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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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प्रस्तावना॥
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: मनुष्य का कर्तव्य खान पान नहीं है मगर उत्क्रान्ति है उत्क्रान्ति दो प्रकार की होती हैः-दैहिक व आत्मिक, जिन में से पात्मिक उत्क्रान्ति श्रेष्ट है, ताहम भी हमें दैहिक को नहीं भूल जाना चाहिये. इन दोनों उत्क्रान्ति का आधार धर्म ही पर है, क्योंकि धर्म रूप धुरि के बिना दैहिक व आत्मिक उत्क्रान्ति रूप गाडी नहीं चल सक्ती.
विना धर्म के भी संसार सुखमय द्रष्टिगोचर होता तो है मगर वो मृगतृष्णावत् है। वास्तव में जैसे मृगजल, जल नहीं है वैसे ही विना धर्म के दृष्टिगोचर होता हुवा सुखी संसार दर हकीकत में सुखी नहीं है. परन्तु अंतर पटमें दुखरूप ज्वाला विद्यमान है. कहने का तात्पर्य यह है कि जहां शुद्ध धर्म है वहां ही सुखी संसार व आत्मो
क्रान्ति दोनों मोजूद है के जो मात्र जीवन का खास कर्तव्य है, परन्तु जहां तक धर्म का सच्चा रहस्य नहीं जानने में आवे वहांतक हृदयशून्य धर्म व बाहरी धामिक क्रिया से कुछ लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, अतएव धर्मका सच्चा संस्कार डालना होवे तो उसके वास्ते अनुकूल समय वाल्यावस्था ही है. इन दोनों कारणों से याने गुद्ध धर्मके संस्कार डालने व वह भी बचपन में ही डालने
आशय से, आसानी से समझ सके ऐसी शैली में केतनेक वर्षांके अनुभव के पश्चात् मांगरोल जनशाला के अध्यापक वर्तमान में" कॉन्फरन्स प्रकाश" नामके
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( २ ) साप्ताहिक पत्रके सब एडीटर मी० झवेरचंद जादवजी कामदारने " शालोपयोगी जैन प्रश्नोत्तर " नामी छोटीसी मगर अति उपयोगी पुस्तक गुजराती भाषामें प्रगट की थी, जो लोगों में प्रति प्रिय हो जाने के कारण हिंदके हिन्दी जानने वालों स्वधर्मित्रों के हितार्थ इसका हिन्दी अनुवाद करने की उत्कंठा मेरे हृदय में हुई थी जिसको. आज परिपूर्ण होती हुई देख कर मेरेको बहुत खुशी होती है.
मैंने हिन्दी भाषाका अभ्यास नहीं किया है परन्तु हिन्दी भाषा जानने वाले स्वधर्मिओं के समागम से कुछ अनुभव हिंदी भाषाका हुवा है अतएव भाषाके पूर्ण ज्ञानके अभाव से अनुवादमें बहुत त्रुटियां रह गई होंगी उनको पाठक गण क्षमा करेंगे ऐसी विनति है. यदि प्र. संगोपात इन त्रुटियों को पाठकगण लिखकर भिनवाने की कृपा करेंगे तो दूसरी आवृत्ति में इनको दूर करनेका साभार प्रयत्न किया जावेगा. .. ... ... .. अनुवादकः- डॉ० धारशी गुलाबचंद संघाणी
H. L. AI. S.
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* विषयानुक्रमणिका
विषय
प्रकरण
१३ त्रीचा लोकमें ज्योतिपी देव. १४ त्रीला लोक में व्यंतर देव. १५ पाठ कर्म. १६ श्राश्रय तत्व और संवर तत्व. १७ नारकी और परमाधामी. १८ काल चक्र. १६ त्रेसठ शलाका पुरुप. २० सम्यकुत्व. २१ अधोलोक में भुवनवासी देव. . २२ भव्य और अभव्य जीव. २३ निर्जरा तत्व. २४ उर्व लोक में वैमानिक देव. २५ चोवीस दंडक. २६ वंध तत्व. २७ मोक्ष तत्व.
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शालोपयोगी जैन प्रश्नोत्तर.
भाग दूसरा-प्रकरण १३ वां.
त्रीला लोक में ज्योतिषी देवों. (१) प्रश्नः तुमने सूर्य देखा है क्या ?
उत्तरः हां. (२) प्रश्नः सूर्य, यह जैन शास्त्रानुसार क्या चीज है ?
उत्तरः देवता का विमान (३) प्रश्नः यह विमान किस चीज का है ?
उत्तरः स्फाटिक रत्न का. (४) प्रश्नः यह उजाला कहां से आता है ?
उत्तरः सूर्य के विमान में से. (५) प्रश्नः उजाला का दूसरा नाम क्या ?
उत्तरः ज्योत, प्रकाश. (६) प्रश्नः सूर्य में रहनेवाले देवों को कैसे देव कहते हैं ?
उत्तरः वैमानिक. . (७) प्रश्नः सूर्य के अलावा दूसरे ज्योतिषी देव हैं ?
यदि होवे तो उनके नाम कहो ? उत्तरः हैं. चंद्र, गृह, नक्षत्र व तारा. (८) प्रश्नः कुल कितने प्रकार के ज्योतिषी देव हैं ?
- उत्तरः पांच, (चंद्रमा, सूर्य, गृह, नक्षत्र व तारा) (8) प्रश्नः कुल देवों कितने हैं ?
म. मामिका
व
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उत्तर: असंख्याता. (१०) प्रश्नः विमान की संख्या अधिक है या देवों की? उत्तरः देवों की संख्या अधिक है. क्योंकि प्रत्येक
विमान में अनेक देव देवी रहते हैं. (११) प्रश्नः ज्योतिपी में देवता की संखण अधिक है
या देवीं की? . उत्तरः- देविओं की संख्या अधिक है। क्योंकि
प्रत्येक देव को कम से कम चार देवी होना
ही चाहिए. (१२) प्रश्नः अपन जो विमान देखते हैं वे सब किस
लोक में हैं ? उत्तर: त्रीशा लोक में. (१३) प्रश्नः जीव के ५६३ भेद में ज्योतिषी के कितने
भेद ? उत्तरः वीश. चंद्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र व तारा ये
पांच चर व पांच स्थिर मिलकर ज्योतिषी की कुल दश जात होती हैं. उन दशों का अपर्याप्ता वं पर्याप्ता मिल कर कुल २० भेद
ज्योतिषी के होते हैं. (१४) प्रश्नः जिन विमानों को अपन देखते हैं वे सब
चर है या स्थिर ? . : उत्तरः चर है यानि निरंतर पूर्वसे दक्षिण, पश्चिम
व उत्तर इस प्रकार परिभ्रमण करते रहते हैं. (१५) प्रश्नः स्थिर विमान कहां है ?
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( ३ ) उत्तरः ढ़ाई द्वीप के बाहिर.. (१६) प्रश्न: ज्योतिषी में इन्द्र कितने हैं ? उत्तरः चंद्रमा व सूर्य ये ज्योतिषी देवों में इन्द्र माने जाते हैं.
प्रकरण १४ वां.
त्रीछा लोक में व्यनर देवों ।
(१) प्रश्न: त्रीछा लोक का आकार कैसा है ? उत्तरः गोल, चक्की के पाट जैसा.
(२) प्रश्न: त्रीछा लोक की लंबाई, चौडाई व उंचाई कितनी है ?
उत्तरः उसकी लंबाई व चौडाई एक राज की अर्थात् असंख्याता जाजन की है व उंचाई १८०० जोजन की है.
( ३ ) प्रश्न: अपने नीचे कितने योजन तक त्रीछालोक कहलाता है ?
उत्तरः नवसो जोजन तक.
( ४ ) प्रश्नः ये नवसो जोजन में क्या क्या चीज है ? उत्तर: प्रथम यहां से १० योजनं तक मृतिका पिंड माटी का पिंड है इसके बाद ८० योजन का पोला आता है उसमें १० जाति के भंका (बाण व्यंतर की जात के ) देवों रहते हैं. उसके नीचे १० योजन का मृविका
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( ४ ) पिंड है. ये सब मिलके १०० योजन हुवे उसके नीचे ६०० जोजन का पोलाण है, उस पोलाण में व्यंतर देवों के असंख्य नगर हैं. सारा ती; लोक में असंख्य द्वीपों की नीचे व्यंतर देवों के असंख्य
नगर रहे हुवे हैं. (८) प्रश्नः असंख्याता समुद्र के नीचे व्यंतर देवों के
नगर हैं या नहीं ? उत्तरः नहीं हैं. लवण समुद्र सिवाय दूसरे सब
समुद्र की गहराई १००० योजन सब
जगह होती है, उस गहराई के १००० . . योजन में से १०० योजन त्रीला लोक
में व १०० योजन अधोलोक में गिने जाते हैं ये हजार योजन के पीछे तुरंत ही पहिली नर्क का प्रथम पाथडा आता है.
जिससे वहां पर व्यंतर के नगर नहीं होते हैं. (३) प्रश्नः वाणव्यंतर देवों के कितने भेद हैं ? उत्तरः सोलह. -१ पिशाच, २ खून, ३ यत, ४
राक्षस, ५ किन्नर, ६ किंपुरिस, ७ महोरग,
८ गंधर्व, ६ आणपनी, १०. पाणपन्नी, . ११ इसीवाई, १२ भुईवाई, १३ कंदीय,
१४ महा कंदीय, १५ को हंड, १६ पयंगदेव. (७) प्रश्नः ज॑भका देव कितनी जात के हैं ?
उत्तरः १०. -१ आभका, २ पाणभका, ल. . यण जंभका, ४ सयण जंभका, ५ वत्थ
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जंभका, पुष्प जंभका, ७ फल जंभका, ८ वीज जंभका, ६ वीजुभका, १० अवि
यत जंभका. . (८) प्रश्नः वाणव्यंतर व जंभका देवों कुल कितने हैं ?
उत्तर; असंख्याता. (6) प्रश्नः वाणव्यंतर में देवा अधिक है या देवी ? उत्तरः देवी ज्यादे है. क्योंकि प्रत्येक देव को
कम से कम चार चार देवी होनी ही
चाहिये, (१०) प्रश्नः वाणव्यंतर देवों की श्रायुष्य कितनी होवे? उत्तरः उनको जघन्य यानि कम से कम दश
हजार वर्ष की व उत्कृष्ट एक पल्योएम
की आयुष्य होती है. (११) प्रश्नः वाणव्यंतर की देवी की आयुष्य कितनी
होवे? उत्तरः जघन्य १० हजार वर्ष की और उत्कृष्टी
अंध पल्योपम की. (१२) प्रश्नः वाणयंतर देवों मर कर कौनधी गतिमें
उत्पन्न होते हैं ? उत्तर; दो गति में. ( मनुष्य में व तिर्यंच में) (१३) प्रश्नः वाणव्यंतर के नगर अपने नीचे पालान में
हैं तो वहां सूर्य का प्रकाश कैसे पहुंचता होगा ? वहां घोर अंधकार रहता होगा क्या ?
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उत्तरः उन नगरों में रत्न जड़ित बड़े बड़े आवास
हैं वे सब सूर्य के माफिक देदीप्यमान हो रहे हैं दोयम देवता देविओं के शरीर का वाभरणादिक का भी भारी उद्योत होता है जिससे वहां अंधकार रहन नहीं
पाता? (१४) प्रश्नः अपन कभी इन नगरों में देवता पने उत्पन्न
हुए होंगे या नहीं ? उत्तरः हां अपन भी अनंती दफे देवता व देवी
पने उन नगरों में उत्पन्न हो चुके हैं. (१५) प्रश्न: कैसे मनुष्यों को वाणव्यंतरादि देवों भी
सदा नमने भजते रहते हैं और कुछ भी उप
सगे (परिषह व दुःख) नहि कर सकते हैं ? उत्तरः तीर्थकर, चक्रवति, बलदेव, वासुदेव, उत्तम
साधु साधवी और ब्रह्मचारी यानि शुद्ध शियल व्रत पालने वाले स्त्री पुरुषों को देवताओं भी नमस्कार करते हैं और किसी भी प्रकार का उपसर्ग नहीं कर
सकते हैं. (१६) प्रश्नः जीव के ५६३ भेद में वाणब्यंतर के कि.
. तने भेद हैं ? उत्तरः बावन ( सोलह वाण ब्यंतर व दश मुंभ
का इन २६ के अपर्याप्ता व पर्याप्ता मिलकर ५२).
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(१७) प्रश्नः वाण व्यंतर देवों में इन्द्र कितने हैं ? . उत्तरः वत्तीस(दरेक जात में उत्तर के व दक्षिण के
यों दो दो इन्द्र होते हैं ). (१८) प्रश्नः इन्द्र किसे कहते हैं और ये कल कितने हैं ! उत्तरः देवों के अधिपति को इन्द्र कहते हैं और
वे कुल * ६४ हैं.
प्रकरण १५वां--पाठकर्म। (१) प्रश्नः अपने प्रात्मा व सिद्ध भगवंत के आत्मा
में क्या फर्क है ? उत्तरः अपने आत्मा आउ कर्म से आवरित है
बंधी खाने में पड़ा हुवा है और सिद्ध
भगवंत कर्म के बंधन से मुक्त हुये हुवे हैं। (२) प्रश्नः सिद्ध भगवंत को अनंत ज्ञान है और
अपन को नहीं इसका क्या कारण है ? . उत्तरः सिद्ध भगवंत ने ज्ञानावरणीय कर्म का
तय किया है व अपन ने उस कर्म का तय किया नहीं (आंख में जैसे देखने का गुण है उसी तरह सर्व आत्मा में अनंत ज्ञान गुण रहा हुवा है परंतु जैसे आंख
के पाटा बंधा हुवा होवे तो दीखे नहीं ___ * ज्योतिषी में असंख्याता.इन्द्र हैं मगर यहां समुच्चय दो इन्द्र गिने गये हैं।
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(=)
वैसेही ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से ज्ञान प्रगट होता नहीं. जितने अंशे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय अथवा उपशम होवे उतने ज्ञान प्रगट होता है 1,
( ३ ) प्रश्न: सिद्ध भगवंत को अनंत दर्शन देखने का गुण है और अपन को नहीं इसका क्या कारण है ?
उत्तरः अपन को दर्शनावर्षीय कर्म कि जो राजा के द्वारपाल समान है वो बाधा डालता है और सिद्ध भगवंत ने उस कर्म का क्षय किया है ।
( ४ ) प्रश्न: सिद्ध भगवंत को अनंत सुख है और अपन को नहीं इसका क्या कारण है ?
-"
उत्तरः अपन को वेदनीय कर्म कि जो मध से लिप्त खड्ग समान है वह शांता अशाता वेदन को देता है और सिद्ध भगवंत ने उस वेदनीय कर्म का क्षय किया है ।
( ५ ) प्रश्न: अपन में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायें हैं और सिद्ध इसका क्या कारण ?
