Book Title: Samaysara Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-52 समयसार-चयनिका सम्पादक डॉ. कमलचन्द सोगाणी सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शन शास्त्र प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत भारती प्रकारमी 3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियो का रास्ता जयपुर-302003 प्रथम सस्करण नवम्बर 1988 मूल्य 1600 सोलह रुपये सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मुद्रक . अग्रवाल प्रिन्टर्स उदयपुर - SAMAYASARA CHAYANIKA / PHILOSOPHY Kamal Chaad Sogani, Jaipur-1988 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. प्रो. ए. चक्रवर्ती, मद्रास एव स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये को सादर समर्पित Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका 1 प्रकाशकीय प्रस्तावना •XXVII 3. समयसार- चयनिका की गाथाएं एव हिन्दी अनुवाद 1-55 4 सकेत सूची 56-57 5 व्याकरणिक विश्लेषण 55-102 6 समयसार-चयनिका एवं समयसार-गाथाक्रम 103-105 7 सहायक पुस्तकें एव कोष 106-107 8 शुद्धि पत्र 108 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय डॉ कमलचदजी सोगाणी द्वारा चयनित एव सम्पादित "समयसार-चयनिका" नामक प्रस्तुत पुस्तिका प्राकृत भारती के 52वें पुष्प के रूप में प्रकाशित हो रही है । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह चयनिका आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार ग्रन्थ के आधार पर तैयार की गई है। आचार्य कुन्दकुन्द अपने समय के जैन सैद्धान्तिक साहित्य एव शौरसेनो प्राकृत के दिग्गज विद्वान् ही नहीं, अपितु जैन परम्परा प्रसूत अनेकान्तवाद के प्रबल पक्षघर एव प्रचारक भी थे। जैन परम्परा ने इन्हे न केवल विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न मनीषि ही माना है अपितु प्रात स्मरणीय मगलकारी प्राचार्य भी माना है। जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा ने भगवान् महावीर और गौतम गणघर के पश्चात् स्थूलभद्र आदि को मगलकारक माना है वैसे ही दिगम्बर परम्परा ने भगवान् महावीर और गौतमगणि के अनन्तर आचार्य कुन्दकुन्दर आदि को मगलकारक मानकर श्रद्धास्पद स्थान दिया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द-निर्मित मुख्यत 5 कृतियाँ हैं - 1 अष्टपाहुड, 2 नियमसार, 3. प्रवचनसार, 4 पचास्तिकाय और 5. समयसार । इनका समग्र साहित्य आज के सन्दर्भ मे अध्ययन और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। 1 मगर भगवान् वीरो मगल गौतमो प्रभु । मगल स्थूलभद्राद्या, जैन धर्मोस्तु मंगलम् ।। 2 मगल भगवान् वीरो, मगल गौतमो गणि । मगल कुन्दकुन्दाद्या , जैन धर्मोस्तु मगलम् ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार मे उनकी विचार-सरणि जैन दर्शन, कर्म सिद्धान्त, रत्नत्रयी और अनेकान्तवाद का विशदता के साथ विश्लेषण करती है। आठवें बन्धाधिकार की 40वी गाथा मे उल्लेख है : यारादी गाण जीवादी दसण च विण्णेय । छज्जीवणिक च तहा भणदि चरित्त तु ववहारो। (138) प्राचाराग आदि (भागमो) मे (गति) ज्ञान समझा जाना चाहिए और जीव प्रादि (तत्त्वो मे) (रुचि) दर्शन (सम्यग् दर्शन) (समझा जाना चाहिए)। छ जीव समूह के प्रति (करुणा) चारित्र (समझा जाना चाहिए) । इस प्रकार व्यवहार (नय) कहता है। षड्जीवनिकाय की चर्चा वर्तमान में प्राप्त आचाराग सूत्र मे यथावत् उपलब्ध है। समयसार का परिचय-इस ग्रन्थ का मूल नाम है "समयपाहुड" अर्थात् समयप्राभृत । ग्रन्थ मे तीन स्थानो पर "समयसार" का उल्लेख भी प्राप्त होता है। वर्तमान समय मे समयसार नाम ही प्रसिद्ध है। समय का अर्थ है आत्मा और सार का अर्थ है शुद्ध स्वरूप, अर्थात् अभेदरत्नत्रयरूप विशुद्ध आत्म-स्वरूप का इसमे वर्णन होने से इस ग्रन्थ का नाम समयसार है, जो सार्थक है। इसकी दूसरी व्युत्पत्ति भी है .-समय का अर्थ है सिद्धान्त और सार का अर्थ है तत्त्व/तात्पर्य/निष्कर्प। अर्थात् सिद्धान्त। आगम-गत तत्त्वो का जिसमे निचोड हो, सार हो, वह समयसार है। ग्रन्थगत तात्त्विक प्रतिपादन से यह अर्थ भी सार्थक है। समयसार की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। 415 गाथाओ मे मुख्यत गाथा/आर्या छन्द का और कतिपय मे प्रार्या छन्द के भेदो Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रयोग देखने को मिलता है । ग्रन्थ मे मुख्यत दस विभाग / अधिकार हैं, जो निम्न हैं - 6 सवर, 1 जीव, 2 जीवाजीव, 3 कर्तृ कर्म, 4 पुण्य-पाप, 5. प्रसव, 7. निर्जरा, 8 बन्ध, 9 मोक्ष श्रीर 10 विशुद्ध ज्ञान | इनमे से कर्तृ - कर्माधिकार और विशुद्ध ज्ञानाधिकार अलग करदें तो 8 अधिकारो मे जैन दर्शन मान्य नव तत्त्वो के स्वरूप का विशद विश्लेषण प्राप्त होता है । कर्तृ - कर्माधिकार मे आत्मा की स्वतन्त्रता भौर परतन्त्रता के कारणो पर व्यवहार और निश्चय की दृष्टि से मार्मिक वर्णन है और विशुद्ध ज्ञानाधिकार मे आत्मिक विशुद्ध ज्ञानादि गुणो की उपादेयता पर दार्शनिक एव अध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन उपलब्ध है । वस्तुत समयसार, दार्शनिक एव आध्यात्मिक दृष्टि से एक अनुपम ग्रन्थ है । आ कुन्दकुन्द अनेकान्तवाद के पक्षधर होने से उन्होने कही भी ऐकान्तिकता को न अपनाकर व्यवहार और निश्चय को प्रयोजनवत्ता की सापेक्ष दृष्टि को आधार मानकर दोनो का सन्तुलन बनाये रखा है । अपेक्षा भेद से कही व्यवहार को प्रमुखता दी है, तो कही निश्चय को तथा कही दोनो ही का मत प्रस्तुत किया है । चयनिका - डॉ सोगाणी मुक्तानो का चयन / संग्रह कर सजाने / सम्पादन मे सिद्धहस्त हैं । समयसार की 415 गाथाओ में से केवल 160 गाथाओ का चयन कर, सवार कर इन्होने प्रस्तुत चयनिका सम्पादित की है । गाथाओ का अर्थ करने की और व्याकरणिक विश्लेषण की डॉ सोगाणीजी की अपनी स्वतंत्र और विशिष्ट प्रक्रिया / शैली है । तदनुरूप ही इन्होने अपनी शैली मे विस्तृत प्रस्तावना के साथ यह चयनिका तैयार कर प्राकृत भारती को सहर्ष प्रकाशनार्थं प्रदान की है । