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(किं ) क्या (कदाचित् ) कभी(चलिताचलेन) कम्पित किये है पर्वत जिसने ऐसे (कल्पान्तकालमरुता) प्रलयकालके पवनसे (मन्दरादिशिखरं ) सुमेरु पर्वतका शिखर (चलितं)चलायमान् हो सकता है ? कभी नहीं । ___ भावार्थः-प्रलयकालकी हवासे सब पर्वत चलायमान हो जाते है, परन्तु सुमेरुपर्वत किचित् भी चलायमान् नही होता है । इसी प्रकार यद्यपि देवागनाओंने सम्पूर्ण ही ब्रह्मादिक देवोंके चित्त चलायमान कर दिये, परन्तु आपका चित्तरंचमात्र भी विकारयुक्त नहीं हुआ ॥ १५ ॥
निर्दूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः __ कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः॥१६॥ नहिं मेल बाती तेलको, नहिं नेकु जामें धूम है। अरु करत है परगट निरंतर, जो जगत ये तीन हू ॥ जापै पवनबल चलत नहि, चल करत जो गिरिवर अहो!। हे नाथ, तुम ऐसे अपूरव, जगप्रकाशक दीप हो ॥१६॥
अन्वयार्थों-(नाथ ) हे नाथ, (त्वं) तुम (निर्दूमवर्तिः) घूम तथा वातीरहित, ( अपवर्जिततैलपूरः) तैलके पूररहित,
१ प्रलयकालकी हवा ऐसी भयानक होती है कि, उससे बड़े २ पर्वत चल जाते हैं, एक सुमेरुपर्वत ही उस समय अचल रहता है।