भगवंत में नहीं है
उत्तर: अपन मोहनीय कर्म कि जो मद्यपान समान बेहोश बनाने वाला है उसके वश में हैं और सिद्ध भगवंत ने मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय किया है ।
६ ) प्रश्न: अपन को वृद्धावस्था और मृत्युका भय है और
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(8) सिद्ध भगवंत को नहीं इसका क्या कारण है ? उत्तरः अपन ने आयु कर्म का तय नहीं किया है
और सिद्ध भगवंत ने उस कर्म का क्षय
किया है जिससे वे अजर अमर पद पाये हैं। (७) प्रश्नः अपन नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देवता इन
चार गति में भटकते हैं और नानाविध शरीर को धारण करते हैं और सिद्ध भगवंत को ऐसा नहीं करना पड़ता है इस
का क्या कारण है ? उत्तरः अपन ने नाम कर्म का तय नहीं किया है
और सिद्ध भगवंत ने उसका तय किया है। (८) प्रश्नः अपन उंच नीच गोत्र में जन्म लेते हैं और
सिद्ध भगवंत आत्मा के मूलगुण को (अगुरु लघु गुण को) प्राप्त हुए हैं इसका क्या
कारण है ? उत्तरः अपन गोत्र कर्म के वश में हैं और सिद्ध
भगवंत ने उस कर्म को क्षयं किया है। (8) प्रश्नः अपन को इप्सितार्थ-इच्छित अर्थ साधने
में वारम्बार विघ्न होता है और सिद्ध . भगवंत ने सर्व अर्थ की सिद्धि की है इस
का क्या कारण है ? उत्तरः सिद्ध भगवंत ने अन्तराय कर्म का क्षय
किया है और अपन उसका तय नहीं कर सके हैं।
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(१०) (१०) प्रश्नः आठ कर्म के नाम.अनुक्रम से कहो ?
___ उत्तरः ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, ___ मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र व अंतराय । (११) प्रश्नः ज्ञानावरणीय कर्म किसे कहते हैं ? उत्तरः ज्ञान को रोकनेवाला कर्म सो ज्ञानावर
गीय कर्म । (१२) प्रश्नः ज्ञान के मुख्य भेद कितने हैं व कौन २
उत्तरः पांच. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः
पर्यवज्ञान व केवलज्ञान। (१३) प्रश्नः मतिज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तरः पांच इन्द्रिय और छठा मन इनके द्वारा . जो ज्ञान होता है उसको मतिज्ञान कहते हैं। (१४) प्रश्नः श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तरः शास्त्र पढने व श्रवण करने से जो ज्ञान
होता है उसको श्रुतज्ञान कहते हैं। (१५) प्रश्नः अवधिज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तरः मर्यादा में रहे हुए रूपी द्रव्यों का इन्द्रियों
की अपेक्षा विना जो ज्ञान होता है उसको
अवधिज्ञान कहते हैं ? (१६) प्रश्नः मनःपर्यव ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तरः ढाई द्वीप में रहे हुए पर्याप्ता संज्ञी पंचेन्द्रिय
- जीवों के मनोगत भाव का ज्ञान होना
'उसको मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं. (१७) प्रश्नः केवलज्ञान किसे कहते हैं ?
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( ११ )
उत्तर: लोकालोक में रहे हुए रूपी अरूपी द्रव्य तथा सर्व जीवों के अतीत, अनागत तथा वर्तमान काल के सर्व भाव का ज्ञान उस को केवलज्ञान कहते हैं.
(१८) प्रश्न: दर्शनावरणीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर; दर्शन को यानि देखने का गुण को रोकने वाला कर्म को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं. (१६) प्रश्न: दर्शन कितने हैं ?
उत्तरः चार, चक्षुदर्शन, चतुदर्शन, अवधिदर्शन, व केवलदर्शन.
(२०) प्रश्न: इन चारों दर्शन की व्याख्या करो ? उत्तर: चक्षु से देखना सो चक्षुदर्शन, चक्षु के
अलावा दूसरी इन्द्रिय से देखना सो अच क्षुदर्शन, मर्यादा में रहे हुए रूपी द्रव्यों को इंद्रियों की अपेक्षा विना देखना सो अवधिदर्शन तथा सर्व जीवों को समय समय प्रति देखना सो केवलदर्शन. (२१) ः वेदनीय कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर: दो; शाता वेदनीय व अशाता वेदनीय. (२२) प्रश्न: शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय किसे कहते हैं ? -
उत्तरः सुख का अनुभव करावे सो शाता वेदनीय और दुःख का अनुभव करावे सो अशाता वेदनीय..
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(१२) (२३) प्रश्नः सिद्ध भगवंत को शाता वेदनीय है कि
अशाता वेदनीय ? उत्तरः उनको वेदनीय कर्म नहीं है परन्तु अात्मा
का स्वाभाविक अनंत सुख में वे विराज
मान हैं.
(२४) प्रश्नः मोहनीय कर्म के मुख्य भेद कितने हैं ?
उत्तरः दो दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय. (२५) प्रश्नः दर्शन मोहनीय किसे कहते हैं ? ___ उत्तरः दर्शन, सम्यक्त्व दर्शन अर्थात् समकित
होने में अटकायत करने वाला कर्म. (२६) प्रश्नः समंकित मायने क्या ?
उत्तरः सच्ची मान्यता.* (२७) प्रश्नः चारित्र मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ? उत्तरः चारित्र में बाधा डालने वाला कर्म सो
चारित्र मोहनीय कर्म. (२८) प्रश्नः चारित्र किसे कहते हैं ? उत्तरः आत्मा को कर्म से मुक्त कराने वाला साधन.
तप, नियम, संयम शील आदि को चारित्र
कहते हैं. (२६) प्रश्नः आयु कर्य के मुख्य कितने भेद हैं ?
उत्तरः चार.-नारकी का. आयुष्य, तिर्थच का आ
* तत्व को भली भांति समझकर उसके उपर श्रद्धा रखना, अर्थात् कुदेव, कुगुरु व कुधर्म को छोड़कर सुदेव, ५ सुगुरु व सुधर्म को आराधना उसका नाम समकित.
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(१३) युष्य, मनुष्य का आयुष्य और देवता का
आयुष्य. (३०) प्रश्नः नाम कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तरः दो शुभ नाम व अशुभ नाम. (३१) प्रश्नः नाम कर्म किसे कहते हैं ? उत्तरः जिस के उदय से जीव अरूपी होने पर
भी नाना विध गति में अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं उस कर्म को नाम कर्म
कहते हैं. (३२) प्रश्नः शुभ नाम कर्म के उदय से क्या फल
मिले ? उत्तरः उसके उदय से जीव, गति, जाति शरीर
अंगोपांग, रूप, लावण्य तथा यशोकीर्ति
आदि अच्छे पाते हैं. (३३) प्रश्नः अशुभ नाम कर्म के उदय से क्या होवे ? उत्तरः उसके उदय से जीव, गति, जाति, शरीर
अंगोपांग, रूप, लावण्य तथा यशोकीर्ति.
आदि अच्छे न पावे. (३४) प्रश्नः गोत्र कर्म के मुख्य कितने भेद ? .
उत्तरः दो. उच्च गोत्र व नीच गोत्रः (३५) मश्नः गोत्र मायने क्या ? . . उत्तरः कुळ अथवा वंश.. ... ... ... (३६) प्रश्नः उच्च गोत्र किसे कहते हैं ?
.
. .
.
अथवा वंश.
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- ( ८०.)
उत्तरः जाति, कुल, बल, रूप, तथा ऐश्वर्य यादि उच्च प्रकार के प्रशंसनीय जहां होवे उसको उच्च गोत्र कहते हैं.
(३७) प्रश्नः नीच गोत्र किसे कहते हैं ?
उत्तरः जाति, कुल, बल, रूप तथा ऐश्वर्य श्रादि जहां हलके प्रकार के होवे, प्रशंसा करने योग्य न होवे उसको नीच गोत्र कहते हैं । (३८) प्रश्न: अंतराय कर्म के कितने भेद है ?
उत्तरः पांच, दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय उपभोगांतराय और वीर्यंतराय । ( ३६ ) प्रश्न: दानांतराय कर्म किसे कहते हैं ! उत्तर: जिसके उदय से जीत्र योग्य सामग्री तथा
पात्र का संयोग होते हुए भी दान नहीं दे सकते हैं उसको दानातराय कर्म कहते हैं.
(४०) प्रश्न: लाभांतराय कर्म किसे कहते हैं.
उत्तरः जिसके उदय से जीव को अनुकूल संयोग होने पर भी लाभ की प्राप्ति न होवे उसको 'लाभांतराय कर्म कहते हैं.
( ४१ ) प्रश्न: भोगांतरीय कर्म किसे कहते हैं? उत्तरः + भोगकी सामग्री होते हुए भी जीव जिसके * जाति पांच हैं एकेंद्रिय, वेईद्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रिय. व पंचेंद्रिय,
+ वस्त्र, आभूषण स्त्री; घर आदिको भोगने का नाम भोग है.
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(८१) उदय से भोग नहीं भोग सकता है उसे
भोगांतराय कर्म कहते हैं. (४२) प्रश्नः * उपभोगांतराय कर्म किसे कहते हैं? उत्तरः उपभोगकी सामग्री होते हुए भी जीव जि
सके उदय से उपभोग नहीं भोग सकता है
उसे उपभोगांतराय कर्म कहते हैं. (४३) प्रश्नः वीर्यातराय कर्म किसे कहते हैं? उत्तरः जिसके उदय से शक्ति होने पर भी (बल परा
क्रम होते हुए भी ) अशक्तकी तरह जीव कुछ नहीं कर सकता है उसको वीर्यातराय
कर्म कहते हैं. (४४) प्रश्नः कर्मकी व्याख्या संक्षिप्त से समझावो. उत्तरः हेतुओं के द्वारा जो जीवों से किये जावें
उन्हे कर्म कहते हैं. (४५) प्रश्नः संसारी जीवों को कर्म वन्धन हैं और
सिद्धके जीवों को नहीं इसका क्या कार
उत्तरः कर्म बन्धन के हेतु अर्थात् कारण होवे तो
कर्मवन्धन होता है ये हेतु संसारी जीवों को है और सिद्धं भगवानं को नहीं अतः सिद्ध भगवत को कर्म बन्धन भी नहीं है, • जहां कारण का अभाव होता है वहां कार्यका
भी अभाव होता है. * आहार, तंबोल, फूल फल वगेरे जो एक वार भोगने में आवे उसको उपभोग कहते हैं.
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(१६) आश्रव तत्त्व व संवर तत्त्व । (१) प्रश्नः कर्म बंधन के हेतु अर्थात् कारणों कितने हैं ? उत्तरः पांच+मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय
व जोग (२) प्रश्नः ये पांच हेतु व कारणों को शास्त्रमें क्या
. कहते हैं ?
उत्तरः आश्रव. (३) प्रश्नः आश्रव कितने हैं?
. उत्तरः पांच मिथ्यात्व अविरति वगेरे (४) प्रश्नः मिथ्यात्व मायने क्या ?
उत्तरः * असत्य मान्यता. (५) प्रश्न: अविरति मायने क्या ?
. उत्तरः व्रत पञ्चखाण से रहित पना (६) प्रश्नः प्रमाद मायने क्या ? उत्तरः धर्म कार्य में आलस्य करना उसका नाम
प्रमाद . (७) प्रश्नः कषाय मायने क्या ? उत्तरः जिससे संसार की प्राप्ति होती है या
जिससे भव भ्रमण बढता है उसको कषाय कहते हैं. क्रोध,मान,माया,लाभ, य कपाय हैं.
, +प्रमाद छोड कर चार हेतु भी शास्त्र में कहा है. • *. वीतराग प्रणित तत्वों को जाणे या सरदहे नहिं
उसको मिथ्यात्व कहते है.
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( १७ ) (८) प्रश्नः जोग मायने क्या ? उत्तरः मन वचन व काया का व्यापार सो जोग
या योग. (8) प्रश्नः मन वचन काया को अच्छे रस्ते प्रवर्ताना
उसको क्या कहते हैं ? उत्तरः शुभ जोग . (१०) प्रश्नः मन वचन काया का बुरे रस्ते प्रवर्ताना
उसको क्या कहते हैं ? उत्तरः अशुभ जोग (११) प्रश्नः आश्रव में शुभ व अशुभ ऐसे दो प्रकार हैं
था नहीं? उत्तरः हा शुभ जोग से शुभ कर्म बंधन होता
है उसको पुण्य याने . शुभाश्रव कहते हैं व अशुभ जोग से अशुभ कर्म बंधन होता
है उसको पाप याने अशुभाश्रव कहते हैं. (१२) प्रश्नः पांच आश्रव आत्मा को हितकारी है या
अहितकारी ? उत्तरः अहितकारी व त्याग करने लायक हैं (१३) प्रश्नः आश्रव आत्मा को अहितकारी किस वास्ते? उत्तरः आश्रव से आत्मा को कर्म बंधन होता है
क्योंकि आत्मा तलाव जैसा है. जिसमें गरनाला की सुरत में आश्रव रूप जल समय २ पर पाया करता है वह कर्म के उदय से आत्मा को चार गति में भटकना पडता है. .
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(८४) (१४) प्रश्नः कर्म आते हैं उनकी रुकावट किस तरह
से हो.सक्की हैं ? उत्तरः श्राश्रव रूप द्वार बंध करने से. (१५) प्रश्नः आश्रव रूप द्वार कैसे बंध होसक्का हैं ? उत्तरः सर्वज्ञ प्रणित शास्त्र द्वारा तत्व ज्ञान ग्रहण
कर उसपर पूर्ण श्रद्धा रखने से समकित की प्राप्ति होती है समकित की प्राप्ति होने के पश्चात् व्रत पच्चखाण करने से व विषय क
पाय छोडने से कर्म की रुकावट हो सक्ती है. (१६) प्रश्नः जिससे कर्म की रुकावट होती है उसको
क्या कहते हैं ? उत्तरः संवर (आश्रव से संवर बिलकुल ही प्रति
पक्षी है) (१७) प्रश्नः संवर के कितने प्रकार हैं ? उत्तरः पांच.-सम्यक्त्व, विरतिपन, अप्रमाद अ
कषाय, व शुभ जोग. * (१८) प्रश्नः सम्यक्त्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है और
उससे क्या लाभ ? उत्तरः तीर्थकर मणित शास्त्रों का विवेक पूर्वक
अभ्यास कर तत्वज्ञान ग्रहण करने से व
-
*शुभ जोग को निश्चय नय से आश्रय कहते हैं मगर पुण्य बंधन का हेतु व मोक्ष की प्राप्ति में साधन भूत होने से व्यवहार नय से उसको संबर में गिने जाते है निश्चय नय से अजोगीपना सन्न गिना जाता है.
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(८५, उसंपर पूर्ण श्रद्धा रखने से आत्मा को ।
सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है. (१९) प्रश्नः विरतिपन मायने क्या व उससे क्या लाभ ? उत्तरः प्राणातिपात, मृपावाद, अदतादान, मैथुन,
परिगृह रात्रि भोजन आदि त्याग करने का पच्चखाण करना उसका नाम विरतिपन व उससे अविरतिरूप आश्रव द्वार बंध
होजाता है, (२०) प्रश्नः विरति के कितने प्रकार हैं ? • उत्तरः दो प्रकार. सर्व विरति व देश विरति. (२१) प्रश्नः सर्व विरति किसको कहते है ? उत्तरः उपर बतलाये हुवे प्राणातिपात आदि
व्रतों को सर्वथा त्याग करने वाले मुनिओं
को सर्व विरति कहते हैं. (२२) प्रश्नः देश विरति किसको कहते हैं ? उत्तरः जो अपनी शक्ति अनुसार व्रत पच्चक्खाण
करते हैं व उपयोग सहित पालते हैं एसे
श्रावक श्राविकाओं को देश विरति कहते हैं. (२३) प्रश्न: अप्रमाद मापने क्या व उससे क्या लाभ ?