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती इससे पूर्व डॉ सोगाणीजी की प्राचाराग चयनिका, दशवकालिक चयनिका, उत्तराध्ययन चयनिका, अष्टपाहुड चयनिका आदि 8 पुस्तके प्रकाशित कर चुकी है और कई चयनिकायें प्रकाशित करने वाली है। डॉ कमलचन्दजी सोगारणो प्राकृत भाषा के अनन्य उपासक होने से इनका प्राकृत भारती के साथ प्रारम्भ से ही तादात्म्य सम्बन्ध रहा है। वर्तमान मे मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर के दर्शन विभाग के प्रोफेसर पद से 31 अगस्त, 88 को सेवा-निवृत्त होकर, जयपुर में निवास कर रहे हैं और प्राकृत भारती की गतिविधियो मे सक्रिय सहयोग दे रहे हैं । हमे आशा है पाठकगण इस चयनिका के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण को सुगमता के साथ हृदयगम कर सकेंगे और प्राकृत भाषा के जानकार एव उसके उन्नयन मे सहभागी बन सकेंगे। निदेशक म. विनयसागर प्राकृत भारती अकादमी जयपुर सचिव देवेन्द्रराज मेहता Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह सर्वविदित है कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रगो को देखता है, ध्वनियो को सुनता है, स्पर्शों का अनुभव करता है, स्वादो को चखता है तथा गघो को ग्रहण करता है। इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती है। वह जानता है कि उसके चारो ओर पहाड है, तालाब हैं, वृक्ष हैं, मकान है, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि। आकाश मे वह सूर्य, चन्द्रमा और तारो को देखता है। ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती है। इस प्रकार वह विविध वस्तुओ के बीच अपने को पाता है। उन्ही वस्तुओ से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है। उन वस्तुओ का उपयोग अपने लिये करने के कारण वह वस्तु-जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है। अपनी विविध इच्छाओ की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु-जगत से ही कर लेता है। यह मनुप्य की चेतना का एक आयाम है। धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड लेती है । मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत मे उसके जैसे दूसरे मनुष्य भी है, जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुखी होते हैं । वे उसकी तरह विचारो, भावनाओ और क्रियाओ की अभिव्यक्ति करते हैं। चूँ कि मनुष्य अपने चारो ओर की वस्तुओ का उपयोग अपने लिये करने का अभ्यस्त होता है, अत वह अपनी चयनिका [ 1 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यो का उपयोग भी अपनी आकाक्षाओ और आशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिये जीएँ । उसकी निगाह मे दूभरे मनुष्य वस्तु से अधिक कुछ नही होते हैं । किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति बहुत ममय तक चल नही पाती है । इसका कारण स्पष्ट है । दूनरे मनुष्य भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति मे रत होते हैं । इसके फलस्वरूप उनमे शक्ति-वृद्धि की महत्त्वाकाक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति वृद्धि मे सफल होता है, वह दूसरे मनुप्यो का वस्तु की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है। पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होती है । अधिकाश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रो मे इस तनाव की स्थिति में से गुजर चुके होते है । इसमे कोई संदेह नही कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए श्रमहनीय होता है । इस असहनीय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यो का वस्तुओं की तरह उपयोग करने मे अनफल हो जाता है । ये क्षण उसके पुर्नावचार के क्षण होते हैं। वह गहराई से मनुष्य - प्रकृति के विषय मे सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमे सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान-भाव का उदय होता है । वह अव मनुष्य-मनुष्य की समानता और उसको स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है । वह अब उनका अपने लिए उपयोग करने के वजाय अपना उपयोग उनके लिये करना चाहता है । वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिये चिन्तन प्रारम्भ करता है । वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है । वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्त्व देने लगता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव मुक्त कर प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति वन जाता है देती है और वह एक । उसमे एक असाधारण 11] चयनिका Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यो की धनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु जगत मे जीते हुए भी मूल्यजगत मे जीने लगता है । उसका मूल्य जगत मे जीना धीरे-धीरे गहराई की ओर बढता जाता है । वह अब मानव मूल्यो की खोज मे सलग्न हो जाता है । वह मूल्यो के लिए ही जीता है और समाज मे उनकी अनुभूति बढे इसके लिये अपना जीवन समर्पित कर देता है | यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा आयाम है | समयसार मे मुख्य रूप से सर्वोपरि प्राध्यात्मिक मूल्यो की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है । इसका उद्देश्य समाज मे ऐसे समयमार में 415 गाथाएं हैं। इनमे से ही हमने 160 गाथानो का चयन समयमार चयनिका' के अन्तर्गत किया है। इसके रचयिता श्राचार्य कुन्दकुन्द हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द दक्षिरण के निवासी ये । कोण्डकुन्द था जो प्राध्रप्रदेश के अनन्तपुर जिले मे स्थित इनका समय 1 ई पूर्व से लगाकर 528 ई पश्चात् तक माना गया है । एन उपाध्ये के अनुसार इनका समय ईस्वी सन् के प्रारम्भ मे रखा गया है । "I am inclined to believe, after this long survey of the available material, that Kundakunda's age lies at the beginning of the Christian era" (P 21 Introduction of Pravacanasara) इनका मूल स्थान कोनकोण्डल है । याचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ (ममयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसार, नियमसार, भ्रष्टपाहुड प्रादि ) अध्यात्म प्रधान शैली मे लिखे गये होने के कारण अध्यात्म-प्रेमी लोगो के लिए आकर्षण के केन्द्र रहे हैं । चयनिका 111 ] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तियो का निर्माण करना है जो स्वचेतना की स्वतन्त्रता को जी सके । स्वचेतना की किंचित भी परतन्त्रता समयसार को मान्य नही है | चेतना की अतुलनीय गहराइयो मे व्यक्ति को लीन करना समयसार को इष्ट है । चेतन - अस्तित्व के गहनतम स्तरो को व्यक्ति छ सके और परतन्त्रता को त्यागने की प्रेरणा प्राप्त कर सके - यही समयसार का अपूर्व सदेश है । जन्म-जन्मो से व्यक्ति ने इन्द्रियो की परतन्त्रता को स्वीकार कर रखा है । इन्द्रिय विषय ही सदैव उसे प्राकर्षित करते रहते हैं । इन्द्रियपुष्टि का जीवन ही उसे स्वाभाविक लगता है । वाह्य विषयो मे जकड़ा हुआ ही वह अपनी जोवन - यात्रा चलाता है । अपने अस्तित्व की स्वतन्त्रता का उसे कोई भान ही नही हो पाता है । विषयातीत अनुभव उसके लिए दुर्लभ रहता है । समयसार का कहना है कि चेतना की अद्वितीय स्वतन्त्रता, उसकी समतामयी स्थिति की गाथा व्यक्ति के लिए सुलभ नही है ( 1 ) । व्यक्ति इन्द्रिय-विषयो से इतना आत्मसात् किए हुए होता है कि विषयो की ही वार्ता उसको रुचिकर लगती है । वस्तुओ और व्यक्तियो से बधा हुआ ही वह जीता जाता है । चेतना को वस्तु और व्यक्तियो से बघना स्वाभाविक प्रतीत होता है । इस कारण व्यक्ति को चेतना बाह्य का ही आलिंगन करती रहती है और अपनी स्वतन्त्रता को खोकर मानसिक तनाव से ग्रस्त बनी रहती है । यही व्यक्ति की अज्ञान अवस्था है । यहा यह ध्यान देने योग्य है कि समयसार व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाना चाहता है, जिससे वह चेतना / आत्मा को परतन्त्र बनानेवाले कारणो को समझ सके । सच तो यह है कि आत्मा की परतन्त्रता मानसिक तनाव मे ही अभिव्यक्त होती है । तनाव मुक्ति आत्म - स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति है । समयसार का IV ] समयसार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षण है कि परतन्त्रता की लबी यात्रा यद्यपि व्यक्ति कर चुका है, फिर भी परतन्त्रता के विद्यमान कारण आत्मा की स्वतन्त्रता का हरण किंचित मात्र भी नही कर सकते हैं। स्वतन्त्रता आत्मा का स्वभाव है, परतन्त्रता कारणो के द्वारा थोपी हुई है। सच यह है कि इन कारणो को व्यक्ति इतना दृढता से पकडे हुए है कि परतन्त्रता स्वाभाविक प्रतीत होती है, किन्तु मानसिक तनाव की उत्पत्ति इस स्वाभाविकता के लिए चुनौती है। आत्मा की स्वतन्त्रता और मानसिक तनाव की उत्पत्ति एक दूसरे के विरोधी हैं। जहाँ आत्मा की स्वतन्त्रता है, वहाँ तनाव-मुक्ति है, वहाँ ही समतामय जीवन है। जहाँ आत्मा की परतन्त्रता है, वहां मानसिक तनाव है, वहाँ ही द्वन्द्वात्मक जीवन है । चेतन अस्तित्व (आत्मा) को स्वतन्त्र समझने की दृष्टि निश्चयनय है और उसको परतन्त्र मानने की दृष्टि व्यवहारनय है। जब आत्मा की (पर से) स्वतन्त्रता स्वाभाविक है, तो आत्मा की परतन्त्रता अस्वाभाविक है। इसीलिए कहा गया है कि निश्चयनय (शुद्धनय) वास्तविक है और व्यवहारनय अवास्तविक है (4)। ठीक हो है, जो दृष्टि स्वतन्त्रता का बोध कराये वह दृष्टि वास्तविक ही होगी और जो दृष्टि परतन्त्रता के आधार से निर्मित हो, वह अवास्तविक ही रहेगी। समयसार का कथन है कि जो दृष्टि आत्मा को स्थायी, अनुपम, कर्मों के बन्ध से रहित, रागादि से न छुपा हुआ, अन्य से अमिश्रित देखती है, वह निश्चयनयात्मक दृष्टि है (6, 7)। इतना होते हुए भी परतन्त्रता का जीवन जीनेवाले को व्यवहारनय के माध्यम से ही समझाया जा सकता है (२)। एक एक करके परतन्त्रता के कारणो का विश्लेषण अप्रत्यक्ष रूप से प्रात्मा की स्वतन्त्रता की यशोगाथा है। इसीलिए कहा गया है कि व्यवहारनय के चयनिका [ v Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राश्रय के बिना स्वतन्त्रतारूपी सर्वोच्च सत्य की समझ सभव नही है ( 3 ) । जव व्यवहारिनय यह कहता है कि चेतन आत्मा और पुद्गलात्मक देह अभिन्न हैं, तो उन दोनो को अभिन्न