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त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसङ्ख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥
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कहें संतजन तोहि निरंतर, अखय अनंत अनूपा । आद्य अचिंत्य असंख्य अमल विभु, केवलज्ञानस्वरूपा ॥ एक अनेक ब्रह्म परमेश्वर, कामकेतु योगीशा । जोगरीतिको जाननवारो, श्रीजिनेन्द्र जगदीशा ॥ २४ ॥ अन्वयार्थी - हे प्रभो, ( सन्तः ) सन्त पुरुष ( त्वाम् ) तुम्हे (अव्ययं ) अक्षय, ( विभुं ) परम ऐश्वर्य से शोभित, ( अचिन्त्यं ) चिन्तवनमें नही आनेवाले ( असंख्यं ) असंख्य गुणोंवाले, ( आद्यं ) आदि तीर्थकर अथवा पचपरमेष्ठीमें आदि अरहंत, (ब्रह्माणं ) निर्वृत्तिरूप अथवा सकलकर्मरहित, ( ईश्वरं ) सर्व देवोंके ईश्वर अथवा कृतकृत्य, ( अनन्तम् ) अन्तरहित अथवा अनन्त चतुष्टयसहित ( अनङ्गकेतुम् ) कामदेवके नाश करनेके लिये केतुरूप, ( योगीश्वरं ) ध्यानियोंके प्रभु, ( विदितयोगं )
४ सख्य शब्दका
१ सदा स्थिर एकस्वभावी अनतज्ञानादिखरूप विनाशरहित । २ व्यापकजिसका ज्ञान सर्वत्र व्यापक है । अथवा कर्मके नाशकरनेमे समर्थ भी विभुका अर्थ होता है । ३ अद्भुत हैं- अचिन्त्य है, गुण जिसके । अर्थ युद्ध भी होता है, इससे असख्यका अर्थ युद्धरहित भी हो सकता है । अथवा "कालतो गुणतो वा असङ्खयम्” अर्थात् भगवान् कालसे वा गुणसे भी असंख्य हैं । ५ केतु ग्रहका उदय जिस प्रकार ससारके नाशकरनेके लिये होता है, उसीप्रकार आपका उदय कामदेवके नाशके लिये है । ६ विदितोऽवगतः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपो योगो येन । विदितो