Book Title: Adhyatma Vani
Author(s): Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publisher: Taran Taran Jain Tirthkshetra Nisai

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Page 432
________________ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी के जाल माता श्री सिद्ध सुभाव जी श्री सिद्ध सुभाव जी उत्पन्न सुह गम्य मुक्ति सिद्धि संपत्तु ॥ १०१ ॥ धुव साह उत्पन्न मिलन, अनयार विति सुभाव प्रवेस ॥ १०२ ॥ मिलन चेयनंद कुंवारु सिद्धि संपत्तं ॥ १०३ ॥ विलस कुंवारु सिद्धि संपत्तं ॥ १०४ ॥ ॥ इति श्री पाातिका विसेष नाम ग्रंथ जी...॥ ॥ आचार्य श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य विरचितं सम उत्पन्निता ।। सिद्धह सिद्ध सुभाउ, देषै न कहइ, सुनी न कहइ, हित उपजाइ न कहइ, बोलै तौ न बोलै ॥ १॥ औकास समल न कहै ॥ २ ॥ उत्पन्न आयरन साधू अरहंत सिद्ध ॥ ३ ॥ इच्छा भोजन जसु उछाह ऐसो सिद्ध सुभाउ ॥ ४ ॥ उत्पन्न प्रवेस उपजै लहई तहां षिपड़, क्रोध षिपड़, देषी षिपइ, सुनी षिपड़, ऐसो सिद्ध सुभाउ ॥ ५ ॥ पूर्व सहकार उत्पन्न रंज रमन आनंद बाधा रहित सिद्ध सुभाउ ॥ ६ ॥ तिहि को दान देइ, सिद्ध पहिचान लेइ, रली आनंद देइ ॥ ७ ॥ दान चार प्रगट प्रवेस देइ ॥ ८ ॥ दात्र देइ, पात्र लेइ, जिन अन्मोद प्रियो ॥ ९ ॥ बाधा रहित, चोरी रहित, चोरी दान न रुचे अन्मोद ॥ १० ॥ अर्क भूलै नर्क ठिदि परै ॥ ११ ॥ चोरी विरोध चोर, विस्वास चोर, लब्धि चोर, अन्मोद चोर, अघ दुर्बुद्धि चोर ॥ १२ ॥ उत्पन्नी दाता देइ गुन दिषावै ॥ १३ ॥ चोरी कै लेड़, बंधोरी कै लेइ, पन्हाइ कै लेइ ॥ १४ ॥ गाढ़ो धरै तो पावै, ठान पावै ॥ १५ ॥ इह लष्यन दान देइ तो सिद्ध की पहिचान होई ॥ १६ ॥

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