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________________ (३१) अवसर्पिणी का तीसरा आरा की अखीर में व चोथा आरा की शरुआत में और उत्सर्पिणी का तीसरा आरा की खीर में व चोथा आरा की शरुआतमें महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य जैसा सुख होता है. अवसर्पिणी का चोथा आरा की अखीर में व पांचवां पारा की शरुआत में और उत्सर्पिणी का दूसरा आरा की अखीर में व तीसरा पारा की शरुआत में दुःख बहुत व सुखं कम होता है. अवसर्पिणी का पांचवां पारा की अखीर में व बहाआरा की शरुआत में और उत्सर्पिणी का प्रथम पारा की अखीर में व दूसरापारा की शरुपात में सिर्फ दुःखही है. अवसर्पिणी का. हा आरा की अखीर में व उत्सर्पिणी का प्रथम प्राश की शरुपात में सिर्फ दुःखही दुःख है। (२५) प्रश्नः यहां अब कोनसा काल व कोनसा धारा वर्त रहा है। उत्तरः अवसर्पिणी काल व पांचवां पारा। (२६) प्रश्नः एक कालचक्र में भरत इरवृत में जुगल के कितने भारे... . . उत्तरः अवसर्पिणी के पहले तीन व उत्सर्पिणी * अवसर्पिणी का छठा आरा खतम होते ही उत्स. पिणी का प्रथम भारा शरू होता है।. . . -
SR No.010488
Book TitleShalopayogi Jain Prashnottara 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharshi Gulabchand Sanghani
PublisherKamdar Zaverchand Jadhavji Ajmer
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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