Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 444
________________ श्री छद्मस्थवाणी जी अचिंत चिंतामणि भय सल्य संक अनंत विली, अनंत बाधा विली ॥ ३० ॥ उत्पन्न प्रवेस अनंत भौ विली, जिन तारन तरन समर्थ, जिन जिनु पाये हैं ।। ३१ ।। चित्त प्रगट के न कहै, परोष्य के जो कहिये जै जै मिलि हौ जैनमती, रैनामती जै जै जै ॥ ३२ ॥ ॥ ।। संसार तो आवहि जाही, हम संसार छुड़ावा हैं ।। कमलावती यहु दिस्टि बहतरी, इहां बुलाए आवहि जाही अब बहतरी अगौनीवत अब ही तो बुलाये आवहि जाही ये दरवाजे दिवावहु, अवहि तो आगौनी बहु है, अब तो बुलाये आवहि जाही ।। ३६ ।। निज हेर बैठो नाहीं तो रार कीजे ।। ३७ ।। अब को है रे ऐसो, अब तो अभय उत्पन्न आयरन जै, आराधि जै, आलाप जै, उत्पन्न जै, हितकार जै, सहकार जै, उत्पन्न त्रिलोकनाथ अनंत प्रवेसी, अचिंत चिंतामणि, अनंत जय जय जय ॥ ३८ ॥ जानंतनि पायो, जे सात (७) की विधि लीजहिं रे विगस लीजहिं ।। ३९ ।। ३३ । ३४ ॥ ३५ ।। छै सै बहत्तर (६७२) जै पयोग, पयोग एक एक सुभाव साठि (६०), एक एक पयोग सहस आठ (१००८ ) ॥ ४० ॥ जान मान दान ।। ४९ ।। जान मलयागिरि के प्रवेस ।। ४२ ।। ૪૪૪ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी मान श्रवन सुवन सुभाव ।। ४३ ।। दान उवन सुयं प्रवेस ।। ४४ ।। संजोग जोग ध्यान ।। ४५ ।। उत्पन्न जोग ध्यान दिन छह ।। ४६ ।। आगे छद्मस्थ जिहि अवहि के दिन पायौ तिहि मुक्ति कल को सुभाउ ।। ४७ ।। अवहि निधि इन दिनहु महिं लियौ सु पायौ, सु मुक्ति कलन प्रमान ध्रुव उत्पन्न प्रवेस ।। ४८ । हितकार हुंतकार साह संपत्ति आठ हरी, नौ प्रति हरी, चौ चक्कवे, श्रेणि समंतभद्र बलभद्र ये चौबीसई समै सुभाव कोड कोड चौबीस ही समै गर्भिऊ ।। ४९ ।। अपनी अपनी सामग्री करहु ॥ ५० ॥ चक्रवर्ती के अनंत कोड उत्पन्न ॥ ५१ ॥ अनंत अर्क अर्केड, अनंत उत्पन्न प्रवेस, सुयं इन्द्र कोड कियो, शत इन्द्र कोड कियो वंदितं वन्दे ।। ५२ ।। उत्पन्न समै कोड च चतुस्टय के चारई आरते उठे ।। ५३ ।। अनंत उत्पन्न दुंदुहि सब्द, अनंत इन्द्र, धरनिंद, गंधर्व, जण्य अनंत महोछे आये ॥ ५४ ॥ मानस्तंभ देषि मान गल्यौ, उत्पन्न उत्पन्न अनंत प्रवेस, अनंत प्रवेसिऊ अनंत अर्क अर्केऊ ।। ५५ ।। अनंत इच्छा निबांछने करत महोछौ, अनंत ध्रुव अस्थाप रोम रोम कोड उत्पन्न ।। ५६ ।

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