उत्तरः पांच प्रमाद को छोडना सो अप्रमाद व ... उससे प्रमाद रूप आश्रव द्वार वंध होता है. (२४) प्रश्नः पांच प्रमाद कौन २ से हैं ?
'' उत्तरः मद, विषय, कषाय निद्रा.व बिकथा. (२५) प्रश्नः अकषाय मायने क्या वं उससे क्या लाभ ? .
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(२०) :. उत्तरः क्रोधादिकषाय को त्याग करना सो अक.
पाय व उससे कषाय रुप आश्रय द्वार बंप
होता है. . . . (२६) प्रश्नः शुभ जोग से क्या लाभ ? . उत्तरः उससे अशुभ जोग. रुप आश्रव द्वार बंध
होता है. (२७) प्रश्नः संवर तत्त्व जीबको हितकारी है वा अहित
कारी ? उत्तरः हित कारी व आदरणीय है. - नारकी व परमाधामी। : (१) प्रश्नः बहुत पाप करने वाले जीव कहां जाते है ?
उत्तरः नरक में जाते हैं. (२) प्रश्नः नरक कितनी हैं ?
उत्तरः सात. . (३) प्रश्नः उन के नाम बतलायो ?
उत्तरः १ घमा २.वंशा ३ शिला" अंजणा ५ ...: रिहा ६ मया व ७ माघवइ., . (४) प्रश्नः ये सात नर्क के गोत्र-गुण निष्पन्न नाम . . कहो ? उत्तरः १ रत्न प्रभा २ शर्केरा प्रभा ३ वालु प्रभा
- ४ पंक प्रभा ५ घूम्र प्रभा ६ तम प्रभा व - . ७ तमस्तमः प्रभा. ..' • (५) प्रश्नः ये सात. नर्क कहां है ? . .
उत्तरः अपनी नीचे प्रथम पहली नर्क है वहां ... . .. से असंख्य.जोजन पर दूसरी नर्क है।
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(२१) इस तरह से अकेक से असंख्य जोजन नीचे अनुकम से सात नर्क है सव से नीचे खीर में सातमी नर्क है व उसके
नीचे अनंत अलोक है. (६) प्रश्नः पहली नर्क की पृथ्वी अपने से कितनी
उत्तरः पहेली नर्क का उपर का पट एक हजार
जोजन का है जिसके उपर का पृष्ट पर ही
अपन रहते हैं. (७) प्रश्नः नर्क गति प्राप्त करने वाले जीवों को क्या
. कहते है ?
उत्तरः नारकी. (८) प्रश्नः नारकी को मावाप होते हैं या नहीं ?
उत्तरः नहीं. (8) प्रश्नः नारकी किसमें जन्म पाते हैं ?
उत्तरः नरकावासा में रही हुई कुंभीओं में. (१०) प्रश्नः सात नर्क के मिलकर कुल कितने नरका
वासा है ? उत्तरः चाराशी लाख. (११) प्रश्नः प्रत्येक नरकावासा में कितनी कुंभीओं हैं ?
उत्तरः असंख्याता. (१२) प्रश्नः नारकी जीवों कितने हैं ? .
उत्तरः प्रत्येक नरक में असंख्याता नारकी हैं. (१३) प्रश्नः नारकी.जीवों को नर्क में क्या दुःख है ?
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(==)
उत्तरः केवल दुःख ही दुःख है सुख कुछ भी नहि है उनको क्षेत्र वेदना, अन्योन्य कृत वेदना व परमाधामी कृत वेदना इतनी तो होती है कि तुमने से हृदय कंपने लग जाता है. (१४) प्रश्न: क्षेत्र वेदना कितने प्रकार की है ?
उत्तरः दश प्रकार की १ क्षुधा २ तृषा ३ शीत
४ उष्ण ५. दाह ६ ज्वर ७ भय द शोक ६ खरज व १० परवशपना ये दश प्रकार की अनन्त क्षेत्र वेदना है,
(१५) प्रश्न: अन्योऽन्य कृत वेदना मायने क्या ?
:
उत्तरः नारकी के जीव आपस आपस में लडते
हैं व दांत और नाखून से एक दूसरे को बहोत ही दुःख देते हैं उसका नाम अन्योन्यकृत वेदना है.
(१६) मनः परमाधामीकृत वेदना मायने क्या ? उत्तरः परमाधामी जाति के क्रूर देवताओं हैं वे 'देवताओं नारकी को छेदते हैं, भेदते हैं व बहोत ही दुख देते हैं .
(१७) प्रश्न: उन देवताको परमाधामी किस वास्ते कहते हैं? उत्तरः परम + अधर्मी मायने बहोत पापी नीच जातके देवता होने से उनको परमाधामी कहते हैं.
(१८) पश्चः परमाधामी देवताओं नारकी को दुःख क्यों देते हैं ?
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(८ ) उत्तरः जिस तरह से कई निर्दय ब नीच मनुष्य
अन्य मनुष्यों को या जानवर को दुःख देकर आनंद मानते हैं व गम्मत के लिए ही ऐसा अधर्म करते हैं उसी तरह से परमाधामी देवों नारकी को काट कर टुकडे करते हैं व उनको अनेक प्रकार के
दुःख देकर मन में अानंद पाते हैं. (१६) प्रश्नः इस तरह करने से परमात्रामी देवों को
पाप लगता है या नहीं? उत्तरः हां पाप लगता है व उसका फल भी उनको
भोगना पडेगा. (२०) प्रश्नः परमाधामी देवों कितनी जातके हैं ? उत्तरः पंदर जात के १ अरब २ अम्बरीस ३ श्या.
म ४ सवल ५ रुद्र ६ वैरुद्र ७ काल ८ महाकाल 8 असिपत्र १० धनुष्य ११ कुंभ ११ वालु १३ वैतरणी १४ खरखर व १५
महाघोष. (२१) प्रश्नः हरेक जातके देवताओं कितने हैं ?
उत्तरः असंख्याता. (२२) प्रश्न: परमाधामी देवता नारकी को काटकर
टुकड़े कर देते हैं ताहम भी नारकी मर जाते
क्यों नहीं? उत्तरः नारकी के शरीर वैक्रिय है व वेक्रिय शरीर
का. ऐसा स्वभाव होता है कि टुकड़ा होने पर भी पारा की तरह टुकड़े फिर मिल
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(२४) • जाते है. श्रायुष्य खतम होने के पहिले
नारकी मर जाते नहीं हैं. (२३) प्रश्नः नारकी जीवोंका आयु कितना होता हैं ? उत्तरः जधन्य दशहजार वर्ष का व उत्कृष्ट
असंख्याता वका. (२४) प्रश्नः नारकी का शरीर कैसा होता है ?
उत्तरः अत्यन्त कुरूप. (२५) प्रश्नः नारकी की अवघेणा कितनी होती हैं ? उत्तरः प्रत्येक नरक में अलग २ है सबसे कम
अवघेणा पहेली नर्क में व सबसे ज्यादा
अवघेणा सातमी नर्क में हैं. (२६) प्रश्नः सातमी नर्क में ज्यादा से ज्यादा अवघेणा
कितनी होती है ? . उत्तरः पांचसो धनुष्य की. (२७) प्रश्नः असली शरीर से कमती ज्यादा शरीर
नारकी कर सका है या नहीं ? उत्तरः कर सका है ज्यादा से ज्यादा असली
'शरीर से दुगणां व घणा नारकी कर
'सक्ता है (२८) प्रश्नः नर्क में प्रकाश होता है या नहीं ?
उत्तरः नहीं वहां हमेशा अन्धकार ही रहता है. (२६) प्रश्नः अन्धकार से वे एक दूसरे को कैसे देख
सक्त होंगे? .
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( २५ ) उत्तरः उनको अवधि ज्ञान और * विभंग 'ज्ञान
होता है. . (३०) प्रश्नः अवधिज्ञान मेनारकी कहांतक देख सक्ने हैं? उत्तरः कम से कम आधा कोस बज़्यादे से ज्यादा
.चार कोस तक. (११) प्रश्नः अवधिज्ञान सब से ज्यादा कहां होता है
व सबसे कम कहां होता है ? उत्तरः सबसे ज्यादा पहली नर्कम व सबसे कम
सातमी नर्क में (३२) प्रश्नः वेदना सबसे ज्यादे कहां सबसे कम कहां? . उत्तरः सबसे ज्यादा सातमी नर्क में व सबसे कम
पहली नर्क में, . (३३) प्रश्नः नारकी को इन्द्रिय कितनी होती हैं ?
उत्तर पांच. .. . (३४) प्रश्नः अपनने कभी नारकी की गति पाइ होगी?
उत्तरः हां... (३५) प्रश्नः अपन कभी परमाधामी हुवे होंगे ?
उत्तरः हां.
. प्रकरण १८-कालचक्र..... .. .. (१) प्रश्नः मनुष्य क्षेत्र में याने अढीद्वीप में चद्रमा सूर्य
__ आदि चल हैं इस से क्या लाभ है ? . . उत्तरः दिवस.रात्रि आदि होते हैं व उससे काल
' ' का परिमाण होसकता है. .. .: + मिथ्यात्वी के अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं.
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(२) प्रश्न: काल का परिमारण मायने क्या? . .
उत्तरः वक्त की गिनती. . . (३) प्रश्नः आज सुबह से कल सुबह तक का वक्त को
. . क्या कहते है ? .. .. उत्तरः एक दिन या एक अहोरात्रि. (४) प्रश्नः एक अहोरात्रि की घडी कितनी ?
उत्तरः साठ. (५) प्रश्नः एक अहोरात्रि के मुहूर्त कितने ?
उत्तरः त्रीश. . . (६) प्रश्नः एक मुहुर्त की घडी कितनी? .
उत्तर: दो. (७) प्रश्नः दो घडी की या एक मुहूर्त की आवलिका
कितनी ? . उत्तरः एक क्रोड सडसठ लाख सत्योतर हजार
दो सों सोला १६७७७२१६. (८) प्रश्नः एक प्रावलिका का असंख्यातवां भाग को
- क्या कहते हैं ?
उत्तर: समय. (8) प्रश्नः समय मायने क्या ? उत्तरः अति सूक्ष्म काळ कि जिस का दो भाग
केवळी भगवान की कल्पना में भी आस.. : का नहीं है उस को समय कहते हैं. . (१०) प्रश्नः आँख बंधकर-खोल दी जाय इतने चक्क में
कितने समय चले जाते हैं ? . . उत्तरः असंख्याता..
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(२७) (११) प्रश्नः परू वाडिया, मास, ऋतु, अयन और वर्ष
किस को कहते हैं ? ' उत्तरः पंदर दिन का एक पखवाड़ीया होता है,
दो पखवाड़ीया का एकमास होता है, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक
अयन व दो अयन का एक वर्ष होता है । (१२) प्रश्नः एक साल की ऋतु कितनी होती है। उचरः छः १ हेमंत २ शिशिर ३ वसंव४ ग्रीष्म
५ वर्षाव ६ शरद । (१३) प्रश्नः पूर्व किसको कहते हैं ।
उचरः चोराशी लाख वरस का एक पूर्वांग व · चौराशी लाख पूर्वीग का एक पूर्व होता है
_(एक पूर्व के सतर लाख छपन हजार
वर्ष होते हैं) (१४) प्रश्नः पल्योपम किसको कहते हैं ।
उत्तर: असंख्याता पूर्व का एक पल्योपम होता है। (१५) प्रश्नः सागरोपम किसको कहते हैं । उत्तरः दश कोड़ा कोड़ी पल्योपम का एक
सागरोपम होता है। (१६) प्रश्नः कालचक्र मायने क्या ?! -
उत्तरः दश कोडाकोड़ी सागरोपम का एक अव
* अयन मायने सूर्य का उत्तर या दक्षिण जाना। : पल्योपम की व सागरोपम की विशेष समज यहां विस्तारभय से दीगई नहीं है.
क्रोड़ को क्रोड़ गुना करने से क्रोडाकोड़ी होता है.
-
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(२८) ...। .सर्पिणीकाळ व दश क्रोडाकोडी.सागरोपम
का एक उत्सर्पिणीकाळ ये दोनों मिलकर , ... वीश क्रोडा क्रोडी सागरोपम का एक : . . . कालचक्र होता है। (१७) प्रश्नः अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी मायने क्या ? उत्तरः अवसर्पिणी मायने आरा की गिरती हुई
दशा. व उत्सर्पिणी मायने पारा की वढती .. ' " " दशा अवसर्पिणी काळ में शनै: २ शुभ ,
भावों. की हानि होती. जाती है व
उत्सर्पिणीकाल में 'शुभ भावों की वृद्धि । । । होती चली जाती है। (१८) प्रश्नः इस बार आरा के बढते जाते व कम होते
'' हुये भाव कोनसा क्षेत्र में हैं ?
उत्तरः. पांच भरत व पांच इरवृत मिलकर दश ... . . क्षेत्रों में ये वढता घटता भाव वर्त रहा हैं । (१६) प्रश्नः एक अवसर्पिणी व एक उत्सर्पिणी के :. . : कितने आरे होते है ?। .
उत्तरः छ, छ । (२०) प्रश्नः ये छ आरे- एक सरीखे. होते हैं या छोटे -. : ... बंडे ? | .. . . .
: उत्तरः छोटे बड़े होते हैं। (२१) प्रश्नः एक कालचक्र के कितने आरे होते हैं ।
. उत्तरः बारह । (२२) प्रश्नः ये बारह आरे के नाम कहो। .
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(२६)
- उत्तरः प्रथम अवसर्पिणी के छ ओरे के नाम १
सुखमा सुखमा २ सुखमा ३ सुखमा दुखमा ४ दुःखमा सुखमा ५ दुःखमा ६ दुःखमा दुःखमा उत्सर्पिणी के छ पारे के नाम १ दुःखमा दुःखमा २ दुःखमा ३ दुःखमा सुखमा ४ सुखमा दुःखमा ५ दुःखमा ६
दुःखमा दुःखमा । . (२३) प्रश्नः इन बारह आरा के काळ का परिमाण बत
लावो. . उत्तरः अवसर्पिणी काळ के छ भारे. जिनमें प्रथम
आरा चार कोडा कोडी सागरोपम का, दूसरा तीन कोडा क्रोडी सागरोपम का, तीसरा दो क्रोडा कोडी सागरोपम का, चोथा एक क्रोडा क्रोडी सागरोपम में वेतालीस हजार वर्ष कम, पांचमा आरा एकशि हजार वर्ष का व छट्टा आरा भी एक वीश हजार वर्षे का कुल दश कोडा क्रोडी सागरोपम के छारे होते हैं. उत्सर्पिणी काळ के भी छ आरे जिसमें प्रथम पारा एकवीश हजार वर्षका,दूसरा भी एकवीश हजार वर्ष,का, तीसरा पारा एक क्रोडा कोडी सागरोपम में बेतालीश हजार वर्ष कम,..चोथा, आरा दो क्रोडा क्रोडी सागरोपम का, पांचवा तीन क्रोडा क्रोडी सागरोपम का व..छहा आरा चार
.