समझने के कारणो का और श्रभिन्नता से उत्पन्न परिणामो का विश्लेषण करने से व्यवहारनय की सीमाओ का ज्ञान व्यक्ति को हो जाता है । इन सीमाओ के ज्ञान से व्यक्ति आत्मा की स्वतन्त्रता की ओर देखने लगता है और उसमे निश्चय-दृष्टि उत्पन्न होती है तथा श्रात्मा और देह की भिन्नता का ज्ञान उदित होता है (13) सीमित को सीमित समझने से असीमित की श्रोर प्रस्थान होता है । इसी प्रकार व्यवहार को व्यवहार समझने से निश्चय की ओर गमन होता है । व्यवहार द्वारा उपदिष्ट आत्मा और देह की एकता को जो यथार्थ मानता है, वह अज्ञानी है और जो उसे यथार्थ मानता है, वही - ज्ञानी है (10, 11, 12) | चूँकि देह पर है, इसलिए केवली (समतावान ) के देह की स्तुति करना भी निश्चय-दृष्टि से उपयुक्त नही है । जो समतावान के श्रात्मानुभव की विशेषताओ की स्तुति करता है, वह हो निश्चयदृष्टि से स्तुति करता है (14) ठीक ही है, जैसे नगर का वर्णन कर देने से राजा का वर्णन नही होता है, वैसे ही देह की विशेषताओ की स्तुति कर लेने से शुद्ध आत्मारूपी राजा की स्तुति नही हो पाती है (15) 1 अंत समयसार का शिक्षण है कि जैसे: कोई' भी घने का इच्छुक मनुष्य राजा को जानकर उस पर श्रद्धा करता है और तब उसका बैंडी सावधानीपूर्वक अनुसरण करता है, वैसे ही परम शान्ति के इच्छुक मनुष्य के द्वारा श्रात्मारूपी राजा समझा जाना चाहिएतथा श्रद्धा किया जाना चाहिए और फिर निस्सन्देह वह ही अनुसरण किया जाना चाहिए ( 8, 9 ) 71, ī ना एक ए TE - ~~~ √1] * समयसा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T - उपयुक्त विवेचने से स्पष्ट है कि निश्चयनय से आत्मा मे पुद्गल के कोई भी गण-नही है। अंत आत्मा 'रेस-रहित, रूपरहित, गंध-रहित, शब्द-रहित तथा अदृश्यमान है । उसका स्वभाव चेतना है। उसका ग्रहण: बिना किसी चिन्ह के (केवल अनुभव से) होता है और उसका आकार अप्रतिपादित है' (20, 21) । यदि व्यवहारनय से औत्मा मे-पुद्गल के गुण कहे गहे हैं (26) तो यह समझा जाना चाहिए कि वर्णादि के साथ जीच (आत्मा) का सम्बन्ध दूध और जल के समान अस्थिर है । वे वर्णादि आत्मा मे स्थिररूप से बिल्कुल ही नहीं रहते हैं, क्योकि आत्मा तो ज्ञान-गुण से ओत-प्रोत होता है (23) | समयसार का कथन है कि जैसे मार्ग में व्यक्ति को लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग कहते हैं कि यह मार्ग लूटा जाता है। किन्तु वास्तव मे कोई मार्ग लूटा नहीं जाता है, लूटा तो व्यक्ति जाता है (24), उसी प्रकार ससार मे व्यवहारनय के आश्रित लोग कहते हैं कि वर्णादि जीव के हैं (26), किन्तु वास्तव मे 'वे-देहं के गुण हैं, जीव के नही। मुक्त (स्वतन्त्रता को प्राप्त) जीवो मे किसी भी प्रकार के वर्णादि नहीं होते हैं (21)। यदि इन गुणो को निश्चर्य से जीव को माना जायेगा तो जीव और अजीव मे कोई भेदं ही नहीं रहेगा (28) : . - " in . . - --7 . .- - प्रात्मा और कम: - - - - - - * व्यक्ति-जन्म-जन्मो से कर्मों को लिए हुए उत्पन्न होता है-।-ऐसी देह-युक्त आत्मा (व्यक्ति) मन, वचन और-काय की क्रियायो मे सलग्न रहती है। जब व्यक्ति इनके माध्यम से क्रियाओ को करता है, तो वे सभी क्रियायें सवेग से प्रेरित होकर ही उत्पन्न होती हैं। जैसे, क्रोध से प्रेरित होकर मन-वचन-काय की क्रियाएं उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार दूसरे-सवेगो,(कषायो) चयतिका [ YIL Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मान, माया, लोभ करुणा मादि) से प्रेरित होकर क्रियाएँ हो सकती हैं। ये क्रियाएं दूसरो को प्रभावित करें या न करें, किन्तु व्यक्ति को तो अवश्य ही प्रभावित कर देती हैं। व्यक्ति का व्यक्तित्व इनके प्रभाव से परिवर्तित होता दिखाई देता है। यह प्रभाव या परिवर्तन सस्कार के रूप मे व्यक्ति मे सचित होता चलता है। ये सचित सस्कार सवेग-जनित क्रियाप्रो को उत्पन्न करते हैं और फिर उनसे निर्मित सस्कार एकत्रित होते रहते हैं। ये सस्कार ही पुद्गलात्मक परमाणो के रूप मे आत्मा के साथ सलग्न हो जाते हैं। इन्हे ही कर्म कहा जाता है। ये कम हो जब विभिन्न कारणो से क्रियाशील होते हैं, तो मानसिक तनाव का कारण बन जाते हैं । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि मवेग-जनित क्रियाओ से हो व्यक्तित्व पर प्रभाव उत्पन्न होता है प्रोर यह प्रभाव ही सचित हो जाता है। इसे ही पाधव और वध कहा जाता है। क्रियाओ के प्रभाव की उत्पत्ति भोर सचय क्रमश भाश्रव और वध कहे जाते हैं। यहाँ यह समझना चाहिए कि व्यक्ति जन्म-जन्मो मे कर्मों के पाश्रव और वध के कारण ही परतन्त्रता का जीवन जीता चलता है । मानसिक तनाव इस परतत्रता की ही अभिव्यक्ति है। इतना होते हुए भी कर्म मात्मा के स्वतन्त्र स्वभाव को नष्ट नहीं कर सकते हैं। समयसार का कथन है कि जिस प्रकार मैल के घने सयोग से ढकी हुई वस्त्र की सफेद अवस्था भदृश्य हो जाती है, उसी प्रकार प्रज्ञानरूपी मैल से ढका हुमा ज्ञान अदृश्य हो जाता है (84) । इसी प्रकार मूर्छारूपी मैल से ढका हुआ सभ्यक्त्व और कषायरूपी मैल से ढका हुआ स्वरूपाचरण चारित्र अदृश्य हो जाता है (83, 85) । निस्सन्देह कर्मों ने चेतना की स्वतन्त्रता को आच्छादित किया है (86), जिसके फलस्वरूप परतन्त्रता पनपी VIL ] समयसार Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, किन्तु ममयमार का शिक्षण है कि ये माधव (कर्म) यद्यपि मात्मा (जीव) मे जुड़े हुए हैं, फिर भी ये अलग होने योग्य होते हैं ये अस्थिर हैं तया