Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 452
________________ श्री छग्रस्थवाणी जी उत्पन्न आयरन, आराधि, आलाप, धुव अनंत विंद, रतन जड़ित हार आये, लेहु रे लेहु लेहु पहिरावहु रतन जड़ित माले॥ ८ ॥ दयालप्रसाद दियौ, लेहुरे पहिरहु जै मानिक मोती निवाही, जं जासु प्रापति सो लहै ॥ ९॥ पांच सौ बहत्तर (५७२) सुन्न देषत हो रे, सुन समूह बाउरे हिरदै देषौ ॥१०॥ आहूठ कोड सम्पूर्न, विंद उत्पन्न, चतुस्टय उत्पन्न, आदिहि सर्वार्थ उत्पन्न, गणधर रे पालकी लिवाउन आये। पालकी आगौनी अनंत, चौरासी आसन सिंहासन, सिंहासन प्रवेस, मनु विली, षिपक रासि, जिन सुभाव, असोक विछ, दिव्यधुनि, मागधी भाषा, दुंदुहि सब्द, इस्ट उत्पन्न राशि पुहुप विष्टी, हंतकार २१ दिव्यधुनि, अन्मोद विद्धि, सहज सुभाव, परम आनन्द, मिलन औकास, कहिउ हुँतकार चारि (४)। अषय उत्पन्न धुव साह सरनि विली, मुक्ति विलास, हुंतकार दोई (२)। कलनावती को धारि प्रिये प्रवेस, धुव साह प्रवेस, जिन दान रुइया जिन हुंतकार छह (६), जय बहत्तरि (७२), जय चौबीसी (२४), जय तीनि (३), तीन रत्न जड़ित पालने, रत्न जड़ित विवान हंतकार छह । सुयं उत्पन्न चतुस्टय, आयरन, आराधि, आलाप, मुक्ति प्रसाद अनंत चतुस्टय मुक्ति विलास, एक सुभाउ, पै एक सु एक, सुन्न विंद काहे रे लेहो नाहीं? नो उदंड वर्ग, ग्यारह उवदंड वर्ग, नित मूल उत्पन्न समै, कलनावती अरु रुइया जिन को दियौ, उत्पन्न केवल, अरु सर्व समै को दियौ, अनंत प्रवेस नौ उत्पन्न निधि, चौदह उत्पन्न रयन, अचिंत चिन्तामणि उत्पन्न प्रवेस प्रसाद, गन अस्मूह समै कह दियौ ॥ ११ ॥ दयाल होई दियौ, अनंत प्रवेस प्रवेस्यो, अनंत अनंत महोछौ, मानापमान काहैरे! अवहि की उपजी का लैहोनाही रे! कै सोवत हो, हौं देत हों अनंत श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी निधि, अनंत भ्रमन भवान्तर गयौ, अबहि के मुक्ति प्रवेस । रुइया जिन को प्रसाद दियौ, गणधर ग्यारह (११), ग्यारह के चौबीस (२४), चौबीस के बहत्तर (७२), और अनंत प्रसाद अनंत दिस्टि, अदिस्टि उत्पन्न प्रसाद । पहिले रुइया जिन पहिराये रतन जड़ित पहिरावन, तिलक ग्यारह (११), अनंत प्रसाद, अनंत समै संजुक्त प्रसाद । जो थाती मैं लिष प्रवेस दियौ, अनंत प्रिये संसर्ग अनंत प्रवेस, लेहु रे बड़े प्रिय प्रमान दयाल दियौ, प्रिये प्रमान धुव उत्पन्न साह एक हजार चार सै बहत्तर (१४७२) ॥ १२ ॥ ॥ इति एकादशोऽधिकारः॥ द्वादश अधिकार गया जिनका सम्बोधन :कलस अर्क एक प्रति कलस चौबीस (२४), उत्पन्न कमल द्रिस्यते, तीनि हजार छह सै बानवे (३६९२) कलस चतुस्टय उत्पन्न ॥ १॥ चौदह लाख सात सहस्र दोइ सै आठ कलस ढले (१४०७२०८)। तीन करोड़ साठ लाख आठ से दो (३६०००८०२) कलस कलस कलस, तिनको चार चतुस्टय । संवत् पन्द्रह सै बहत्तर (१५७२) वर्षे, जेठ वदी छठ (६),सुक्रवार की रात्रि सनिचर दिन सातें (७), जिन तारण तरण सरीर छूटो, तदि सर्वार्थ सिद्धि प्रवेस उत्पन्न, अनंत सौष्य उत्पन्न प्रवेस प्रसाद, समै को प्रसाद, सुष्येन सुष्येन प्रचै प्रवेस प्रवेस्यो प्रमाण धुव उत्पन्न ॥ २॥ ॥इति द्वादशोऽधिकारः॥ ॥ इति श्री छद्मस्थवाणी नाम ग्रंथ जी...॥ ॥ आचार्य श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य विरचितं सम उत्पन्निता ।। (४५२)

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