Book Title: Aavashyaksutram Part 01
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Agamoday Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 444
________________ आवश्यक हारिभद्री यवृत्तिः विभागः। ॥२२०॥ ASUSRUSSISSISSIUS छहिं मासेहिं न चलिओ एस दीहेणावि कालेण न सक्का चालेउं, ताहे पादेसु पडिओ भणति-सच्चं जं सको भणति, सवं खामेइ-भगवं ! अहं भग्गपतिण्णो तुम्हे समत्तपतिण्णावचह हिंडह न करेमि किंचि इच्छा न किंचि वत्तव्यो । तत्थेव वच्छवाली थेरी परमन्नवसुहारा ॥१२॥ छम्मासे अणुबद्धं देवो कासीय सो उ उवसग्गं । दळूण वयग्गामे वंदिय वीरं पडिनियत्तो॥५१३ ॥ __ जाह एत्ताहे अतीह न करेमि उवसर्ग, सामी भणति-भो संगमय! नाहं कस्सइ वत्तबो, इच्छाए अतीमि वा णवा, ताहे सामी बितियदिवसे तत्थेव गोउले हिंडतो वच्छवालथेरीए दोसीणेण पायसेण पडिलाभिओ,ततो पंच दिवाणि पाउन्भूयाणि, एंगे भणंति-जहा तद्दिवसं खीरं न लद्धं ततो वितियदिवसे ऊहारेऊण उवक्खडियं तेण पडिलाभिओ। इओ य सोहम्मे कप्पे सवे देवा तदिवसं ओबिग्गमणा अच्छंति, संगमओ य सोहम्मे गओ, तत्थ सक्को तं दठ्ठण परंमुहो ठिओ, भणइ ॥२२०॥ | पद्भिर्मासैनै चलित एप दीवेणापि कालेन न शक्यश्चालयितुं, तदा पादयोः पतितो भणति-सत्यं यच्छको भणति, सर्व क्षमयति-भगवन्तः ! अहं |भमप्रतिज्ञो यूयं समाप्तप्रतिज्ञाः । याताऽधुनाटत न करोम्युपसर्ग, स्वामी भणति-भोः संगमक ! नाहं केनापि वक्तव्य इच्छयाऽटामि वा नवा, तदा स्वामी द्वितीयदिवसे तत्रैव गोकुले हिण्डमानः, वत्सपालिकया स्थविरया पर्युषितेन पायसेन प्रतिलाभितः, ततः पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतावि, एके भणन्ति-यथा तदिवसा क्षीरेयी न लब्धा ततो द्वितीयदिवसे अवधार्योपस्कृतं तेन प्रतिलाभितः । इतश्च सौधर्मे कल्पे सर्वे देवाः तदिवसं (यावत् ) उद्विममनसस्तिष्ठन्ति, संगमकश्च सौधर्म गतः, तत्र शक्रस्तं दृष्ट्वा पराङ्मुखः स्थितो भणति * पडिलाभिओ इति पर्यन्तं न प्र.. Jain Educatio n al For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514