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हरिगीतिका छंद। जो सुरनके नत मुकुटमनिकी, प्रभाको परकाशते । पुनि पापरूपी प्रवल अतिशय, तिमिरज विनाशते । अरु जो परे भवजल दियो, अवलम्ब तिनहिं युगादिमें जिनदेवके तिन चरनजुगको, नमन करके आदिमें-॥१॥ मैं शक्तिहीन हु करहुं थुति, अचरज वड़ो सुखकारिनी। तिन प्रथम जिनकी परमपावन, अरु भवोदधितारिनी॥ जिनकी त्रिजगजनमनहरन वर, विशद विरद सुहाइ है। हरिने सकैलश्रुततत्त्व-बोध-प्रसूत-बुधिसोंगाइ है ॥२॥
अन्वयार्थी-(भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणाम् )भक्तिमान् देवोंके झुके हुए मुकुटोंकी जोमणियाँ है, उनकी प्रभाको (उझ्योतक) प्रकाशित करनेवाले, (दलितपापतमोवितानं) पापरूपी अंधकारके समूहको नष्ट करनेवाले और (भवजले) संसारसमुद्रमें (पतता) पड़ते हुए ( जनानां) मनुष्योंको (युगादौ ) युगकी अर्थात् चौथेकालकी आदिमें (आलम्बन) सहारा देनेवाले, (जिनपादयुगं) श्रीजिनदेवके चरणयुगलोंको (सम्यक् ) भलीभांति (प्रणम्य ) प्रणाम करके:-॥ १॥ (सकलवाङ्मयतत्त्ववोधात्) सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणीका रहस्य जाननेसे ( उद्भूतबुद्धिपटुभिः ) उत्पन्न हुई जो बुद्धि, उससे प्रवीण ऐसे (सुरलो कनाथैः) देवलोकके खामी इन्द्रोंने ( जगत्रितयचित्तहरैः)
१ अंधकारके समूहको । २ इन्द्रने। ३ सम्पूर्ण द्वादशागसे उत्पन्न हुई चतुर बुद्धिके द्वारा । ४ अर्थात् देवोंके मुकुट आपके चरणोंकी प्रभासे और भी अधिक दीप्तिमान होते हैं।