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विना ( अपि ) ही (विगतत्रपः ) लज्जारहित जो (अहम् ) मैं (स्तोतुं) आपका स्तवन करनेको (समुद्यतमतिः) उद्यतमति हुआ हूं अर्थात् तत्पर हुआ हूं, सो ठीक है। क्योंकि (वालं विहाय ) बालकके सिवाय (अन्यः) अन्य (का) कौन (जनः) मनुष्य ऐसा है, जो (जलसंस्थितम् ) जलमे दिखाई देने वाले (इन्दुविम्बं) चन्द्रमाके प्रतिविम्बको (सहसा) एकाएक (ग्रहीतुम) पकड़नेके लिये ( इच्छति ) इच्छा करता है ?
भावार्थ:-जैसे मूर्ख बालक जलमें पड़ी हुई चन्द्रमाको छायाको पकड़ना चाहता है, उसी प्रकार मैं भी आपका स्तोत्र करने के लिये . तयार हुआ हूं, जो कि अतिशय कठिन है ॥ ३॥ वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्ककान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि वुद्ध्या । कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र
को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ॥ हे गुणनिधे, शशिसम समुज्ज्वल, कहन तुव गुनगनकथा। सुरगुरुनके सम हू गुनी जन, हैं न समरथ सर्वथा । जामें प्रलयके पवनसों, उछरत प्रवल जलजंतु हैं। तिहिं जलधिकहँनिज भुजनसों, तिर सबैको वलवंतु हैं।
अन्वयार्थों-(गुणसमुद्र) हे गुणोंके समुद्र (ते) तुम्हारे ( शशाङ्ककान्तान् ) चन्द्रमाकी कान्ति जैसे उज्ज्वल (गुणान्)
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१ इन्द्र के समान बुद्धिमान् । २ मगरमच्छ आदि जलचर जीव ।