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कोडा. कोडी सागरोपम का होता है इस तरह बारह आरा के वीस क्रोडा कोडी सा
गरोपम से एक कालचक्र होता है. (२४) प्रश्नः इस प्रत्येक आरा के मनुष्य के सुख दुःख
कैसे होते हैं ? उत्तरः पांच भरत व पांच इरवृत के मनुष्य को अवस
पिणी का प्रथम आरा की आदि में व उत्सर्पिणी का छहा पारा की अंखीर में देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र के जुगलिया को जैसा उत्कृष्ट सुख होता है वैसा उनको सुख होता है तीन पल्योपम का आयु व तीन कोस का देहमान होता है. .
अवसर्पिणी का प्रथम आरा की अखीर में व दूसरा आरा की शरूआत में
और उत्सर्पिणी का पांचवापारा की अखीर में और छठ्ठा आरा की शरूपात में हरि. वास व रम्यक वास क्षेत्र के जुगलिया जैसा सुख आयु व देहमान होता है.
अवंसर्पिणी का दूसरा आरा की अखीर में व तीसरा आरा की शरुआत में
और उत्सर्पिणी का चोथा धारा की खीर में व पांचवा पारा की शरुपात में हेमवय हीरणवय क्षेत्र के युगलिया जैसा सुख होता है. . . .
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(३१)
अवसर्पिणी का तीसरा आरा की अखीर में व चोथा आरा की शरुआत में और उत्सर्पिणी का तीसरा आरा की खीर में व चोथा आरा की शरुआतमें महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य जैसा सुख होता है.
अवसर्पिणी का चोथा आरा की अखीर में व पांचवां पारा की शरुआत में
और उत्सर्पिणी का दूसरा आरा की अखीर में व तीसरा पारा की शरुआत में दुःख बहुत व सुखं कम होता है.
अवसर्पिणी का पांचवां पारा की अखीर में व बहाआरा की शरुआत में और उत्सर्पिणी का प्रथम पारा की अखीर में व दूसरापारा की शरुपात में सिर्फ दुःखही है.
अवसर्पिणी का. हा आरा की अखीर में व उत्सर्पिणी का प्रथम प्राश की
शरुपात में सिर्फ दुःखही दुःख है। (२५) प्रश्नः यहां अब कोनसा काल व कोनसा धारा
वर्त रहा है। उत्तरः अवसर्पिणी काल व पांचवां पारा। (२६) प्रश्नः एक कालचक्र में भरत इरवृत में जुगल के
कितने भारे... . . उत्तरः अवसर्पिणी के पहले तीन व उत्सर्पिणी
* अवसर्पिणी का छठा आरा खतम होते ही उत्स. पिणी का प्रथम भारा शरू होता है।. . .
-
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( ३२ )
के खीर के तीन मिलकर छ श्रारे जुगल के समजना ।
(२७) प्रश्न: पुद्गल परावर्तन किसको कहते हैं ? उत्तरः अनंत कालचक्र का एक पुद्गल परावर्तन होता है ।
(२८) प्रश्न: अपने जीवने संसार में भटकते भटकते कितने पुद्गल परावर्तन किये होंगे ?
उत्तरः अनंता ।
प्रकरण १६ - त्रेसठ शलाका पुरुषो
( १ ) प्रश्न: इस अवसर्पिणी काल में अपना भरतक्षेत्र में कितने तीर्थकर हुवे हैं - ?
उत्तरः चोबीश |
( २ ) प्रश्नः
शेष रहे हुवे चार भरत व पांच इरवृत भें कितने तीर्थकर हुवे हैं ?
उत्तरः प्रत्येक भरत व इरतक्षेत्र में चौवीश तीकर इस अवसर्पिणी में हुवे ।
4.
(३) प्रश्र: एक कालचक्र में कितनी चोवीशी प्रत्येक क्षेत्र में होती है ?
उत्तरः दो (एक अवसर्पिणी में व एक उत्सर्पिणी में) (४) प्रश्न: एक पुद्गल परावर्तन में कितनी चोत्रीशी होती है ? उत्तरः अनंती !
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(३३ ) (५) प्रश्नः आगे कितनी हुई होगी?
उत्तरः अनंती। (६) प्रश्नः आगामी कालमें कितनी चोवीशी होगी?
उत्तरः अनंती, जिसका अंत नहीं। (७) प्रश्नः तीर्थंकर किस किस ारे में होते हैं ?
उत्तरः तीसरा व चौथा पारा में। (८) प्रश्नः इस अवसर्पिणी में हुवे हुए अपने भरतक्षेत्र
के चौवीश तीर्थकर के नाम बतलावो ? उत्तरः १ ऋषभदेव स्वामी २ अजितनाथ स्वामी · ·३ संभवनाथ स्वामी ४ अभिनंदन स्वामी
५ सुमतिनाथ स्वामी ६ पद्मासु स्वामी ७ सुपार्श्वनाथ स्वामी ८ चंद्रमभ स्वामी ६ सुविधिनाथ स्वामी १० शीतलनाथ स्वामी ११ श्रेयांसनाथ स्वामी १२ वासुपूज्य स्वामी १३ विमलनाथ स्वामी १४ अनंतनाथ स्वामी १५ धर्मनाथं स्वामी १६ शांतिनाथ स्वामी १७ कुंथुनाथ स्वामी १८ अरनाथ स्वामी १६ मल्लिनाथ स्वामी २० मुनिसुव्रत स्वामी २१ नमिनाथ स्वामी २२ नेमनाथ स्वामी.२३ पार्श्वनाथ स्वामी २४
महावीर स्वामी। , . (8) प्रश्नः इन चौवीश तीर्थकर में से कितने तीसरा
धारा में व कितने चौथा पारा में हुवे? उत्तरः एक पहले तीर्थकर तीसरा धारा में व - शेष सब तीर्थकर चोथा धारा में हुवे ।
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( ३४ ) (१०) प्रश्नः ऋषभदेव भगवान का दूसरा नाम क्या ?
. उत्तरः आदिजिनेश्वर आदिनाथ याने आदीश्वर (११) प्रश्नः यह नाम कैसे दिया ? उत्तरः उन्होंने जुगल धर्म को बंद कराकर धर्म
की आदि की जिससे आदिनाथ नाम हुवा। (१२) प्रश्नः ऋषभदेव भगवान ने और क्या किया ? उत्तरः पुरुषों की बहुतेर कला व त्रिओं की
चौसठ कला लोगों को सिखाई। . (१३) प्रश्नः पहले कळा सिखाई या पहले धर्म स्थापित किया ? .
, उत्ताः पहले कला सिखलाई पीछे राजपाट छोड
कर दिक्षा ग्रहण की दिक्षा ग्रहण करने "'. के पीछे १००० वर्ष पर केवल ज्ञान हुवा
तत्पश्चात् धर्म की स्थापना की याने भरतक्षेत्र में चार तीर्थ विच्छेद गये थे सो
फिर स्थापित किये। (१४) प्रश्नः ऋषभदेव भगवान के कितने पुत्र थे ?
उत्तरः सो। - (१५) प्रश्नः इन में सब से वडा पुत्र का नाम क्या ?
उत्तरः भरत। . (१६) प्रश्नः भरत रोजा ने कौनसी बडी पदवी प्राप्त
...
.की थी?
उत्तरः चक्रवर्ति राजा की। (१७) प्रश्नः चक्रवर्ति राजा किसको कहते हैं ?
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(३५) - उत्तरः जों चक्र से भरतक्षेत्र के छ खंड जीत
लेते हैं और जो चौदरत्न व नव निधान की
लक्ष्मी प्राप्त करते हैं वह चक्रवर्ति कहलाते हैं। (१८) प्रश्नः भत्येक चोवीशी में ऐसे चक्रवर्ति कितने
होते हैं ? उत्तरः वार। (१६) प्रश्न: अपना भरतक्षेत्र में हुवे हुए बार. चक्रवर्ति
के नाम कहो ? उत्तरः १ भरत २ सगर ३ मघवा ४ सनत्कुमार
५ शांतिनाथ ६ कुंथुनाथ ७ अरनाथ - सुभुमह महापदा १०. हरिषेण ११ जय
१२.ब्रह्मदत्त-१३। . . . (२०) प्रश्नः शांतिनाथ; कुंथुनाथ व अरनाथ ये नाम
तीर्थकरो व चक्रवर्ती दोनों में पाये जिस
का क्या कारण ? उत्तरः चे सब पहेले चक्रवर्ति राजा थे पीछे से
संयम लेकर तीर्थकर पदवी उन्होंने प्राप्त
की थी। . . . (२१) प्रश्नः चक्रवर्ति मर के किस गति को प्राप्त कर
सकता है ? उत्तरः जो चक्रवर्ति की ऋद्धि छोड के संयम ... . ग्रहण करता है वह अवश्य मोज और देव
लोक में जाता है व जो चक्रवर्तिपन में ही
मरजाते है. वो निश्चय नर्क में ही जाता है। (२२) प्रश्नः चक्रवर्ति से आधा राज्य व आधी ऋद्धि
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...के मालिक जो राजाओं होगये उनको क्या . .. कहते हैं ?
उत्तरः वासुदेव याने अर्धचक्री ।। (२३) प्रश्नः. वासुदेव.कितने खंड जीतते हैं ? . उत्तरः तीन|
. . . (२४) प्रश्नः एक चोवीशी में ऐसे कितने वासुदेव होते हैं? . उत्तरः. नव। . . , (२५) प्रश्नः भरतक्षेत्र में हुवे हुए नव वासुदेव के नाम कहो
उत्तरः १ त्रिपुष्ट वह महावीर स्वामी का जीव • २ द्विपुष्ट ३ स्वयंभू ४ पुरुषोत्तम ५ पुरुष . ... .सिंह ६ पुरुष पुंडरिक ७ दत्त ८ नारायण
६ कृष्ण । (२६) प्रश्नः वासुदेव मरके कहां जाते हैं ? . उत्तरः नर्क में जाते हैं। (२७) प्रश्नः वासुदेव का भाई को क्या कहते है ?
उत्तरः वलदेव । (२८) प्रश्नः वासुदेव के सब विरादरों को बलदेव
। कहते हैं ?
.
.
उत्तरः ना.. वडा भाई को ही जिसका चार हजार
देव सेवा करते हैं। . ... . (२६) प्रश्नः वासुदेव की सेवा कितने देव करते हैं !
उत्तर: आठ हजार 1, .. . . . (३०) प्रश्नः चक्रवर्ति की सेवा में कितने देवतारहते हैं?
उत्तरः सोल हजार। . (३१) प्रश्नः एक चोवीशी में वलदेव कितने होते हैं ? . . उत्तरंः नव।
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(३७) (३२) प्रश्न: इस चोचीशी में हुये हुए वलदेव केनाम कहो? उत्तरः १ अचल २ विजय ३ भद्र ४ सुप्रभ ५
सुदर्शन ६ आनंद ७ नंदन ८ राम 8
बलभद्रा । (३३) प्रश्नः बलदेव मर के कहां जाते हैं । उत्तरः वासुदेव की मृत्यु से वे वैराग्य पाकर
दिक्षा लेते हैं व मर के मोत वा देवलोक
में जाते हैं। (३४) प्रश्नः वासुदेव की तरह और कोई राजा तीन
खंड साधता है ? " उत्तरः हा प्रति वासुदेव । (३५) प्रश्नः प्रति वासुदेवा किसको कहते हैं ?
___उत्तरः वासुदेव का प्रतिपक्षी सो प्रति वासुदेव । (३६) प्रश्नः प्रति वासुदेव को कौन मारते हैं? उत्तरः वासुदेव व प्रनिवासुदेव युद्ध करते हैं
जिसमें वासुदेव प्रतिवासुदेव को मार कर
तीन खंड को जीत लेते हैं। (३७) प्रश्नः नव प्रतिवासुदेव के नाम कहो. उत्तरः अश्वग्रीव २ तारक ३ मेरक ४ मधु ५ निशुं.
भ६जालेंद्र ७ मल्हादरावण ६ जरासंध. (३८) प्रश्नः तीर्थकर, चक्रवर्ति, वासुदेवं, वलदेव, प्रति
वासुदेव ये सब कैसे पुरुष कहलाते हैं. उत्तरः शलाका (लाध्य) (३६) प्रश्नः शलाका पुरुष मायने क्या.
उत्तरः प्रख्यात पुरुषों..
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.. . (३८) .. (४०) प्रश्नः प्रत्येक चोवीशी में कितने शलाका पुरुष
होते हैं.
उत्तरः प्रेस
प्रकरण २०. सम्यक्त्व। .....
(१) प्रश्नः सम्यक्त्व मायने क्या? .. उत्तरः सम्यक्त्व मायने सत्य मान्यता याने तत्त्व
को अच्छी तरह समझ कर उस पर श्रद्धा रखना याने कुदेव, कुगुरु व कुधर्म कों .. छोड कर सुदेंव, सुगुरु व सुधर्म पर श्रद्धा :
रखना उसका नाम सम्यक्त्व या समकित. (२) प्रश्नः कुदेव किसको कहते हैं ? ..... उत्तरः जिन देवों क्रोधी होते हैं और हिंसक होते ...'
हैं याने जिनने हिंसाकारी त्रिशुल, खडग, .
चक्र, धनुष्य, गदा, आदि शस्त्रों हस्त में .. ... रक्खे हैं और जिन देवों स्त्रिओं के पास ,
में लपटाये हुये हैं :याने जिनमें विषय .
वांछना है और जो देव एकका भला व - दुसरेका बुरा करने को तैयार है. याने : .. राग द्वेष सहित है और जिनका चित्त स्थिर .
नहीं है व अन्य इष्ट को खुश करने के ... लिये हाथ में जप माला धारण कर ली है. .. . और जो देवः नाटक हास्यक्रीडा संगीन .
आदि से खुश रहते हैं उन देवों को कुदेव . कहते हैं।
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(३) प्रश्नः कुदेवों को देव करके मानते हैं उनको क्या
. कहना चाहिए?
