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धाराधरनके उदरमें परि, जिहि प्रभाव न घटत है। यों मुंनिप, जग महिमा तिहारी, भानुहूतै महत है॥१७॥
अन्वयाथी-आप ( न कदाचित् ) न तो कभी ( अस्तं) अस्तको ( उपयासि ) प्राप्त होते हो, (नराहुगम्यः) न राहुके गम्य हो, अर्थात् न आपको राहु ग्रसता है और (न)न (अम्भोघरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः) बादलोंके उदरसे आपका महाप्रताप रुकता है और (युगपत् ) एक समयमें (सहसा ) सहज ही (जगन्ति ) तीनों जगत्को आप ( स्पष्टीकरोषि ) प्रगट करते हो । इस प्रकारसे (मुनीन्द्र) हे मुनीन्द्र, (लोके) लोकमें आप (सूर्यातिशायिमहिमा असि) सूर्यकी महिमाको भी उल्लंघन करनेवाली महिमाके धारण करनेवाले हो ।
भावार्थः-सूर्य संध्याको अस्त हो जाता है, आप सदाकाल प्रकाशित रहते है। सूर्य एक जम्बूद्वीपको ही प्रकाशित करता है, आप तीन जगतके सम्पूर्ण पदाथाको प्रकाशित करते है । सूर्यको राहुका ग्रहण लगता है, आपको किसी प्रकारके दुप्कृत प्राप्त नहीं होते । सूर्यका प्रताप मेघ ढक लेते है आपका प्रताप मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलादि ज्ञानावरणीय कर्मोके आवरणसे रहित है। इस प्रकारसे हे मुनिनाथ, आप सूर्यसे भी बड़े सूर्य है ॥१७॥ नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ।
१ बादलोंके । २ हे मुनिराज, ।