स्पायो महारे-रहित है (34) । नाप ही ये कर्म जो मानसिक तनाव उत्पन्न करते हैं स्वय दुख रूप होते हैं और दुख को उत्पत्ति का कारण बनते हैं तथा दुख-परिणामवाले रहते है (32,34) | ज्ञान का उदय होने पर व्यक्ति इनसे दूर होने के लिए तत्पर होता ही है (31,32)। प्रशान की स्थिति मे व्यक्ति इन मानसिक तनाव उत्पन्न करनेवाले कर्मों से एकीकरण किया हुमा जीता है और माननिक तनावो की परम्परा को जन्म देता रहता है और उसे प्रात्मा और कर्म (मानमिक तनाव) मे भेद नजर नही माता है, जिसके फलस्वस्प वह क्रोधादि कषायो से एकमेक रहकर दुखी होता रहता है (29,30) । जिस क्षरण व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि उसकी चेतना अपने मूलरूप मे शुद्ध (स्वतन्य/तनाव-मुक्त) है, स्पायरहित है, ज्ञान-दर्शन से अोतप्रोत है, उसी क्षण मे मानसिक तनाव विदा होने लगते हैं (33) । यहाँ प्रश्न है कि प्रात्मा से कर्मों (मानसिक तनावो) के मयोग का क्या कारण है ? यह बात सर्वविदित है कि व्यक्ति वस्तुप्रो और मनुष्यो/प्राणियो के मध्य रहता है। यदि हम जांच कर तो ज्ञात होगा कि प्रत्येक मानसिक तनाव के मूल मे कोई न कोई वस्तु या मनुप्य/प्राणी विद्यमान होता है। यदि क्रोध व्यक्ति के प्रति होता है तो लोभ वस्तु के प्रति होता है। इससे यह निष्कर्ष निकालना कि मनुष्यो/प्राणियो मोर वस्तुप्रो से कर्म-बन्धन होता है, अनुचित है। ममयसार का कहना है कि निस्सन्देह वस्तु और मनुप्य/प्राणी को प्राश्रय करके कपाएं उत्पन्न होती हैं, फिर भी वस्तु आदि से कम-बन्धन (मानसिक तनाव) नही होता है। चयनिका Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका वास्तविक, मूलभूत कारण वस्तु आदि के प्रति प्रासक्ति ही है 1100, 135)-| जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर चिकनाई लगा कर धूल से भरे स्थान मे काय-चेप्टा मे सलग्न हो जाए तो उम मनुष्य के शरीर से धूल का सयोग चिकनाई के अस्तित्व के कारण होगा; केवल काय-चेष्टा से नही। इसी प्रकार वस्तुग्रो और मनुष्यो/प्राणियो के जगत मे उनके प्रति रागादि (प्रासक्ति) के कारण कम-धूल का सयोग व्यक्ति के होता है, वस्तुप्रो और मनुष्यो। प्राणियो के कारण नही (127 से 130) । व्यक्ति की आसक्ति रहित प्रवृत्ति से उसके कोई कर्म-वन्धन (मानसिक तनाव) नहीं होगा-(131)1 जव मानसिक तनाव उत्पन्न होता है, तो सामा. न्यतया यह कहा जाता है कि व्यक्ति ऐसी परिस्थितियो से अपने को अलग करले। किन्तु यहाँ यह समझना चाहिए कि इसमे मानसिक तनाव दवे सकता है, दूर नहीं हो सकता है। निश्चय से तो मानसिक तनाव का कारण राग है, आसक्ति हैं, व्यक्ति और वस्तु नही । व्यवहार सें व्यक्ति/प्रारणी और वस्तु को मानसिक तनाव का कारण कह दिया जाता है । अत समयसार का शिक्षण है-कि निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय स्वीकार नही किया जा सकता है, यद्यपि जगत मे-मानसिक तनाव के लिए मनुष्यो। प्राणियो-और वस्तुओ को ही जिम्मेदार माना जाता है। किन्तु समयसार हमारा-ध्यान कर्म-बधन के वास्तविक कारण, आसक्ति की ओर आकर्षित करता है, क्योकि इसको दूर करने से हो शान्ति मिल सकती है। अतः निश्चयनय के आश्रित-ज्ञानी ही (आसक्ति के.मिटने से) सरम शान्ति प्राप्त करते हैं (136)-1 सच तो यह है क़ि-समयसार व्यक्तित्व को बदलने पर-जोर देता हैं। यही-मानसिक तनाव(कर्म-वन्धन)-की,समस्या का स्थायी हल है। मनुष्यो। प्राणियो-और-वस्तुओ मे बाह्य परिवर्तन-सामाजिक दृष्टिकोण से समयंसार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगी तो है, पर व्यक्ति की समस्या का वास्तविक समाधान नहीं है। प्रत व्यवहारनय उपयोगी होते हुए भी गर्न शन त्याज्य है । समयसार का शिक्षण है कि अज्ञानी (व्यवहारनय पर आश्रित) मन वस्तुमो मे मासक्त होता है, इसलिए कर्मरूपी रज से मलिन किया जाता है जिम प्रकार कीचड मे पडा हुया लोहा मलिन किया जाता है। किन्तु जानी (निश्चयनय पर आश्रित) सब वस्तुप्रो मे राग (पाक्ति) का त्यागी होता है, इसलिए वह कर्मरूपीरज़ (मानमिक तनावरूपीरज) ने मलिन नही किया जाता है, जिस प्रकार कनक कोचर मे पाहमा मलिन नहीं किया जाता है (113, 112) 1 ठोक ही है, जब तक चेतना की परतन्त्रता (मानसिक तनाव) का कारण आसक्ति समाप्त न हो, तब तक चेतना की स्वतन्त्रता (तनाव-मुक्ति) कैसे घटित हो सकती है ? प्रज्ञानी मनुष्य को वशा: स्वचेतना(आत्मा) की स्वतन्त्रता का विस्मरण ही अज्ञान है। इस विम्मरण का कारण है कि जन्म-जन्मो से आत्मा ने कर्मो के माथ एकीकरण स्थापित कर रखा है । इस एकीकरण के कारण ही प्रात्मा प्रासक्ति-जन्य प्रवृतियो में तल्लीन रहता है, जिसके कारण दुख-पूर्ण मानसिक तनावो से वह घिर जाता है और परतन्त्रता का जीवन जीता है। वह ससार मे अज्ञान के कारण विभिन्न प्रकार के चेतन-अचेतन द्रव्यों से एकीकरण स्थापित करता रहता हैं (10,11,12) । समयसार का कथन है कि पर द्रव्य को प्रात्मा में ग्रहण करता हुआ तथा प्रात्मा को भी पर द्रव्य मे रखता हुआ व्यक्ति प्राज्ञानमय (मूच्छित) होता है (46, 48)। चूंकि अज्ञानी अपनी क्रोधादि सवेगात्मक अवस्थाओं से एकीकरण कर लेता है, इसलिए उसके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं (62, 64) । समयसार का कहना है कि जैसे कनकमय वस्तु से कुण्डल 'प्रादि वस्तुए चयनिका [ xi Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न होती हैं और लोहमय वस्तु से कडे आदि उत्पन्न होते हैं वैसे ही अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते है (66) । अज्ञानी आत्म-स्वभाव को न जानता हुआ राग और आत्मा को एक ही मानता है (94)। वह कर्म के फल का सुख-दुख रूप से अनुभव करता है। चूंकि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते है. अत वह कर्म के फल का ज्ञाता-द्रष्टा होता है, उसे सुख-दुखरूत से अनुभव नहीं करता है (149, 151, 152) । वह ज्ञानी क्रोधादि सवेगो से, जो कर्म के कारण आत्मा मे उत्पन्न हुए हैं तथा कर्मों से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के फलो से आत्मसात् नहीं करता है (35, 36, 37) । ज्ञानी कर्म के फल को अनासक्तिपूर्वक ही भोगता है (99), किन्तु अज्ञानी आसक्तिपूर्वक कर्म के फल को भोगने के कारण कर्मों (मानसिक तनावो) के बोझ को बढाता रहता है। मात्मा का कर्तृत्व : (ज्ञानी और अज्ञानी कर्ता) मनुष्य विभिन्न प्रकार के सवेगो का अनुभव करता है। इस तरह उसमे काम, क्रोध, लाभ, ईर्ष्या, भय, दया, प्रेम, कृतज्ञता आदि सवेग क्रियाशील होते हैं। इन सवेगो के कारण ही पुद्गलकर्म-परमाण आत्मा से जुड़ जाते हैं और फिर ये कर्म-परमाण समय पाकर आत्मा को सवेगात्मक रूप में परिवर्तित करते रहते हैं (39) । इसे अस्वीकार नही किया जा सकता है कि ये सभी सवेग मनुष्य मे मानसिक तनाव की उत्पत्ति करते हैं, जो मनुष्य मे दुख का करण बनते हैं। यह स्थिति उस समय उत्पन्न होती है, जब व्यक्ति इन सवेगो से एकाकरण करके जीता है। अत यह उसकी अज्ञान अवस्था का ही द्योतक है। समयसार का कथन है कि अज्ञानी आत्मा ही इन सवेगो का कर्ता होता है, इसलिए वह xl ] समयसार Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनानी कर्ता है (49,61)। यह कर्तृत्व प्रात्मा की परतन्त्रता को चटानेवाला है। कि नानी आत्मा की स्वतन्त्रता का पारखी होता है, इसलिए वह इन मवेगो मे एकीकरण नहीं करता है और इनका नायक बना रहता है। यहा ममयमार का कहना है कि जानी कपायो (सवेगो) को विल्कुल नहीं करता है। वह उनका कर्ता नहीं है (41, 139) । पुद्गल- कर्म के द्वारा उत्पन्न किए हुए किमी भो मवेग (कपाय) का आत्मा कर्ता नहीं है (41)। ज्ञानी हर समय पर के प्राश्रयरहित होता है। वह स्वशासित रहता है तथा नायक मत्तामाय बना रहता है (ITI)। ज्ञानी की यह विशेषता है कि वह दुमात्मक कर्मों का उदय होने पर भी अपने नानीपन को नहीं छोडता है.जमे पाग मे तपाया हुआ सोना अपने कनक-स्वभाव की नही छोटता है (93)। जैसे विप खा लेने पर भी कोई वैद्य विशनाशक प्रक्रिया अपनाने के कारण मरण को प्राप्त नही होता है, वैसे ही ज्ञानी पुद्गल-कर्म के उदय को अनामन्तिपूर्वक भोगने के कारण कर्मों से नही बांधा जाता है और मानमिक तनाव का शिकार नहीं होता है (99) । अनानी प्रात्मा अपने मवेगो के कारण पुद्गल-कर्मो से युक्त होता है (39) । इस तरह से वह सवेगो का अज्ञानी कर्ता होता है, वैसे ही वह पुद्गल कर्मों का भी अज्ञानी कर्ता होता है और उन्ही का भोक्ता भी होता है (43)। समयसार का कथन है कि व्यवहारनय के अनुसार आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है तथा वह अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म के फलो को ही भोगता है (43)। चकि व्यवहारनय चेतना की परतन्त्रता से निर्मित दृष्टि है, इसलिए अजानो कर्ता व्यवहारनय के आश्रय से चलता है (53) । निश्चयनय के अनुसार आत्मा पुद्गल कर्मों को चयनिका [ xm Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्वतन्त्रक पाश्रय में है, ऐसा मा जाने पर, उसी प्रकार उत्पन्न नहीं करता है (53)। चूंकि निश्चयष्टि चेतना की स्वतन्त्रता पर आश्रित दृष्टि है, इसलिए जानी कर्ता निश्चयनय के आश्रय से चलता है । जीव (आत्मा) के द्वारा कर्म किया गया है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है (57) | योद्धाओ द्वारा युद्ध किए जाने पर, राजा के द्वारा युद्ध किया गया हैं, इस प्रकार लोक कहता है। उसी प्रकार व्यवहार से कहा जाता है कि अज्ञानी अात्मा के द्वारा कर्म किया गया है (58) सच तो यह है कि आत्मा जिस भाव को अपने मे उत्पन्न करता है, उसका वह कर्ता होता है। ज्ञानी का यह भाव 'ज्ञानमय होता है और अनानो का भाव अज्ञानमय होता है (61)। ज्ञानी शुद्ध भावो (अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रि सुख आदि) का कर्ता होता है और इसके विपरीत अज्ञानी अशुद्ध भावो (काम, क्रोध आदि) का का होता है । जानो ज्ञाता-द्रष्टा होता है (147, 148), इसलिए कर्मा के फल को व उनके वन्ध को जानने वाला होता है, सुख-दु खात्मक फल को भोगनेवाला नही होता है (151, 152) । अज्ञानी कर्मो के फल व उनके वध के साथ एकीकरण कर लेता है, इसलिए सुख-दुखात्मक फल को भोगनेवाला होता है (43)। यदि यह मान लिया जाए कि ज्ञानो अपने शुद्ध भावो का कर्ता व भोक्ता होने के साथ-साथ पुद्गल कर्म का भी कर्ता और मोक्ता होता है, तो ऐसा होने से ज्ञानी दो विरोधी क्रियाओ से युक्त हो जायेगा (44)। एक ओर तो हमे मानना होगा कि वह ज्ञानी स्व भावो का ही कर्ता और भोक्ता है,तथा दूसरी ओर मानना होगा कि वह ज्ञानी पर भावो का भी कर्ता और भोक्ता है। यह दोनो विरोधो क्रियाएँ सभव नहीं है। यदि हम यह मानते हैं कि ज्ञानी पर भावो का कर्ता व भोक्ता है, तो नानी को पर भावो से xiv ] समयमार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्मय होना पडेगा, ( 51 ) क्योकि कर्ता होने की यह शर्त है कि उसे उस रूप परिवर्तित होना अनिवार्य है ( 51 ) । यह