उत्तरः मिथ्याद्रष्टि याने असत्य मान्यता वाले। (४) प्रश्नः सुदेव किसको कहते है ? . उत्तरः जो राग द्वेप रहित हैं, क्षमा व दया के
सागर हैं, पूर्ण ज्ञानी हैं, जिनके वचनों में पूर्वापर विरोध नहीं है याने पहेले कुछ कहा व पीछे और कुछ कहा ऐसा नहीं है, और जिनकी वानीमें प्राणी मात्र का एकांतहित है वोही सत्य परमेश्वर है, सुदेव हैं, देवों के भी देव हैं, तीन लोक के पूजनिक हैं, भवरूप.सागर से तारने वाले हैं व कर्मरूप भाव शत्रुओं के हणने वाले होने
से अरिहंत हैं। (५) प्रश्नः सुदेव को देव माने उनको क्या कहना
चाहिए ? .. उत्तरः उनको समकिती याने सत्य मान्यता वाले
कहना चाहिए। . . . . . . (६) प्रश्नः देव चाहे जैसा हो मगर श्रद्धा से. भजने . . वाले को क्या समकिती नहीं कहना ! उत्तरः ना. जो काच, हीरा की परीक्षा कर सकता
नहीं है.उसको जिस तरह से झोहरी नहीं
कह सकते हैं इस कदर सुदेव कुदेव को . .. न:समझने, वाले,को.समकिती नहीं कह
सकते।
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(४०) (७) प्रश्नः उपर बतलाये हुये कुदेव को भोले लोग
परमेश्वर समझ कर मानते हैं उनको क्या
कुछ नुकसान होता है ? उत्तरः कुदेव को सुदेव समझकर पूजते हैं उनको नुक
सान तो होता ही है जैसे कोइ मूर्ख मनुष्य भैर को अमृत समझ कर उसका श्राहार कर ले तो क्या उसका प्राण का विनाश नहीं होगा ? इस कदर कुदेव को सुदेव समझ कर पूजन करने वाला अपना आत्मिक गुण का नाश करता है क्योंकि जिसको वह भजता है वैसा होनां वह चाहता है अब जो देव क्रूर होवे, हिंसक होवे, कपटी होवे, कामी होवे, लोभी होवे, अन्यायी होवे तो उसको भजने वाले में भी ये गुन क्यों न आवेनिश्चय आते हैं जैसा देव वैसा पुजारी इस वास्ते शाश्वत सुख के अभिलाषी जीवों को ऐसे
कुदेवों को नहीं मानना चाहिए । (८) प्रश्नः कुगुरु किसको कहते हैं ? ___ उत्तरः जो स्त्री पुत्र आदि परिग्रह में फंसे पड़े हैं,
जो गृहवास रूप जेल में पड़े हैं, जो पैसे के गुलाम हैं, जिन को भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं है जो विषय लुब्ध हैं, जो सर्व वस्तु के अभिलाषी हैं, लालचु हैं, मिथ्या उपदेश
करने वाले हैं, वे सब कुगुरु कहलाते हैं. (६) प्रश्नः गुरू की चाहे जैसी वर्तन हो मगर अच्छा
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(४१)
पढा हुवा होवे वा अच्छा उपदेश देने . वाला होवे तो क्या वह अपन को तार नहीं
सकता है ? उत्तरः जो खुद ही डरता है वह दूसरे को कैसे
तार सन्सा है? जो जुद दरिद्री है वह दूसरे को करो धनवान बना सकता? कुछ नहीं कर सकता . न करन राले कुगुरुनों अपने मुला पसद्गुणों मनाने की कोशीश करते हैं जैसे कि कोई कहता है कि सिओं के साथ प्रेम किये बिना प्रभु के साथ प्रेम हो सकता नहीं है. ग.ई कहता है कि पुत्र वगर मर जाते हैं उनको स्वर्ग मिलती नहीं है " पुत्रस्य गति स्ति" एंसे ऐसे असत्य उपदेश देकर अज्ञान पामर व भोले लोगों को भ्रमाते हैं ऐसे गुरुओं खुद उन्टे रास्ते जाते हैं व दूसरे को भी अपने पीछे २ लगाते हैं इस वास्ते
उनके संग से हर हमेश दूर रहना चाहिए (१०) प्रश्नः सुगुरू कैसे होते हैं ? उत्तरः जिन्होंने हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्री संग व
परिग्रह को सर्व प्रकार से छोडकर पंच पहावत धारण किये हैं याने उपरोक्त दूपण का.सेवन करते नहीं हैं, दूसरों से कराते नहीं है.व. नो सेवता है उसको अच्छा समझते नहीं है, और जो मिक्षाचारी से
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(४२) निर्दोष आहार पाणी लाकर अपना गुजारा चलाते हैं, जिनमें समभाव है, जो सत्यध. र्मोपदेश करते हैं उनको सुगुरु कहते हैं व उनको मानने वाले समकिती कह
लाते हैं ऐसे सद्गुरु खुद संसार समुद्र
. तिर जाते हैं व दूसरे को भी तारते हैं। (११) प्रश्नः कुधर्म किसको कहते हैं ? । उत्तरः जो धर्म उपर बताये हुये कुदेवों या कुगुरुओ
ने प्रवर्ताये हो, जिस धर्म के प्रवर्तक खुद हैं। अज्ञान होने से आत्मा, पुनर्जन्म, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नर्क आदि का स्वरूप जानता न हो व इसी से ही इनका अस्तित्व का इनकार करना हो याने इन सब कुछ है नहीं ऐसा बतलाता हो जिसका वचनों सापेक्ष व सयुक्तिक न हो ( एकांत वादी हो) जिसका धर्म का सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध हो, जो धर्म नीति व न्याय से विरुद्ध हो जिसमें पशुवधादि हिंसा का उपदेश हो, जिस धर्म में त्याग वैराग्य ब्रह्मचर्यादिक
उत्तम तत्त्वों का अभाव हो, ऐसा धर्मको • कुधर्म कहते हैं व उसको मानने वाले को
मिथ्यात्वी कहते हैं। (१२). प्रश्नः सुधमं किसको कहते हैं ? ... उत्तरः जो धर्म सर्वज्ञ का बतलायो हो, जिसमें
सर्व प्राणी का हितोपदेश हो, जो नीति व
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(४३) न्याय युक्त हो जिसमें तत्त्व निर्णय यथार्थ हो, और कोई युक्ति से खंडन हो सकता न हो, जिस धर्म में मन और इन्द्रियों को कावू में रखने के लिये और आत्मा का ज्ञानादिक स्वाभाविक गुणों प्रकट होने के लिये उत्तमोत्तम उपाय बतलाये हो, उस को सुधर्म कहते हैं व उसको मानने वाले
को समकिती कहते हैं। (१३) प्रश्नः सुदेवों राग द्वेष रहित हैं तो फिर अपने
को मानने वाले को तारे व नहीं मानने वाले को नहीं तारे ऐसा पक्षपात क्यों
करते हैं ? उत्तरः सुदेवों जगज्जीवों का कल्याण के लिये
व उनको संसार समुद्र से तारने के लिए धर्म की परूपणा करते हैं चाहे सो मनुष्य उस धर्म रूप नाव का आलंबन लेकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है. धर्म रूप नाव में बैठने के लिए सब किसी का समान हक्क है ब्राह्मण ही उस नाव में बैठने के लिए योग्य है व चंडाल नहीं है ऐसा पक्षपात सर्व जीवों के स्वामी श्री वीतराग देव ने बनाया हुवा धर्म रूप नाव में नहीं है. चंडाळ के वहां जन्म पाये हुए व घोर पाप करने वाले बहुत से जीवों इस नाव का वीनराग प्रणीत धर्म,का. आलम्बन लेकर संसार
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( ४४ )
समुद्र तिर गये हैं तिरते हैं व तिरेंगे कहिए atara प्रभु पक्षपाती है या नहीं ? नहीं है. (१४) प्रश्न: जैसे नाव को चलाने के लिए नाविकों की जरूरत होती है वैसे इस धर्म रूपी नाव को कौन चलाते हैं ?
उत्तरः सद्गुरूओं इस नाव के नाविक हैं वे पाखंड व मिध्यात्व रूप तोफान से और मोहरूपी वायु से उस नाव का रक्षण कर उस में बैठे हुए जीवों को सलामत किनारे पर पहुंचाते हैं किसी को स्वर्ग में व किसी को मोक्ष में लेजाते हैं.
(१५) प्रश्न: समकित की प्राप्ति से जीव को क्या लाभ? उत्तरः समकिती जीव संसार समुद्र तिर कर मोक्ष के अनंत सुख प्राप्त करने के लिए समर्थ हो - ते हैं. वे धर्मरूप नाव में बैठते हैं, संसार समुद्र के दुःखरूप मोजे उनको दुःख नहीं दे सकते हैं वे जल्दी या देरी से मोक्ष में अवश्य जाते हैं.
(१६) प्रश्नः समकिती जीव अधिक से अधिक कितने भवमें मोक्ष में जा सकता है.
उत्तरः पंद्रह भव में, और यदि मोह तथा मिथ्यात्व रूप वायु की जोर से समकित रूप दीपक बुझ जाय तो वह मनुष्य धर्म रूप नावमें से संसारख्प समुद्र में गिर जाता है व ज्यादा से
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(४५) ज्यादा अर्ध पुद्गल परावर्तन में मोक्ष जा
सकता. (१७) प्रश्नः समकिती जीव मरके कहां उत्पन्न होते है ? ... उत्तरः मोक्ष में, वैमानिक देवों में या कर्म .
भूमि के मनुष्यों में. मगर समकित की प्राप्ति हुइ उसके पहले आयुकर्म का वंश होगया
हा तो चार गति में उत्पन्न हो सकते हैं. (१८) प्रश्नः अमुक मनुष्य समकिती है या नहीं वह कैसे
मालूम हो सकता है ? उत्तरः समकित आत्मा का गुण होने से अरूपी है __जिस से ज्ञानी ही सिर्फ जान सकते हैं ताहम . भी जिसमें निम्न लिखित पंच लक्षण देखने
में आते हैं वह समकिती हैं ऐसा अनुमानसे ' कह सकते हैं. 'शम-उपशम भाव. क्रोध, मान. माया व . लोभ को शांत किये हैं, ( उपशमाये
है) (अनंतानुबंधी कपायका उदय . .उसमें होता ही नहीं). संवेग-इंद्रिय जन्य सुख-पौद्गलिक सुख को
मिथ्या समझ कर आत्मिक सुख को ' . . . ही सच्चा सुख समझे.
निर्वेद-संसारको जेलखाना समझ कर उदा.
:: सीन रहे.. ... अनुकंपा-दुःखी जीवों पर दया रक्खें व उनका ... .. दुःख निवारण करने का प्रयास करें.
आस्था-जिन वचन पर संपूर्ण श्रद्धा रखे.
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(४६) ।
प्रकरण २१. : ॥ अधोलोक में भुवनवासी देवों ॥ ( १ ) प्रश्नः देवों को मुख्य कितनी जाति हैं व कोन
कोन है ? उत्तरः चार. भुवनपति, वाणयंतर ज्योतिषी व
वैमानिक. . (२) प्रश्नः लोक के तीन विभाग में से कोन से विभाग
में देवों रहते हैं ? उत्तरः तीनों लोक में देवों रहते हैं, अधोलोक
में भुवनपति रहते हैं, त्रीला लोक में वाण. व्यंतर व ज्योतिषी देव रहते हैं उर्ध्व
लोक में वैमानिक देवों रहते हैं. (३) प्रश्नः भुवनपति देवों कितनी जाति के हैं ? उत्तर दश जाति के एक असुर कुमार २ नाग
कुमार ३ सुवर्णकुमार ४ विज्जु कुमार ५ अग्नि कुमार ६ द्वीपकुमार ७ उदधि कुमार ८ दिशाकुमार ६ पवन कुमार १० स्थनित
• कुमार. (४) प्रश्नः भुवनपति देवों अधोलोक में कहां २ रहते हैं? उत्तर पहली रत्नप्रभा नर्क में १३ पाथडे हैं व
वारह अांतरे हैं ये बार प्रांतरां में से पाथडे:- जिस तरह से किसी हवेली में उपर नीचे बहुत माल होते हैं इसी तरह से नर्क में पाथड़ा उपर नीचे है
प्रांतरा: दो पाथड़ा की बीच का अंतर के आंतरा करते हैं.
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(४७)
पहला व अखीरी इस तरह से दो आंतरा खाली है व वीच में दश आंतरा में दश नाति के भुवनपति देवों अलग अलग २
रहते हैं. (५) प्रश्नः भुवनपति देवों व पहली नर्क के नारकी
क्या साथ ही वसते हैं ? . उत्तर. नहीं भुवनपति देवों तो पाथड़ा की उपर के
भाग में पोलार है जिसको भुवन कहते हैं उसमें रहते हैं व नारकी के जीवो पाथड़ा
की मध्यमें पोलार है वहां रहते हैं ? (६) प्रश्नः प्रत्येक पाथड़ा की लंबाई चौड़ाई व मो.
टाई कितनी होगी और उसका आकार
कैसा होगा? उत्तर. लंबाई व चौड़ाई एक राज्य जितनी याने
असंख्याता जोजनकी है व मोटीई तीन हजार जोजन की है और उसका आकार
घट्ठी के पाट जैसा होता है. (७) प्रश्नः पाधड़ा की बीच में पोलार कितनी है ?
उत्तर. एक हजार जोजन की.. (८) प्रश्नः भुवनपति देवों का दूसरा नाम क्या ? ,
। उत्तर भुवनवासी देवों. . (६) प्रश्नः किस वास्ते बे भुवनवासी देवों कहलाते हैं.१ ,
उत्तर. भुवन में रहते हैं इस वास्ते.. . (१०) प्रभः भुवनपति के भुवन कितने हैं. ?.
। त्तर. सात क्रोड बहत्तर लाख. . .
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(४८) (११) प्रश्नः दश जाति के भुवनपति देवों ने सर से
ज्यादे बलवान व ऋद्धिवान कौन है ? उचर. असुर कुमार. . (१२) प्रश्नः भुवनपति में इन्द्र कितने हैं ?
उत्तर. वीस. प्रत्येक जाति में उत्तर व दक्षिण
- ऐसे दो दो इन्द्र हैं. . (१३) प्रश्नः जीव के ५६३ भेद में भुवनपति के कितने
उत्तर. पचास [१० भुवनपत्ति ब १५ परमाधामी . मिल २५ भेद हुए २५ अपर्याप्ता व २५
पर्याप्ता मिल कर ५० भेद हुए. :१४ः प्रश्नः परमाधामी देवों भुवनपति के दश भेद में से
कोन सा भेद में है. उत्तरः असुर कुमार में. (१५) प्रश्नः भुवन पति देव कुल कितने हैं ? .
उत्तरः असंख्याता. . (१६) प्रश्नः भुवन पति में देवता ज्यादे या देवी ? उत्तरः देवी ज्यादा है, क्योंकि प्रत्येक देव को कम
से कम चार चार देवी होती हैं. (१७) प्रश्नः भुवनपति देव मर के किस गति में जाता हैं !
उत्तरः दो गति में, मनुष्य व तिर्यंच, (१८) प्रश्नः अपन कभी भुवनपति देव हुये होंगे?
उत्तरः हां. अनंतीवार देवताव देवी हुवे हैं.
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(४)
प्रकरण २२. ।। भव्य व अभव्य जीवों ।। (१) प्रश्नः जीव लोक में जितने हैं उतनेही रहते हैं या
उसमें धध घट होता है ? उत्तरः जीव अनादि काल से जितने हैं उतनेही
अनंत काल तक रहेंगे उसमें एकभी करती
बढती होगा नहीं. (२) प्रश्नः जीव के कितने मुख्य भेद है ?
उत्तरः दो. सिद्ध व संसारी. (३) प्रश्नः सिद्ध कितने हैं व संसारी कितने हैं ?
उत्तरः सिद्ध व संसारी दोनों अनंत हैं. (४) प्रश्नः क्या सिद्ध व संसारी दोनों बराबर है ? उत्तरः नहीं. सिद्ध से संसारी अनंत गुना अधिक
है (अनंत अनंत में भी अनंत भेद है. ) (५) प्रश्नः सिद्ध व संसारी जीवों की संख्या में वध
घट होती है ? उत्तरः हां वे संसारी जीव जैसे कर्म बंधन से मुक्त
होते जाते हैं वैसे २ सिद्ध होते हैं इससे
संसारी जीवों की संख्या घटती है. (६) प्रश्नः सिद्ध के जीव कभी संसारी होंगे या नहीं?
