________________
( कलङ्कमलिनं ) कलंकसे मलिन रहनेवाला (विम्ब) मंडल, (यव) जो कि (वासरे) दिनमें (पाण्डुपलाशकल्पम्) पलाशके अर्थात् ढाकके पत्तेके समान सफेद (भवति) होता है।
भावार्थः-आपके सदा प्रकाशमान निष्कलंक मुखको चन्द्रमाकी उपमा नहीं दी जा सकती है । क्योंकि चन्द्र कलंकी है और दिनको ढाकके पत्ते जैसा प्रभाहीन हो जाता है ॥ १३ ॥ . सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लश्यन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं
कस्तानिवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥ हे त्रिजगपति, पूरन निशापतिकी, कला ज्यों ऊर्जरे । गुनगन तिहारे विमल अतिशय, भुवन तीनहुँमें भरे ॥ आश्रय अपूरव एकजगके, नाथको जिनने लियो । चाहे जहां विचरै तिनहि, है रोकिवे किहको हियो ॥ १४॥
अन्वयार्थी-(त्रिजगदीश्वर ) हे तीनजगतके ईश्वर, (तव) तुम्हारे ( सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलापशुभ्रा गुणाः) पूर्णिमाके चन्द्रमंडलकी कलाओं सरीखे उज्ज्वल गुण (त्रिभुवनं)तीन भुवनको ( लड्डयन्ति ) उलंघन करते है अर्थात् तीनों लोकोंमें व्याप्त है । क्योंकि (ये) जो गुण (एक) एक अर्थात् अद्वितीय (नाथम् ) तीन लोकके नाथको (संश्रिताः) आश्रय करके रहे हैं,
.
--
-
१उज्ज्वल।