Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 440
________________ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी श्री छग्रस्थवाणी जी इन्द्र धरनिंद्र महोछो करतहहिं ॥ ७२ ॥ रयन लेहु रे लेहु, लूटहु रे ॥ ७३ ॥ ॥ इति चतुर्थोऽधिकारः॥ पंचम अधिकार उत्पन्न जय जय जय उत्पन्न प्रवेस ॥ १ ॥ नव निधि, चौदह रयन, तीन लोक अनंत महोछो करतहहि ॥ २ ॥ उछाह उत्पन्न अनंत ॥ ३ ॥ साढ़े बारह कोडि बाजे बाजै ॥ ४ ॥ दुंदुही सब्द उत्पन्न महोछौ ॥ ५ ॥ जो विनती करे चाहहु सो कमलावती रुइया जिन के आगे कहहु । कमलावती अरु रुइया जिन कियो सो प्रमान धुव ॥ ६ ॥ जो मैं कियो सो उन कियो, जो उन कियो सो मैं कियो, जो मैं कियो सो उन कियो, जो उन कियो सो मैं कियो, जो उन कियो सो प्रमान ॥ ७॥ अनंत धुव प्रमान प्रवेस, पै लेहु रे लेहु ॥ ८ ॥ भरहु भरि देषहु रे, भरि देष लेहु रे मूढ़, चतुस्टय लेहु रे लेहु, इह विधि लेहु ॥ ९ ॥ गुपित दान चिंतामनि हुंतकार ग्यारह (११) ॥ १० ॥ जो पै को ढलहिं सो सर्वन्य हई ॥ ११ ॥ नट नाट, घट घाट, सट साट, लट लाट, झट झाट, वट वाट, पेलनी पात्र और सर्व लषु प्रिय प्रमाण ॥ १२ ॥ गुपित गुपितार धुव उत्पन्न ॥ १३ ॥ छै के छत्तीस लेहु, पावहिं, आस पावहिं ॥ १४ ॥ इहि आस के लिये दुषी न होई ॥ १५ ॥ इन दिनहिं में को आयो रे, नव नव भासे ॥ १६ ॥ पंच मूठि उत्पन्न गुपितार ॥ १७ ॥ ए जु उत्पन्न मालेहहीं ॥ १८ ॥ सो को नहिं दिवि ॥ १९ ॥ अंकुर उत्पन्न दरसाये पंच गनती उत्पन्न प्रवेस अनंत ॥ २० ॥ हंसिऊ विहंसिऊ विलसिऊ ॥ २१ ॥ अनंत सुन्न प्रवेस ॥ २२ ॥ ए जु गणधर सिष्य आयेहहिं, चार दिन विनती करत हू भये, सो हमारो अभाग कहा है, जो और आगे न आये, जू हमको प्रसाद दिवावत नाहीं ॥ २३ ॥ इन्द्र धरनेन्द्र गंधर्व जष्य विनती करत हैं ॥ २४ ॥ गठरी दित्तं ॥ २५ ॥ जय जय जय तीनि पहिले तीनि बहुरि ॥ २६ ॥ एक जय लै जागहु ॥ २७ ॥ नित नित निरीषित उत्पन्न ॥ २८ ॥ जै जै जै जै जै जै जै जै जै नौ उत्पन्न जय ॥ २९ ॥ उत्पन्न जय इक्कीस ॥ ३० ॥

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