उत्तरः कभी नहीं. (७) प्रश्नः संसारी जीक सब सिद्ध हो जायंगे या नहीं? उत्तरः नहीं. संसारी जीवों में भव्य अभव्य ऐसे
दो भेद हैं जिसमें अभव्य जीवों को योन
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कभी मिलेगा ही नहीं और भव्य जीवों में
से जो कर्म क्षय करेगा मोक्ष पायेगा. (८) प्रश्नः भव्य अभव्य का अर्थ क्या ? उत्तरः भव्य मायने सिद्ध होने की योग्यतः वाले
व अभव्य मायने सिद्ध होने को अयोग्य. (8) प्रश्नः भव्य जीवों में सिद्ध होने की योग्यता है
तो कभी सप भव्य जीव मोत में चले जाना चाहिथे व ऐसा हो तो अभव्य जीव
अकेले रह जायंगे या नहीं ? उत्तरः नहीं कभी ऐसा न होगा, राजा होने की
योग्यता वाले सब राजा हो जाना
चाहिये, ऐसा नियम नहीं है. (१०) प्रश्न: क्यों न हो कोई मिसाल देकर समझाईये ? उत्तरः जैसे मिट्टी व रेती इन दोनों में स्वभाव से
ही भेद है कि मिट्टी में से घडावन सकता है मगर रेती में से नहीं बन सकता. इसही तरह भवी व अभवी में स्वभाव से ही ऐसे भेद हैं कि भवी जीवों कर्म से मुक्त हो सकते है अथवी जीवों नहीं.
दुनियां की तमाम मिट्टी का घड़ा वन सकता है मगर जिस मिट्टी को कुंभार चाक आदि का योग मिल जाता है वही मिट्टी घडा रूप हो सकती है इस तरह जो भव्य जीवों को सुदेव सुगुरु व सुधर्म का योग मिल जाता है वे जी) सम्यगज्ञान
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(५१) सम्यग् दर्शन व सम्यक् चारित्र से कर्म बंधन को तोड़ कर मुक्त हो सकते हैं मगर
सभी नहीं. . (११) प्रश्नः लोक में भव्य जीव ज्यादा है या अभव्य ? उत्तरः अभव्य जीव से भव्य जीव अनंत गुण
अधिक है. (१२) प्रश्नः अभव्य जीव क्या जैनधर्म प्राप्त करते हैं ? उत्तरः अभव्य जीव भी श्रावक के व साधुजी के
व्रत धारण करते हैं सूत्र सिद्धांत पढ़ते हैं तथा अनेक प्रकार की वाह्य क्रिया भी करते हैं तब भी उनको सम्यगज्ञान, सभ्यम् दर्शन व सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती ही नहीं, व इस कारण से ज्ञानी की दृष्टि
में वे अज्ञानी व मिथ्यात्वी हैं। (१३) प्रश्नः वे बाह्य करणी करते हैं उसका फल उन
को मिलना है क्या ? उत्तरः हां, अच्छी करणी का अच्छा व बुरी
करणी का बुरा फल मिले बिना रहता ही नहीं अभव्यजीव भी साधु के व्रत पाल कर नवम ग्रीवेयक तक जा सक्त हैं।
. ॥दोहा ॥ . कोटि उपाये कर्मनां, फल मिथ्या नहीं थाय । समझी सरधी सत्य श्रा, कृत्य करो पछी भाई ॥
.
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(५२) प्रकरण २३. .
निर्जरा तत्त्व (१) प्रश्नः संसार के जीव जन्म, जरा, मृत्यु, व रोगा
दिक दुःख किस कारण से पाते हैं ? उत्तरः किये हुवे कर्मों के उदय से. (२) प्रश्नः कोई भी जीव सव दुःखों से मुक्त कवं हो
सकता है ? उत्तरः कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त होवे तव. (३) प्रश्नः जीव कर्म मुक्त कैसे हो सकता है ? उत्तरः नये आते हुवे कर्मों को अटकाने से व पुराने
का को क्षय करने से जीव कर्म मुक्त हो
सकता है. (४) प्रश्नः कर्म कहां से आता है, आते हुवे को किस
तरह रोक सकते हैं और किस तरह उस
का क्षय हो सकता है ? उत्तरः आश्रव रुप द्वार से कर्माता है, संवर रुप .. किवाड़ से उसको आते हुवे को रोक सक
ते हैं, और निर्जरा से पूर्व कर्म को तय क
र सकते हैं. (५) प्रश्नः निर्जरा किसे कहते हैं. ? ___ उत्तरः आत्मप्रदेश से बारह प्रकार की तपश्चर्या
कर देशसं कमे का दूर होना इसका नाम
निजरां तत्व है, (६) प्रश्नः निर्जरा के मुख्य कितने भेद हैं ?
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( ५३ )
उत्तर: दो, सकाम निर्जरा व अकाम निर्जरा. (७) प्रश्नः सकाम अकाम का अर्थ क्या है ?
उत्तरः सकाम मायने इच्छा सहित, व अकाम मायने इच्छा रहित.
(८) प्रश्न: इन दोनों में कौन श्रेष्ट हैं ?
उत्तरः सकाम..
( 8 ) प्रश्न: क्या करने से कर्म की निर्जरा होती है ? उत्तरः तप करने से.
(१०) प्रश्न: तपके मुख्य कितने प्रकार है ? उत्तरः दो, वाह्य तप व आभ्यंतर तप. (११) प्रश्न: वाह्य अभ्यंतर तप किसे कहते हैं ? उत्तरः वाह्य मायने प्रगट तप जिसको जगत् के जीव भी तप करके मानते है और अभ्यंतर तप मायने अमगढ अथवा गुप्त तप.
(१२) प्रश्नः इन दोनों में श्रेष्ठ तप कौनसा है ?
उत्तरः आभ्यन्तर.
(१३) प्रश्न: बाह्य तप के कितने प्रकार है ?
उत्तरः छ.
अनशन - आहार का त्याग करना सो थायविल, उपवास, छठ, अठम, इत्यादि.
उणोदरी - आहार करते कमखाना, अथवा
उपकरणादि कम रखना सो
वृत्ति संक्षेप-इच्छा का निरोध करना
सो अर्थात् भिक्षा चरी-गोचरी करना सो.
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(५४) रस परित्याग-रस का परित्याग करके
. लूखा आहार करना सो. काय क्लेश-देह को ज्ञान सहित करणी
_ करने में कष्ट देना सो. प्रति संलिनता-इन्द्रियों को वश में
रखना सो. . (१४) प्रश्रः आभ्यन्तर तप कितने प्रकार का है ? उत्तरः छै. प्रायश्चित-किये हुए पापों का पश्चाताप
करना तथा गुरु के पास उन पापों को प्रगट करके उनका
दंड लेना सो. विनय-गुरू तथा वडों का विनय करना सो. वैयावृत्य-दश प्रकार का वैयावच्च
करना सो. स्वाध्याय-शास्त्र का अध्ययन व पर्यटन
करना सो. ध्यान-धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में
___ आत्मा को जोड़ना सो. कायोत्सर्ग-काउसग्ग याने शरीर पर
से भूच्छाभाव कम करके .
ध्यान में निश्चल रहना सो . (-५) प्रश्नः निर्जरातत्व के कितने भेद हैं ? .. उत्तरः बारह ( उपर जो बारह भेद तप के कहे
. चे वारह प्रकार से कर्मों की निर्जरा होती . है अतएव निर्जरा के भी वेही १२ प्रकार हैं)
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( ५५ )
प्रकरण २४. उर्ध्वलोके वैमानिक देवों.
( १ ) प्रश्न: जीव के ५६३ भेद में देवता के कितने भेद हैं ?
उत्तर : १६८ ( भवनपति के पचास, वारणव्यंतर के वाचन, ज्योतिषी के वीश व वैमानिक के छोतेर ।
(२) मनः वैमानिक के ७६ भेद किस तरह से ? उत्तरः निम्नलिखित वैमानिक की ३८ जाति हैं १२ देवलोक ३ किल्विपी लोकांतिक ६ ग्रीवेयक व ५ अनुत्तर विमान ये ३८ हैं जिनका पर्याप्ता व अपर्याप्ता मिलकर ७६ भेद हुवे ।
(३) प्रश्न: वार देवलोक के नाम कहो ?
उत्तर: १ सुधर्म २ ईशान ३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र ५ ब्रह्मलोक ६ ांतक ७ महाशुक्र ८ सहसार ६ आपत १० प्रारणत ११ आरण व १२ अच्युत ।
तीन किल्विपी के नाम कहो ?
उत्तरः १ त्रणपलिया २ त्रणसागरीया व ३ तेरसागरीया ।
( ४ ) प्रश्नः
( ५ ) प्रश्न: नवलोकांतिक के नाम कहो ?
उत्तरः १ सारस्वत, २ आदित्य ३ चिह्नि ४ वरुण ५ गर्दतया ६ तोपिया ७ श्रव्यावाधा द अगीचा & रिट्ठा.
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( ५६ )
( ६ ) प्रश्न: नव ग्रीवेयेक के नाम कहो ? उत्तरः १ भद्दे २ सुभद्दे ३ सुजाए ४ सुमारासे ५ सुदंसणे ६ प्रियदंसणे ७ आमोहे ८ सुप डिवदे & जसोधरे.
(७) प्रश्न: पांच अनुत्तर विमान के नाम कहो ? उत्तरः १ विजय २ विजयंत ३ जयंत ४ अपराजित व ५ सर्वार्थसिद्ध.
( ८ ) प्रश्न: यहां से अपन देवलोक में जा सकते हैं या नहीं ? उत्तरः इस शरीर से तो नहीं जा सकते. पुण्य किये होवे तो मरने के पीछे वहां जा सकते हैं.
( ६ ) प्रश्न: वैमानिक देव किस लोकमें रहते हैं ? उत्तरः उर्ध्व लोक में याने उंचा लोक में.
(१०) प्रश्न: उर्ध्व लोक में वारह देवलोक किस जगह उत्तरः यहां से असंख्यात जोजन ऊंचे जाने वाद
पहला व दूसरा देवलोक आता हैं, दोनों मिल कर चंद्रमा जैसे गोल हैं जिन में दक्षिण तरफ के आधा भाग पडला सुधर्म . देवलोक व उत्तर तरफ के आधा भाग दूसरा इशान देवलोक है. वहां से असंख्यात जो. जन ऊंचे. तीसरा व चोथा : दो देवलोक चंद्रमा जैसे गोल आकार में हैं जिनमें दक्षिण तरफ का भाग सनत्कुमार देवलोक हैं व उत्तर तरफ का भाग माहेन्द्र देवलोक है. वहां से असंख्यात जोजन उपर पांचमा ब्रह्मलोक देव लोक है वह परिपूर्ण चंद्र के आकार में है वहां से असंख्यात जोजन पर
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(५७) बहा लांतक देवलोक है वह भी चंद्रमा जैसे गोल है. वहां से असंख्य जोजन उंचं सातमा लांतक देवलोक है वह भी पूर्ण गोल है. वहां से असंख्य जोजन उंच आठमा सहसार देवलोक है वह भी पूर्ण गोल है. वहां से असंख्यात जोजन उंचे नवमा आ. यात व दशमा प्राणत ये दो देवलोक साथ ही है दोनों मिलकर चंद्रमा जैसे गोल है दक्षिण तरफ नवमा व उत्तर तरफ दशमा है यहां से असंख्य जोजन उंचे ग्यारहवां पारण व बारहवां अच्युत देवलोक हैं दोनों मिलकर चंद्रमा जैसे गोल है दक्षिण तरफ ारण व उत्तर में
अच्युत है. (११) प्रश्न प्रत्येक देवलोक कितने बडे हैं ?
उत्तरः असंख्य जोजन की लंबाई चौडाइ है, (१२) प्रश्न: प्रत्येक देवलोक में विमान कितने हैं ? उत्तरः पहेले में ३२ लाख, दूसरे में २८ लाख,
तीसरे में १२ लाख, चोथेमें ८ लाख, , पांचवें में ४ लाख, चट्ट, ५० हजार, सातवे में ४० हजार, आठवें में ६ हजार, नवमा दशमा में मिलकर ४००, और
'ग्यारहवां व वारंमा में मलिकर ३०० है. (१३) प्रश्नः वहां प्रत्येक विधानमें कितने देवों रहते हैं?
उत्तरः प्रत्येक विमान में असंख्य देव रहते हैं.
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(५८) (१४) प्रश्नः यहां से कोई देव सीधा ऊंचा चढे तो :
. वीचमें कितने व कौन २ देवलोक श्राव.? . उत्तर: पहला,तीसरा,पांचवां,बट्टा,सातवां आठवां,
नवमा, व ग्यारहवा, इस तरह से आठ
देवलोक आवे. (१५) प्रश्नः इस त्रिछा लोक के उत्तर तरफ के आधा ..
भाग में से कोई देवता उंचा जाय तो .
कितने व कौन २ देवलोकं आवे ? .. उत्तरः दूसरा, चौथा, पांचवां, छटा सातवां,आठवां
दशवां व वारहवां इस तरह से आठ देव . लोक आवे,
. (१६) प्रश्नः वैमानिक देवों में आयु, ऋद्धि, सिद्धि व सुख
समान होते हैं या न्यूनाधिक ? .. उत्तरः समान नहीं है मगर न्यूनाधिक है, सब से
कम आयु, ऋद्धि वगैरा पहिला देवलोक में; इस से ज्यादा दूसरे में, व इससे ज्यादा .' तिसरेमें, इस तरह से उत्तरोत्तर वढकर
चारहवां देवलोक में सब से ज्यादा आयु है. (१७) प्रश्न तीन कल्विषी देवों कहां रहते हैं ? . उत्तरः तीन पलिया देवों के विमान पहला दूसरा
देवलोक नजदीक नीचे के भागमें है (२) तीन सागरिया के विमान तीसरा चोथा देवलोक के नजदीक नीचे के भागमें है. व .
(३) तेर . सागरीया के विमान छहा देव . : लोक नजीक नीचे के भाग में है. .. ..
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(५६) (१८) प्रश्नः किल्विषी देवता में प्रायः कैसे जीव उप .
जतेहैं. ? उत्तरः जिनेश्वर की वाणी के उत्थापक उत्सूत्र गरु
पणा करनेवाले जिनाज्ञा के विराधक ऐसे
जीव वहां उपजते हैं. (१६) प्रश्नः किल्विषी देवों का मान पान कैसा होता है? उत्तर: यहां जैसा ढेड भंगी का मान पान है
वैसा उनका मान पान वहां है वे नजदीक के देवताओं की सभा में विना आमंत्रण जाते हैं व दर बैठते हैं उनकी भाषा किसी को अच्छी लगती नहीं हैं तब भी बीचमें कोई वोले तो "मभाष देवा" ऐसा कह कर
उसको रोक देते हैं. (२०) प्रश्न: नवलोकांतिक देवों कहां रहते हैं ?
