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त्यों ही हथकढ़ी वेडी सहित सव ताले टूट गये । और सट खट किवाड़ खुल गये । मुनिराज थाहर निकलकर द्वारके चबूतरेपर आ विराजे । वेचारे पहरेदारोंको बदी चिन्ता हुई । उन्होंने बिना किसीके कुछ कहे सुने, फिर उसी तरह मुनिराजको कैद कर दिया । परन्तु थोडी ही देर में फिर वही दशा हुई । मुनीश फिर वाहर आ विराजे । अबकी बार सेवकोंने राजासे जाके मुनिराजके बंधनरहित होनेकी सवर सुनाई । राजाको वड़ा आश्चर्य हुआ। परन्तु पीछे यह सोचके कि शायद कुछ रक्षामें प्रमाद हुमा होगा, सेवकोंसे फिर कहा कि, उन्हें फिर उसी तरह कैद कर दो, और सख्त पहरा रक्खो । सेवकोंने वैसा ही किया, परन्तु थोढी ही देर में वही वात हुई और मुनिराज बाहर निकल आये । अवकी वार वे वहासे सीधे राजसभामें जा पहुचे । उनके दिव्यशरीरके प्रभावसे राजाका हृदय काप गया । उन्होंने कालिदासको बुलाकर कहा,-" कविराज, मेरा आसन कम्पित हो रहा है, इसका कुछ यन करो । मैं अब इस सिंहासनपर क्षणभर भी नहीं ठहर सकता हू।" कालिदास महाराजको धैर्य देकर उसी समय योगासन लगा कर बैठ गये और कालिकाका स्तोत्र पढ़ने लगे । थोडे ही समयमें कालिकादेवी साक्षात् प्रगट हुई । साथ ही मुनिराजके समीप चक्रेश्वरीने दर्शन दिये। राजसभा चक्रेश्वरीका भव्य-सौम्य और कालिकाका विकराल-वंडरूप देखकर चकित हो गई । चक्रेश्वरीने ललकारके कहा कि-कालिके, तू यहा क्यों आई ? क्या अब तूने मुनिमहात्माओंको उपसर्ग करनेकी ठानी है ? अच्छा देख, मैं अव तेरी कैसी दशा करती हूं । कालिका प्रभावशालिनी चक्रेश्वरीको देखते ही डर गई, और नानाप्रकारसे स्तुति करके कहने लगी कि-अव मैं ऐसा कृत्य कभी न करूंगी । चक्रेश्वरीने इसपर कालिकाको बहुतसा उपदेश दिया और हिंसा छोड़कर अहिंसारूप प्रवृत्ति करनेकी प्रतिज्ञा कराई । इसके पश्चात् कालिका मुनिराजसे क्षमा मागकर लोप हो गई। राजा और कालिदासादिकने भी मुनिराजका प्रभाव देखकर क्षमा मांगी तथा नानाप्रकारसे स्तुति की । और राजाने तो मुनिमहाराजसे श्रावकके व्रत लेकर जैनधर्मका प्रभाव ससारमें व्याप्त कर दिया । चक्रेश्वरीदेवी उपसर्ग निवारण करके अदृश हो गई।