते हैं और आपके अतिरिक्त कोई निरुपद्रव मोक्षका मार्ग नही है, इस कारण आपको ही वे मोक्षका मार्ग मानते है ॥२३॥ १ मृत्यु-मौत। २ मोक्षपदका रास्ता। ३ परमपुंस्त्वंवाह्याभ्यन्तरपुंसोरपेक्षया । वाह्यः पुमान् कायः औदारिकादिः, आन्तरः पुमान् सकर्मा जीवः, परमः पुमान् निःकर्मा सानन्तचतुष्का सिद्ध एवावसेयः । यहां परम विशेषण बाह्य और अन्तरग पुमानकी अपेक्षा है । वाह्यपुमान् औदारिकादि शरीरोंको कहते हैं, और अन्तरंग पुमान् कर्मसहित जीवको कहते हैं । इसलिये परम पुमान्से कर्मरहित सिद्ध आत्मा ही समझना चाहिये।

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