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यम आदि आठ प्रकारके योगोंके जाननेवाले ( अनेकं ) गुणपर्यायकी अपेक्षा अनेक रूप, ( एकं ) जीव द्रव्यकी अपेक्षा एक अथवा अद्वितीय, ( ज्ञानस्वरूपं ) केवलज्ञानस्वरूप चिद्रूप और ( अमलं) कर्ममलरहित ( प्रवदन्ति ) कहते है ।
भावार्थ:- साधु पुरुष आपकी पृथक् २ गुणोंकी अपेक्षासे अव्यय, अचिन्त्य, विभु आदि कहकर स्तुति करते हैं ॥ २४ ॥
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधा
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानात्
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ विवुधन पूजौ बुद्धि-बोध तुव, यासों वुद्ध तुम्हीं हो। तीनभुवनके शंकर यासों, शंकर शुद्ध तुम्हीं हो ॥ शिवमारके विधि विधानसों, सांचे तुम्हीं विधता । त्यों ही शब्द अर्थसों तुम ही, पुरुषोत्तम जगत्राता ||२५||
अन्वयार्थी— हे नाथ, ( विबुधार्चितबुद्धिबोधात् ) गणघरोंने अथवा देवोने तुम्हारे केवलज्ञान के वोधकी पूजा की है,
योगो येन यस्माद्वा । अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्ररूप योगका जाननेवाला अथवा जिससे वा जिसने योग जाना है, उसे विदितयोग कहते हैं ।
१ वृषभादिव्यक्तिभेदापेक्षया वा । अर्थात् ऋषभदेवआदि व्यक्तिभेदकी अपेक्षा भी भगवान्को एक कह सकते है | २ देवोंने । ३ कल्याण अथवा सुखके करनेवाले । ४ ब्रह्मा । ५ नारायण श्रीकृष्ण । ६ कोई २ इस पदके दो खंड करके अर्थ करते हैं, एक तो "विबुधार्चित " अर्थात् हे देवोंके द्वारा पूज्य, और दूसरा " वुद्धिवोधात् ” अर्थात् केवलज्ञानके बोधसे ।