उत्तरः पांचवां ब्रह्मलोक देवलोक में. (२१) प्रश्नः उनका मान पान कैसा है ? उत्तरः उनका मान पान बहुत अच्छा है लोकांतिक
देवों मायः समकिती होते हैं तीर्थङ्कर देव को जब दिक्षा लेने का समय आता हे तव सूचन करने का अधिकार लोकांतिक दवों
का है. (२२) प्रश्नः नव ग्रीवेयक कहां हैं ?
उत्तरः ग्यारहवांचा बारहवां देवलोक से असंख्यात
__ योजन उंचे नवग्रीवेयक की तीन त्रिक है. (२३) प्रश्नः वहां प्रत्येक त्रिक में कितने विभान हैं?
उत्तरः १ भद्दे २ सुभदेव ३ सुजाए ये तीन की प्रथम
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(६०) त्रिक में १११ विमान हैं ४ सुमारणसे ५ सुदसणे व ६ प्रियदसणे ये तीन की दूसरी त्रिक में १०७ विमान हैं और ७ आयोहे ८ सुपडिबढे १६ जसोधरे थे तीनकी ती.
सरी त्रिक में १०० विमान हैं. (२४) प्रश्नः पांच अनुत्तर विमान कहां है?
उत्तरः ग्रीवेयक से भी असंख्यात योजन उंचे. (२५) प्रश्न: उन दिमान को अनुत्तर विमान किस वास्त
कहा जाता है? - उत्तरः अनुत्तर मायने प्रधान अथवा श्रेष्ट इन विमा. नों में रहने वाले देवों सब समकिती हैं प्रथम
चार विमानों के देवों जघन्य एक भवमें व उत्कृष्टा तीन भव में मोक्ष जाते हैं सर्वार्थ । सिद्ध विमान के देवों एकही भव में मोक्ष
. जाते हैं उनका सुख सब देवों से अधिक हैं. (२६) प्रश्नः वैमानिक देवों में कितने इन्द्र है ? उत्तरः वार देवलोक में दश इन्द्र हैं पहला आठ
देवलोक में अकेक इन्द्र है नवमां व दशवां में एक और ग्यारहवां व. वारहवां में एक
मिलकर दश इन्द्र होते हैं. (२७) प्रश्नः नवग्रीवेयक और पांच अनुत्तर विमान में
कितने इन्द्र हैं ? . उत्तरः वहां रहने वाले सब देव स्वतंत्र हैं प्रत्येक
देव खुद को इन्द्र समझा हैं इससे वे सब
अहमद्र गिने जाते है. (२८) प्रश्नः वहां देवी होती है या नहीं ?
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उत्तरः नहीं, उन देवों को विषय भोगकी मलीन
इच्छा नहीं होती. (२६) प्रश्नः कौन से देवलोक लक देवी उत्पन्न होती है।
उत्तरः दुसरा देवलोक तक.
॥ प्रकरण २५-चोवीश दंडक ।। ११) प्रश्नः सब संसारी जीवों के गतिश्राश्रयी कितने
... भेद है? उत्तरः चार-नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, व देवता. (२) प्रश्नः सब संसारी जीवों के जाति आश्रयी
कितने भेद है? . 'उत्तरः पांच-एकेन्द्रिय, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउ.
रिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, (३) प्रश्नः सब संसारी जीरों के काय आश्रयी कितने
धेद है? उत्तरः छ, पृथ्वीकाय, पकाय, तेउकाय, बाउकाय
- वनस्पतिकाय र.संझाय.' (४) प्रश्नः सब संसारी जीवों के दंडक आयी कितने
उत्तरः चोबीश. . . . (५) प्रश्नः दंडक मायने क्या . .
उतर: और जीरों को कर्मदंड भोगने के स्थानक. (६) प्रश्नः चोवीश दंडक के दाम कहो? · .
उत्तरः साल जारकी का प्रथमं दंडक; दश भवन .: पति के १०दंडक,पांच स्थावर के ५ दंडक,
बीन विकलेन्द्रिय के ३ दंडक, इस से तरह
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(६२) १६ हुवे २० वा तिर्यंच पंचेन्द्रिय का, २१ वा मनुष्यका दंडक, २२वां वायव्यन्वर का दंडक, २३वां ज्योतिषी का दंडक, और २४
वां वैमानिक का दंडक. (७) प्रश्नः चोबीश दंडक में नारकी, तिर्यंच, मनुष्य,
और देवता इन प्रत्येक के कितने कितने
दंडक हैं ? उत्तरः नारकी का एक (प्रथम) तिर्यच के नव
पांच स्थावर के ५,तीन विकलेन्द्रिय के ३, व तिर्यच पंचेन्द्रिय का १, मनुष्य का १,
(२१ वां) देवता के १३ [१० भवनपति के — १ वाण व्यंवर का १ ज्योतिषी का क.
१ वैमानिक का.1 . (८) प्रश्न: चोबीश दंडक में अपन किस दंडक में हैं।
उत्तरः एकवीशवां में. (६) प्रश्नः छहा दंडक किसका है. ? . . ... उत्तरः अग्निकुमार देवता का. (१०) प्रश्नः सतरवां दंडक किसका है? ___उत्तरः दोइन्द्रिय का. (११) प्रश्नः मक्खी का दंड कौनसा ? ... उत्तरः २६ व (१२) प्रश्नः सांप और बिच्छू का दंडक कौनसा ? 2. उत्तरः सांपका २० वां व विच्छका १६ वां. (१३) प्रश्नः तेउकाय-जीवोंका दंडक कौनसा? . . उत्तरः चौदवा. .. .. ..
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(६३) (१४) प्रश्नः सिद्धभंगवानका दंडक कौनसा ? उत्तरः वे दंडक में नहीं गिने जाते हैं क्योंकि उन
को कर्म न होने से वे दंडाते नहीं. (१५) प्रश्नः अरिहंतदेव, प्राचार्यजी, उपाध्यायजी, साधु, .
साध्वी व श्राविका का कौनसा दंडक ? उत्तरः एकवीश वां (मनुष्य मात्र का २१ वांदंडक (१६) प्रश्नः परमाधामी देवोंका कौनसा दंडक.
उत्तरः (दूसरा) असुर कुमार का. (१७) प्रश्नः पांच जाति में से प्रत्येक के कितने २ दंडक हैं.
उत्तरः एकेन्द्रिय में पांच, दो इद्रिय में एक, तेइन्द्रिय · में एक, चउरिइन्द्रियमें एक व पंचेन्द्रिय में १६ (१८) प्रश्नः छकाय में से प्रत्येक के कितने दंडक ? उत्तरः पांच स्थावर में पांच, वत्रसकायमें बाकी १६
प्रकरण २६-बंधतत्त्व. . (१) प्रश्नः बंध तत्त्व किसको कहते
उत्तरः आत्म प्रदेश के साथ कर्म पुद्गल का वधाना
___ उसको बंध तत्त्व कहने हैं. (२) प्रश्नः आत्मा के प्रदेश कितने हैं व शरीर में कहां है? उत्तरः आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं और वे सारे
शरीर में व्याप्त है. (३) प्रश्नः कर्म पुद्गल का बंध आत्मा के कितने प्रदेश
· को व कहां २ होता है ? उत्तरः जिस तरह से दूध में सकर डालने से सारे
ही दूध में ही सकर मिलजाती है और जिस . वरह से लोहे का गोला भी तपाने से
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(६४) - सारे ही गोला में अग्नि प्रविष्ट हो जाती है
उसी तरह से कर्म पुद्गल भी आत्म प्रदेश के
साथ मिल जाते हैं। (४) प्रश्नः आत्मा, कर्म पुद्गल को किस तरह से ग्रहण
. ... करता है. ? . . .. उत्तरः मन, वचन, काया, और कर्म ये चार साधन
से. मन, वचन, व.काया के योग* से जीव . कर्म ग्रहण करता है व क्रोधादिक कषायों
...से उसमें रस पड़ता है. (५) प्रश्नः बंधन कितने प्रकार का. है ? ..., उत्तरः १ प्रकृति वंध, कर्मका स्वभाव अथवा
. .. परिणाम २- स्थिति वंध-काल की मर्यादा ...... .. . . ३ अनुभाग बंध-रस (तीव्र मंद वगेरे )
४ प्रदेश बंध-कर्म पुद्गल का दल. (६) प्रश्नः बंध के ये चार स्वरूप मिशाल देकर .. .समझाइए ? . - उत्तरः लड्डू की मिशाल, जैसे कोई वैद्य विविध ... औषधियों से अनेक जाति के लड्डू बनाते हैं
इसमें कोई लड्डू का ऐसा गुण या स्वभाव
होता है कि उसके खाने से वायु के रोग . *नोट-जव हम अच्छे २ विचार करते हैं तब आत्मा स्वाभाविक रीति से शुभ पुद्गल ग्रहण करता है। इस तरह से शुभ वचन,व शुभकाय योग से भी पुण्य की प्राप्ति होती है व इन ही तीन योगों की अशुभ. प्रवृत्ति से पाप की प्राप्ति होती है। .
: . .
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(६५) मिट जाते हैं, कोई खाने से पित्त रोग मिट जाता है कोई लड्डू खाने से कफ मिटता है और कोई लड्डू शरीर को पुष्ट करता है। १ प्रकृतिबंध-मायने यह है कि कोई कर्म
— का स्वभाव आत्मा का ज्ञानगुण रोकने · का है किसीका दर्शन गुण रोकने का
होता है किसी को शाता ष अशाता वेदनीय देने का होता है उसको प्रकृति कहते हैं मूल प्रकृति प्रांठ हैं (ज्ञानावर
णीय आदि) व उत्तर प्रकृति । १४८ हैं। २ स्थितिबंध-जिस तरह से ऊपर द
र्शाये हुवे लड्डू में जोगुण है वह कुछ मुदत तक रहता है। कोई लड्डू में गुण १५ दिन तक रहता है तो कोई लड्डू में एकमास तक रहता है किसी में वर्षभर तक वह गुण रहता हैं । उसीतरह दो समय से ७० क्रोडा कोड़ी सागरोपम की स्थिति के कर्म नीव वांधते हैं उसको स्थिति • बंध कहते हैं। ३ अनुभागबंध-उपरोक्त लड्डू में कोई ____ लड्डू' मीठा होता है, कोई खारा ... होता है, और कोई तीखा होता 1. कर्मग्रंथ के मतानुसार उत्तर प्रति १५८ हैं। .
. . .
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है, इस तरह से कर्म का उदय आने से किसी का फल जीव को मीठा लगता
है व किसी का खारा लगता है किसी में कम दुःख और ज्यादा सुख और किसी में कम सुख और ज्यादा दुःख की प्राप्ति होती है इस तरह से जो भेद देखने में आता है
उसको रस याने अनुभाग बंध कहते हैं। . . ४ प्रदेशबंध-अब जैसे उपरोक्त लड्डू में
कोई लड्डू में द्रव्य का परिमाण थोड़ा होवे और किसी में अधिक होवे उसी तरह कोई बंध में कर्म वर्गणा योग्य पुद्गलों के अनंत प्रदेशी स्कंधों का परिमाण थोड़ा होवे और. किसी में ज्यादे होवे उस प्रकार को
प्रदेशबंध कहते हैं। (७.) प्रश्नः बंध तत्व जीव को हितकारी है या अहि- .
तकारी? .
उत्तरः अहितकारी और छोड़ने त्यागने) योग्य है। (८) प्रश्नः कर्म बंधन से हम कैसे बच सकते हैं? उत्तरः राग द्वेष छोड़ने से विषय और कषाय का
परित्याग करने से, सर्व जीवों को अपनी
आत्मा समान गिनने से, और विवेक तथा यत्न पूर्वक हरएक कार्य करने से जीव पापकर्म के बंधन से बच सकता है।
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(६७)
प्रकरण २७-मोक्ष तत्त्व। (१) प्रश्नः जन्म, जरा, मृत्यु व रोगादिक दुःख हम
पाते हैं उसका कारण क्या है? उत्तरः किये हुए कर्मों के उदय से अपन को ये
दुःख भोगने पड़ते हैं. (२) प्रश्नः इन सव दुःखों से हम किस तरह मुक्त
होसकें? उत्तरः जहां तक दुःखों के मूल कारण रूप कर्म
हैं वहां तक दुःख भी हैं, परंतु किसी उपाय से इस कर्म के बन्धन से हम छूट जाय तो .सब दुःखों से भी हम मुक्त - हो
सकते हैं. . (३) प्रश्नः कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त होना अर्थात्
सर्व दुखों की आत्यंतिक मुक्ति होनी उसका
नाम क्या? उत्तरः सुक्ति अथवा मोक्ष. (४) प्रश्नः मोक्ष प्राप्ति के लिये यानी कर्म के बन्धन से
मुक्त होने के लिए कौन २ उपाय हैं! उत्तरः निम्नलिखित ४ उपायों से मोन प्राप्त हो
सकता है। १ सम्यग् ज्ञान-जीव, अजीव, पुण्य,
पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, व मोन इन नव तत्वों के स्वरूप यथातथ्य (जैसा है वैसाही) समझने चाहिए।
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(६८) 'सम्यग् दर्शन-वीतराग के वचन में
अंदा रखनी चाहिए. 'सम्यक् चारित्र-मोक्ष मार्ग में उपयाग
पूर्वक चलना चाहिए । आनव द्वार से आते हुए कर्मों को संवर रूप किवाड़ से रोकना चाहिए । मन, वचन, और काय के योग का निरोध करके प्राणातिपासादि अठारह प्रकार के पापों से निवृत्त होना
चाहिए। . ४ तप-पूर्व कर्मो को १२ प्रकार के तप
द्वारा तय करने चाहिए. (५) प्रश्नः चार गति में से कौनसी गति में आकर
जीय मोक्ष प्राप्त कर सकता है? उत्तरः मनुष्य गति में से. (६) प्रश्नः मोक्ष गामी जीव अर्थात चरम शरीरी मनु. . ष्य जब सर्व कर्म से मुक्त होता है तब कहां
जाता है? .. . , उत्तरः जैसे किसी तु को माटी, रेती आदि
वजन वाले पदार्थों के आठ लेप लगे होवे :.। तो उसके वजन से वह तुंबा हमेशा पानी
के भीतर डूबा हुआ रहता है मगर यदि . वह लेप उस पर से दूर हो जाये तो तुरंत ।, ही वह तुंरा पानी की सपाट उपर स्वा. . भाविक रीत्या आ जाता है वैसे ही आठ
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(६६) कर्मों के लेपसे लिप्त होकर संसार समुद्र में डूबे हुए जीव जब कर्मों से मुक्त होता है तब स्वाभाविक रीत्या वह लोकके मस्तिष्क पर पहुंच जाता है और अलोक के नीचे
स्थिर होता है. (७) प्रश्नः मोक्ष पाये हुए आत्मा कहां पर विराजमा
न होते हैं ? उत्तरः सर्वार्थसिद्ध विमान की ध्वजा से २१ जो
जन ऊंचे उर्ध्वलोक का अन्त आता है और वहाँसे उर्ध्व अलोक शुरु होता है, अलोक में धर्मास्ति काय, अधर्मास्ति काय, द्रव्यका अभाव होने से जीव व पुद्गल द्रव्यकी गति या स्थिति वहां पर नहीं हो सकती है जिस से सिद्ध भगवान् लोक के अखीरी चर्मान्त
तक पहुंच कर वहां है। स्थिर होते हैं. (८) प्रश्नः सिद्ध भगवान् के और अलोक के बीच में
कितना अन्तर है ? उत्तरः धूप व छाया के बीच में जैसे अन्तर नहीं
होता है ठीक उसी तरह सिद्ध भगवंत और
अलोक के बीच में अन्तर नहीं होता है। (६) प्रश्नः सिद्ध भगवंत का शरीर है या नहीं ? उत्तरः सिद्ध भगवान् अशरीरी है, वे पुगल के-जड़
वस्तु के संग रहित होकर केवल आत्म. स्वरूप में चौदह राजलोक का नाटक देखते
. हुए अनंत सुख की लहर में विराजित हैं. (१०) प्रश्नः वहाँ पर खाना, पीना, पहेनना, ओढ़ना,
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(७. )
गानतान, मान सन्मान आदि कुछ भी नहीं
है तो फिर सुख किस वातका ? उत्तरः खान पान आदि से अपन सुख मानते हैं
परन्तु वास्तव में वे पदार्थ सुखरूप नहीं हैं। क्योंकि जिस वस्तु में सुख देनेका स्वभाव होता है वह हमेशा सुखदायक ही होना चाहिए, मगर अमुक समय तक मुख देने के बाद वही वस्तु दुःख में परिणमें उसको सुखदाता कैसे कही जाय ? जैसे कि खीर का स्वाद मीठा है और उसको खाने से अपने को सुखका अनुभव होता है, वही खीर पेट भर खालेने के बाद उसके उपर से जन रुची उतर जाती है उस वक्त यदि .. कोई शख्स बलात्कार से अपने को खीर पिलाते ही रहें तो वही खीर दुःख का और कचित् मृत्यु का कारण रूप भी हो जाती है। पांचों इन्द्रियों के विषय भोगकी
यही दशा है. (११) प्रश्नः तब सच्चा सुख किसको कहा जाय ? उत्तरः जिस सुखका अन्त दुःख रूप न होवे जो
हमेशा ही सुख रूप रहे वही सच्चा सुख है. (१२) प्रश्नः मोक्ष में जो अनंत सुख हैं वह उनको किस
चीनमें से मिलते हैं ? याने उनके पास मुख प्राप्त करने के
से साधन
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(७१)
उत्तरः यह वात बहुत समझने योग्य है, सुखका
आधार वाह्य साधन पर नहीं है मगर मनकी परिस्थिति उपर है. कई दफा नवकांकरी जैसे निर्माल्य साधन से रंक मनुष्य को जो सुखका अनुभव होता है वह सुख राज्यकी विभूति होने पर भी रानाको अनुभूत नहीं होता है. सुख यह आत्मा का ही गुण है वह बाहर से प्राप्त होता ही नहीं, जड़ वस्तु
ही चेतन को सुख देती है यह मान्यता . . गलत है। खीर चाहे जितनी अच्छी बनी हो.
