Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 467
________________ श्री नाममाला जी २४७६, उत्पन्न कर्न श्री साह उत्पन्न १२९२, उत्पन्न चरनचर साह उत्पन्न १९२९, हंसश्री २१३१, सुवनश्री २२३२, औकासश्री ५३५, दिप्तिश्री ९९५, सुदिप्ती १०७२, सुर्कश्री १३३३, सर्वार्थश्री २७३७, विंदश्री १११७, अभयसिरी ८४८४, श्री ११२, जोड़ सर्व ३९६०५, पयोग १२१११७, विंदश्री ६१२, समय श्री ३००६, श्री १०, जोड़ सर्व ४३४५३३१ ।। पंडित उदऊ उक्त अन्मोय साह समय ३३१, पंडित सरउ उत्पन्न दिस्टि ४७४, पंडित भीषम उत्पन्न समय उक्त साह ६४, पंडित लषमनु उत्पन्न उक्त समय साह ४४, चरनश्री उक्तसाही १२७, लषनश्री उक्त उत्पन्न ७७४, नयरमन उत्पन्न उक्त साह ६४, विसुनदास अभयरमन ७६, करमचंद अन्मोय नयरमन १४७, धनउक्त उत्पन्न अन्मोद नयरमन २७२, सहस समै साह उत्पन्न १८७, साह समय अन्मोय नयरमन ७४, मानसाह अन्मोय नयरमन १४४, कुंवार साह उत्पन्न १५३, मिलनकुंवार मिलन प्रिये ७२, चेतकुंवार मिलन सुभाउ २४८, निलयरंज उक्त साह २४, अन्मोय रंज उक्त रमन ४२, हियरंज उक्त उक्त रमन ७३४, रैनकुंवार उक्त साह उत्पन्न १८७, रूपरंज उक्त रमन १३३, इच्छकुंवार २७३, साहिकुंवार २५८, रिसि कुंवार १६४, रैनकुंवार १३७, सहजकुंवार २७३ वयकुंवार ८९, धनकुंवार उक्त रमन ३३, गमनरंज उक्त रमन ३२४, उवनरंज उक्त साह मदनश्री ५७, लषनकुंवार उक्त रमन ३२४, सिवकुंवार उत्पन्न रंज १११, लीनकुंवार १०३, हरषरंज २८७, परसकुंवार १७७, रिसि दिप्तिकुंवार १४३, हिययार रंज पस्यते १७, अल्पश्री पट तस्य बहिनें सतसई सर्वांगश्री तस्य उत्पन्न ५६७, हरषश्रेणि हरपति ४५, लीनरंज फूल १६७, उक्त साह विगस १२७, साहकुंवर उक्तसाह अभयरंज प्रदेस ८४ ॥ ॥ इति श्री नाममाला नाम ग्रंथ जी...।। || आचार्य श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य विरचितं सम उत्पन्निता ।। ४६७ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी श्री नाममाला जी - दोहा लाय । १ २ नाम माला ग्रन्थ का, वर्णन सुन मन नाम ठाम अरू जाति को, दीन्हों धर्म सुनाय ॥ आत्म ज्ञान जागो जिन्हें, आतम रुचि लौ लाय । आत्म ज्ञान निर्मल किये, मोक्ष लगन जग जाय ॥ आत्म ध्यान रुचि थिर भई, निर्मल कर निज गेह । निर्मल धारा उदय पद, तारन तरन कहेय ॥ जो धारा घट में बहै, जगे ज्ञान की रीति । किरिया कर जग हित धेरै, सो अनुभव की प्रीति ॥ अनुभव ही शुद्धात्मा, अनुभव अनुभव आतम ज्ञान का अनुभव पांचों ज्ञान ॥ ५. 11 अनुभव केवल ज्ञान हैं, द्वादशांग विस्तार । ३ ४ आत्म कमान । पायो भवदधि पार ॥ " जिन जिनने अनुभव लिया, नाम ठाम उन जीव के कहे ग्रंथ में सोय । जाति पांति पदवी सहित, खोल नयन अवलोय ॥ देखो अपनी जाति पद, लखो आपनो रूप । पर्यय दृष्टि विकार तज, आप बनों जग भूप ॥ आत्म नाम चेतन कहयो, दर्स ज्ञान मय देह में, सह कुटुम्ब औ राज सह पुत्री अपने ६ ७ ॥ || ॥ 11 ॥ 11 ८ 11 ९ || मोक्ष धाम शुभ ठाम । कर्यो सुभग विश्राम || मातु पिता सुत दार | पति सहित, धरौ धर्म हितकार ॥ १० ॥

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