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श्री त्रिभंगी सार जी
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी
ममल मत
से भटक रहा है और ऐसे ही आश्रव बंध में प्रवृत्त रहा तो अनन्तकाल तक भटकता रहेगा। इस बात का विचार भव दुःख से भयभीत होकर त्रियोग की स्थिरता करके संवर रूप रहता हुआ शुभगति बन्ध और परम्परा गति बन्ध से सर्वथा मुक्त होने की अपनी भावना रखे।
तात्पर्य यह है कि संवर का पुरुषार्थ करना ही सच्चा पुरुषार्थ है। शेष समस्त संसारी पुरुषार्थ, पुरुषार्थ नहीं बिडंबना मात्र है। इससे अपनी आत्मा को पाप-पुण्य के चक्कर में डालकर चारोंगतियों का पात्र बनाना है; अत: परिपूर्ण विवेक बल के द्वारा जैसे बने वैसे आत्म हित की साधना और अपने आत्म कल्याण के लिये “संवर" की प्राप्ति करना चाहिये।
एक मात्र यही मनुष्य भव पाने का प्रयोजन है।
इस प्रकार प्राप्त सुअवसर एवं पाई हुई इस पर्याय को सार्थक करना चाहिये। मनुष्य भव ही एक मात्र मुक्ति पाने का द्वार है।
श्री चौबीसठाणा जी उवं उवन उवन विंद विंद भवनं, विन्यानं विनयं सुर्य । उत्पन्नं नंतानंत सुयं च सुरयं, सुद्धं च सुद्धात्मनं ॥ उवनं उवन सुभाव मनस्य ममलं, मै मूर्ति न्यानं धुर्व । लोकालोक सुर्य सुरं च सुरयं, सुन्नं सहावं सुरं ॥ १ ॥ मनुवा मन उववन्न उवन उवनं, विंदस्य त्रितियं सुयं । आवर्न तं न्यान सुद्ध ममलं, दर्स च अदर्स सुयं ॥ दर्स नंतानंत सुद्ध ममलं, आवर्न दर्स सुयं । मानं नंत विसेष सुद्ध ममलं, परमप्पा परमं धुवं ॥ २ ॥ आवन तं मान सूर्य सुरं च सरयं, विंदस्य रमनं परं । न्यानं न्यान विन्यान न्यान ममलं, अंतर सुरं अंतरं ॥ विंदं त्रितिय विसेष सुयं च रमनं, सद्भाव भावं सुरं । संसारं सरयंति सहस्य रवनं, आवर्न न्यानं परं ॥ ३ ॥ उवनं उवन स विंद विंद भवनं, विन्यान न्यानं मयं । उत्पन्नं उववन्न उवन उवनं, उत्पन्नं श्रियं सास्वतं ॥ उत्पन्नं हिय हेय एय ममलं, हितकारं श्रियं सुरं । उत्पन्नं सहयार रंज रमनं, सहयारं श्रियं परं ॥ ४ ॥
ROHIBA