वे मगर अपनी जिहा में उसका स्वाद जा. नने को गुण यदि न होता तो वह अपने
को सुख कैसे दे सकती? पुद्गल के अनंत गुणों में से एक अथवा अधिक गुण को जान कर वह दूसरे पदार्थ की अपेक्षा अपनी मानसिक प्रकृति को विशेष अनुकूल होने से जीव उसको सुख रूप मानने लग जाता है परन्तु दूसरे पल में ही उसकी अपेक्षा विशेष मनोज्ञ दूसरी चीज यदि मिल जाय तो उस दूसरी की अपेक्षा पहली चीज दुःख रूप हो जाती है। जो गजी के कपड़े व जुवार के रूखे व सूके टुकड़े को एक भिक्षुक सुख समझता है वही चीज एक राजा को दुःख रूप मालूम होती है, सारांश यह है कि जड़ वस्तु के उपर सुख दुःख का प्राधार नहीं है मगर अपनी खुदकी मान्यता के उपर है. (१३) मनः तब सिद्ध भगवान को क्या सुख है और वह किस तरह होता है ? .
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( ७२ )
1
उत्तरः सुख का आधार ज्ञान के उपर है। इस दृश्यमान जगत में जितने पदार्थ हैं, उनमें शब्द, रूप, गन्ध, रस, और स्पर्श यह मुख्य पांच गुण होते हैं । उन गुणों की परीक्षा के लिये आपने पास श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियां हैं। शब्दादिक विषयों का इन्द्रियों के द्वारा आत्मा को ज्ञान होता है । तब पुलाभिनन्दी आत्मा उन विषयों में सुख मानता है । वह सुख भी ज्ञान के ही अन्त र्गत है । रसनेन्द्रिय द्वारा खीर का स्वाद जान लेने पर उसके सुखको अनुभव होता | किसी ने आपको 'भला आदमी कडा, आपने उसे समझा, तब सुख की प्राप्ति हुई | बिना ज्ञान के सुख का अनुभव नहीं होता | इससे समझना चाहिये, कि स्वाद वगैरः के स्वल्प ज्ञान से ही अपने को सुख मिलता है, तब ऐसे २ अन्यान्य अनन्त गुण, चौदह राजलाकों में वर्तमान तमाम आत्माओं एवं सर्व द्रव्यों के अतीत, भविष्य त और वर्तमान काल के भावों को जो जान रहे हैं, या देख रहे हैं, उनका सुख कितना श्रगाध होगा? उनका सुख उनका अनन्त ज्ञानं दर्शन, गुशा का ही याभारी है । सिवा इसके आत्मा का जो स्वाभाविक अनन्त सुख हैं, वह अपनी कल्पना में भी
4
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(७३) आ सके वैसी नहीं वे सुख अनुपमेय और अनुभवगोचर हैं. जैसे किसी ने जन्म से ही घी खाया नहीं उसको घी का स्वाद कैसा है केवल शब्द मात्र से ही समझ में नहीं आ सका, परन्तु जिसने स्वयं घी खा. या हो उसीको ही मालुम हो सकता है. इसी तरह सिद्ध के सुखोंका केवल शब्द से ज्ञान नहीं हो सका उनको तो केवली
ही जान सकते हैं. (१४) प्रश्नः सिद्धभगवान जिस क्षेत्रमें विराजमान हो
ते हैं वह क्षेत्र क्या कहलाता है ? उत्तर- सिद्ध क्षेत्र.. (१५) प्रश्नः सिद्धक्षेत्र कैसा है ? ... उत्तर- ४५ लाख योजन लम्बा चौड़ा (गोलाकार)
और एक गांवका छहा भाग ( ३३३ धनुष्य और. ३२ अंगुल ) जितनी उसकी
मोटाई है, (१६) प्रश्नः इतनेही क्षेत्र में सिद्ध होने का क्या कारण
उत्तरः मनुष्य क्षेत्र याने अढाई द्वीप ४५ लाख
योजन का है. मनुष्य गति में से सिद्धगति
होती है. अढाई द्वीप में कोई जगह ऐसी . नहीं जहां अनन्त सिद्ध न हुवे हो. जिस
जगह मक्ष गामी जीव शरीर से मुक्त होते हैं उनकी बरावर सीधी लकीर में एक
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( ७४ ) समय मात्र में वे जीव सीधे उपर चढ़ लोक · के मस्तक पर सिद्ध क्षेत्र में पहुंच वहां
स्थिर होते हैं। (१७) प्रश्नः इतने छोटे क्षेत्रमें अनंत सिद्ध कैसे समा
उत्तरः जहां एक सिद्ध हो वहां अनन्त सिद्ध रह
सक्के हैं. जैसे एक कमरा में एक दीपक का प्रकाश भी समा सके और सो दीपकों का प्रकाश भी समा सके इसी तरह आत्मा अरूपी व ज्ञान स्वरूपी द्रव्य होने से एक
ही स्थान में अनंत सिद्ध रह सक्त हैं। (१८) प्रश्नः सिद्ध शिला और सिद्ध क्षेत्र एक ही है ? उत्तरः नहीं सिद्ध शिला सिद्ध क्षेत्र के बराबर
नीचे है परन्तु उन दोनों के बीच एक • योजन में एक गर का छठा भाग कम
जितना अंतर है। (१६) प्रश्नः ३३३ धनुष्य और ३२ अंगुल की सिद्ध
क्षेत्र की मोटाई होने का क्या कारण है ? उत्तरः सिद्ध भगवान की उत्कृष्ठ अवगाहना उतनी ,
ही होने के कारण, (२०) प्रश्नः उनके शरीर नहीं तव अवगाहना कैसी ? __उत्तरः शरीर नहीं परन्तु आत्म प्रदेश का घन
चरम शरीर का दो तिहाई भाग जितना • भाग बंधा हुवा है और ज्यादा से ज्यादा ५०० धनुष्य की अवगाहना वाले मनुष्य
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( ७५ )
मोक्ष प्राप्त कर सक्ते हैं. इस वास्ते उनके दो तिहाई भाग जितनी उत्कृष्ट अवगाहना हैं.
·
(२१) प्रश्न: जघन्य कितनी अवगाहना वाले जीव सिद्ध होते हैं ? उत्तरः दो हाथ की.
(२२) प्रश्न: सिद्ध भगवान की जघन्य अवगाहना कितनी होती है ?
उत्तरः १ हाथ और आठ अंगुल की.
(२३) प्रश्न: कैसे मनुष्य व कितनी वय वाले मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सक्ते हैं ?
उत्तरः जघन्य नो वर्ष और उत्कृष्ट क्रोड़ पूर्व की आयु वाले और वज्र ऋषभ नाराच संघया धारक कर्मभूमि के मनुष्य में से जिनको केवलज्ञान प्राप्त होता है वो ही मोक्ष में जाता है ।
समाप्त ।
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मक्खन के बारे में आया हुवा प्रश्न का
खुलासा.
कांधला निवासी श्रीयुत् चतरसैन खजानची ने "प्रकाश" पत्र के अंक १६ में ५ प्रश्न किये थे जिनमें से प्रथम प्रश्न (कि जो शालोपयोगी जैन प्रश्नोत्तर पर से उपस्थित हुवा था) यह है
प्रश्न । (१) १६ फरवरी के अंक १४ में लिखा है कि मक्खन में दो घडी में छाछ के निकलने पर दो इंद्रिय जीव हो जाते हैं सो यह कौन सूत्र में कहा है ?
उत्तर श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य विरचित योग शाख के आधार पर से हमने यह बात लिखी थी उक्त आचार्यने योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश में प्रतिपादन किया है कि:अंतर्मुहूर्तात्परतः । सुसूक्ष्मा जंबुराशयः॥ . यत्र मूर्छन्ति तबाधं । नवनीतंविवेकिभिः ॥ श्लो- ३४ : पक्खन को छाछ में से निकालने के पश्चात् अंतमुहूर्त व्यतीत होने पर उसमें सूक्ष्म जंतुओं के समूह उत्पन्न होते हैं अतएव विवेकी जनों को चाहिये कि मक्खन का भक्षण न करें। 'एकस्यापि जीवस्य । हिंसने किमचं भवेत् ।। जंतु जातमयं तत्को । नवनीत निषेवते ॥श्लो ३५
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( ४ )
एक जीव की भी हिंसा करने में अत्यंत पाप है तब जंतुओं का समुदाय से भरा हुवा इस मक्खन को कौन भक्षण करें ? अर्थात् किसी भी दयावान् मनुष्य उसका भक्षण करे नहीं.
उपरोक्त श्लोक में मुहूर्तात्परतः नहीं मेगर अंतर्मुहूर्ता स्परतः कहा है जिसका तात्पर्य यह है कि मुहूर्त के पीछे नहीं मगर अंतमुहूर्त के पीछे उसमें सूक्ष्म जंतुओं के समूह उत्पन्न होते हैं दो समय से लेकर दो घडी में एक समय कम होवे वहां तक अन्तर्मुहूर्त गिना जाता है जिससे हमने दो घडी में उत्पन्न होने का लिखा है सो उस ग्रंथ के मत से तो बराबर है मगर सूत्र श्री वेदकल्प देखने से हमारा मन भी शङ्का शील हो गया है क्योंकि श्री वेदकल्प सूत्र के छट्टा उद्देश का ४६ वां सूत्र इस प्रकार है.
'नो कृप्पई निग्गंथावा. निरंगथीणवा पारिया सरणं तेलेणवा, घरणवा नवणीरणवा वसारणवा गायाई अभंगेतरावा मखेतवा गणत्थगाढागाढ़े रोगायकसु (४६) अर्थ:-नो, न कल्पे निः साधु साध्वी को पः पहिला प्रहर का लिया हुंवा पिछले प्रहर तकं ते. तेल घ. घृत नं. लवणी (मक्खन) व. चरवी मा. शरीर को अ. एक दफे लगाना म. वारंवार लगाना ण. इतना विशेष कि गा.. गाढ़ागाढ कारण से रोगादिक में लंगाना कल्पे.
)
•
उपरोक्तं सूत्र से पहिले प्रहर में लिया हुवा मक्खन आदिका अभ्यंगण करना तीसरा महरतक साधु साध्वी को कल्पनिक है ऐसा स्पष्ट मालूम होता है यदि मक्खन में योग शास्त्र में कहे अनुसार अंतर्मुहूर्त के पीछे त्रस
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________________ ,जीवों की उत्पत्ति होती हो तो उपरोक्त सूत्र में नवनीएण शब्द की योजना भगवान कभी न करें. पहले प्रहर में लिए हुए मक्खन का चीथे प्रहर में भी रोगादि के मंबलं कारण से साधु साध्वी अपने शरीर में लगा सक्ने हैं जिससे यह बात सिद्ध हुई कि इस में चोथा प्रहर तक भी सजीव की उत्पत्ति न होनी चाहिए' मगर हेमचंद्राचार्य जैसे समर्थ विद्वान् वेदकल्पकी यह वात से केवल अज्ञात होवे यह बात भी हमें कुछ असंभव सी मालुम होती है. जिस से इसमें कोई और रहस्य होना चाहिए. इस विषय में हमारा तर्क यह है कि साधु साध्वी नवनीत प्रथम प्रहर में लाकर छाछमें रख छोडे और ज. रूरत होनेपर इसमें से निकाल कर उपयोग में लावें. कि जिस से मक्खन में जंतु की उत्पत्ति भी न होवे और साधुजी का काम भी चल जावे. ऐसा होघे तो ग्रांथिक व सिद्धांतिक दोनों प्रमाण में प्रत्यक्ष विरोध दिखने पर भी दोनों प्रमाण यथार्थ हो सके हैं. ____ मक्खन को छाछ में नहीं रखने से उस में फूलण का होना भी संभावित है और फूलण अनंतकाय होने से साधु के लिये अस्पये है इससे भी हमारा उपरोक्त तक को पुष्टि मिलती हैं. * विद्वान् मुनिवरों का इस बारे में क्या अभिप्राय है वह जानने की हमें बड़ी जिज्ञासा है. इस लिये पाठक गणको विज्ञप्ति की जाती है कि उपरोक्त वातका खुलासा पंडित मुनिवरों से लेकर हमें लिख भेजने की कृपा करें. * * * हमारी गलती होगी तो हम फौरन कबूल कर लेंगे .हमें किसी प्रकार का मताग्रह नहि है. प्रयोजक.