स्वीकार किया गया है कि स्वभाव विरुद्ध होने के कारण ज्ञानी कर्ता पुद्गल कर्मरूप या सवेग-जनित क्रियारूप परिवर्तित नही हो सकता है, अत वह उनका कर्ता नही हो सकता है ( 51 ) । कोई भी चेतन सत्ता पुद्गल कर्मरूप या पुद्गल कर्म से उत्पन्न भावरूप परिवर्तित नही हो सकती है । समयसार का कहना है कि पर द्रव्य को आत्मा मे ग्रहण न करता हुआ तथा आत्मा को भी पर द्रव्य मे न रखता हुआ मनुष्य ज्ञानमय होता है । वह कर्मों का अकर्ता है ( 47 ) । मनुष्य अज्ञान के कारण पर द्रव्यों को आत्मा मे ग्रहण करता है और आत्मा को भी पर द्रव्य मे रखता है । वह अज्ञानी कर्ता है (46, 49 ) । ज्ञानी कर्ता सब प्रकार के अज्ञानमय कर्तृत्व को छोड़ देता है ( 49 ) । यहाँ यह समझना चाहिए कि जैसे अज्ञानी (परतन्त्र ) व्यक्ति सवेग-जनित पुद्गल कर्मों का तथा कर्म - जनित सवेगो का कर्ता होता है, उसी प्रकार वह इस लोक मे विविध सवेगो से प्रेरित क्रियाओ का तथा घडा, कपडा, रथ आदि का कर्ता होता है (50) । वह कर्तृत्व के अहकार से ग्रसित होता है । इम कारण उसके मानसिक तनाव उत्पन्न होता है । यदि ज्ञानी (स्वतन्त्र) व्यक्ति घडा, कपडा आदि पर द्रव्यों को बनाए तथा विविध सवेगजति क्रियायो को करे, तो उसे उन रूप परिवर्तित होना पडेगा । यह असभव है । अत वह वास्तव मे उनका कर्ता नही हो सकता है (51) 1 इस तरह यहाँ कहा जा सकता है कि व्यवहार से आत्मा उनका कर्ता है, किन्तु निश्चय से नही ( 50 ) । ज्ञानी मे कर्तृत्व का अहकार नही होता है इसलिए उसमे मानसिक तनाव पैदा नही होता है । समाज की अपेक्षा ज्ञानी और अज्ञानी दोनो ही चयनिका [ XV Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुओ व क्रियाओ के कर्ता हैं। उन दोनो मे भेद अतरग की अपेक्षा से होता है । एक अहकारशून्य जीव है, तो दूसरा अहकारमयी । एक मानसिक तनाव से मुक्त है, तो दूसरा मानसिक तनाव से घिरा हुआ। नैतिक दृष्टिकोण से भाव दो प्रकार के होते है शुभ भाव और अशुभ भाव। गुरिणयो मे अनुराग, दुखियो के प्रति करुणा आदि शुभ भाव हैं। अहकार, कुटिलता आदि अशुभ भाव हैं । अज्ञानी व्यक्ति इन दोनो भावो से एकीकरण कर लेता है और परतन्त्र बन जाता है । अज्ञानी इन दोनो भावो का कर्ता व भोक्ता होता है (54)। इनमे वह रूपान्तरित होकर मानसिक तनाव का जनक होता है। ज्ञानी शुद्ध भावो (अतीन्द्रिय सुख, ज्ञान आदि) का कर्ता होता है। वह मासिक तनाव से मुक्त होता है। वह शुभ अशुभ भावो का ज्ञाता-द्रष्टा होता है । जाता-द्रष्टा होने से ज्ञानी कर्ता का इनसे एकीकरण नष्ट हो जाता है और उसके मानसिक तनाव बिदा हो जाते हैं। स्वतन्त्रता का स्मरण सम्यग्दर्शन . ऊपर बताया जा चुका है कि जब व्यक्ति परतन्त्रता का जीवन जोता है, तब वह पर भावो तथा पर द्रव्यो मे एकीकरण कर लेता है । इस एकीकरण के कारण उसमे वस्तुप्रो व व्यक्तियो के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है और उनके विपय मे आसक्तिपूर्ण चिन्तन को धारा उसमे प्रवाहित होने लगती है। इस आसक्ति से ही उसमे काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, कुटिलता आदि उत्पन्न होते हैं जिनके फलस्वरूप वह मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है। वह (परतन्त्र) व्यक्ति कर्मों का कर्ता, उनसे उत्पन्न कषायो (सवेगो) का कर्ता, वस्तुओ का कर्ता तथा शुभ-अशुभ भावो का कर्ता अपने xvi ] समयमार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मानने के कारण मुख-दु.सात्मक परिणामो को भोगनेवाला होता है। इस तरह से वह द्वन्द्वात्मक जीवन जीता है और मानसिक ननाव मे फॅम जाता है । अज्ञानी का कर्तृत्व परतन्त्रता का पोपक होता है। व्यवहारनय परतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि का सूचक है। वह परतन्त्र प्टि का द्योतक है। चूंकि परतन्त्र दृष्टि वास्तविकता का बोध करानेवाली नही हो मरती है इसलिए व्यवहारनय अवास्तविकता का ही बोध कराता है। इस कारण से वह अवाम्तविक है, अमत्य है, अशाश्वत है। जो व्यवहारनय का प्राश्रय लेता है, वह अनानी है, मिथ्यावष्टि है, मच्छित है। अज्ञानी का एक मात्र लक्षण यह है कि उसे स्वचेतना की स्वतन्त्रता का विस्मरण हो जाता है। मूस्पिी मल उस पर छा जाता है और स्वतन्त्रता अवश्य हो जाती है, ठीक उसी प्रकार जैसे मैल से वस्त्र की सफंद अवस्या अदृश्य हो जाती है (83)। परतन्त्रतारहित अवस्था ही वास्तविकता है। यही स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति हैं। निश्चयनय स्वतन्त्रता से प्राप्त दृष्टि का सूचक है। यह ही वास्तविकता का वाध कराता है। इसलिए यह वास्तविक है, सत्य है और शाश्वत है। जो वास्तविकता का प्राश्रय लेता है, वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, और जागृत है (4)। ज्ञानी को, मम्यग्दष्टि को स्वचेतना की स्वतन्त्रता का स्मरण हो जाता है । स्वतन्त्रता का स्मरण ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि को शुद्ध आत्मा पर श्रद्धा हो जाती है, उसके स्वतन्त्र स्वभाव पर श्रद्धा हो जाती है (81)1 सम्यग्दृष्टि प्रात्मा को और उसके ज्ञायक स्वभाव को जानता है (102) । वह आत्मा और अनात्मा मे भेद करने लगता है (104)। सम्यग्दृप्टि प्रज्ञावान होता है। समयसार का कथन है कि यह प्रात्मा प्रज्ञा के द्वारा ही ग्रहण की जाती है। वह आत्मा निश्चय से 'मैं हूँ (146) । जो द्रष्टा-भाव और ज्ञाता [ xvu चयनिका XVI Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव है, वही 'मैं' है (147, 148)| जो शेप भाव है, वे मुझ में भिन्न है (147, 143)। इस तरह से स्वचेतना की स्वतन्त्रता का स्मरण होते ही व्यक्ति में ज्ञाता-द्रप्टा भाव का उदय हो जाता है, उसकी प्रना जागृत हो जाती है, उसकी शुद्ध आत्मा पर दृष्टि लग जाती है और वह व्यक्ति निश्चय पर आथित हो जाता है। यहाँ यह व्यान देने योग्य है कि स्वचेतना की म्वतन्त्रता का स्मरण होने से, ज्ञाता-द्रप्टा भाव का उदय होने में, प्रजा के जागृत होने मे, शुद्ध पात्मा पर श्रद्धा होने मे, निश्चयनय पर आश्रित होने से सम्यग्दृष्टि में निम्नलिखित विशेषताएं पैदा हो जाती है । सम्यग्दृष्टि की आत्मा में श्रद्धा होती है, इसलिए उसको स्वचेतना की स्वतन्त्रता में कोई शका नही होती है। इम कारण से वह निर्भय हो जाता है। (1) मातो प्रकार के भय उसके जीवन से निकल जाते हैं (118) । (2) वह किमी भी शुभ क्रिया से फल-प्राप्ति की चाहना नही करता हैं तथा उससे उत्पन्न कर्म-फल को भी नहीं चाहता है (119)। (3) वह जीवन में किसी भी सेवा-कार्य के प्रति घृणा नही करता है (120) । (4) वह सभी (तथाकथित) शुभ कार्यों मे मूढतारहित होता है। उनके प्रति उचित दृष्टिकोण अपनाता है। समाज मे शुभ समझे जाने वाले बहुत से कार्य मूर्खतापूर्ण हो सकते हैं। उनको करने का कोई सवल तार्किक आधार नही होता है। सम्यग्दृष्टि ऐसे कार्यो को त्याग देता है और तार्किक दृष्टि अपनाता है (121) । (5) वह शुद्धात्मा की भक्ति से युक्त होता है। वह दूसरो को भलाई के कार्यो को गुप्त रखता है। उनको उजागर करके वह 1 मात भय लोक-मय, परलोक-भय, मरक्षा-भय, प्रगुप्ति-भय, (सयल हीन होने का भय), मृत्यु-भय, वेदना-भय और अकस्मात-भय । xyim ] समयमार Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूमरो को लघुता का अनुभव कभी नही कराता है (122) । (6) वह यदि कषायो के दबाव से सद्मार्ग से विचलित हो जाता है, तो भी अपने को पुन समार्ग मे स्थापित कर लेता है (123) । (7) वह परम शान्ति के मार्ग मे स्थित माधुओ के प्रति वात्सल्यता प्रकट करता है। (8) वह समतादर्शी द्वारा प्रतिपादित ज्ञान की महिमा का प्रसार करता है (124) । इस प्रसार के लिए नैतिकआध्यात्मिक मूल्यो का जीवन जीता है । समयसार का कथन है कि वह विद्या (अध्यात्म-ज्ञान) रूपी रथ पर बैठा हुआ मकल्परूपी नायक के द्वारा विभिन्न स्थानो पर भ्रमण करता है (125) । व्यक्ति के जीवन मे सम्यग्दर्शन का उदय एक सारगर्भित घटना है। इससे उसके व्यक्तित्व मे आमूल-चूल आन्तरिक परिवर्तन हो जाता है। उसे स्वचेतना की स्वतन्त्र अवस्था और और परतन्त्र अवस्था मे मौलिक भेद समझ मे आ जाता है। वह अब स्वतन्त्रता के मार्गदर्शन मे जीने की कला विकसित कर लेता है उसमे यह ज्ञान विकसित हो जाता है कि शुद्ध ज्ञानास्मक चेतना मे क्रोधादि कपाएँ नही रहती हैं (91) । कर्मों के अनेक फल उसके स्वभाव नही है। वह तो ज्ञायक सत्ता है (101)। वह जीवन मे लोकोपयोगी सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक क्रियाओ मे प्रवृत्ति करता हुआ उनमे रागादि(आसक्ति) से मुक्त रहता है, इसलिए मानसिक तनाव से मलिन नही किया जाता है (131)। वह स्वतन्त्र आत्मा और परतन्त्रता से उत्पन्न कर्मों (मानसिक तनावो) का भेद समझ लेता है (31)। अत वह नये कर्मों (मानसिक तनावो) को नियन्त्रित कर लेता है (90) । वह कर्मो के फलो को ज्ञाता-द्रष्टा भाव से भोगता है। वह वस्तुओ को उपयोग मे लाते हए भी उन पर आश्रित नही होता चयनिका [ xix Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, क्योकि वह अनासक्ति का जीवन जीता है (100)। उमे इन्द्रिय-विपयो मे बिल्कुल ही राग नही होता (158)। स्वतन्त्रता की साधना स्व चेतना की स्वतन्त्रता का स्मरण होने के पश्चात् सम्यग्दृष्टि के जीवन में एक ऐसे जान का उदय होता है जो उसे चारित्र की साधना करने के लिए प्रेरित करता है। चारित्र की साधना के महत्व को समझाते हुए समयमार का कथन है कि जिस व्यक्ति मे रागादि भावो (मानसिक तनाव)का अश मात्र भी विद्यमान है,वह आगम का धारक होते हए भी स्वतन्त्रता के महत्व को पूरी तरह नही समझा है (103)। जो व्यक्ति शुद्धात्मा (स्वतन्त्रता) पर निर्भर नही है, किन्तु यदि वह वाह्य तप और व्रत धारण करता है, तो भी वह अवोध तप और अवोध व्रत ही कर रहा है (78)। व्रतो और नयमो को धारण करते हए तथा शील और तप का पालन करते हुए जो व्यक्ति शुद्ध प्रात्म-तत्व से अपरिचित है वे परम शान्ति को प्राप्त नही करते है। कुछ परतन्त्रतावादी व्यक्ति ऐसे होते है कि यदि वे आगम ग्रन्थो का अध्ययन भी करते है तो बोद्धिक ज्ञान को चाहे वे प्राप्त करले, पर आत्मज्ञानरूपी फल को वे उत्पन्न नहीं कर पाते है(137)। वे परतन्त्रतावादी अपने अज्ञान-स्वभाव को नही छोडते है, जैसे सर्प गुडसहित दूध को पीते हुए भी विषरहित नही होता है (150)। अत. कर्मो (मानसिक तनावो) से छुटकारा पाने के लिए आत्मा के ज्ञायक स्वभाव का ज्ञान, प्रात्मा की स्वतन्त्रता का ज्ञान या जीव-अजीव के भेद का ज्ञान ग्रहण किया जाना चाहिए (104, 105, 102) । समयसार का शिक्षण है कि यदि व्यक्ति इसमे ही सदा सलग्न रहे, इससे सदा सतुष्ट हो, इससे ही तृप्त हो, तो उसे उत्तम सुख प्राप्त हो जायेगा (106)। ज्ञान और चारित्र के महत्व को समझाते हुए xx ] समयसार Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार का कहना है कि प्रज्ञा(ज्ञान+चारित्र) के द्वारा ही आत्मा (स्वतन्त्रता) का अनुभव किया जाना चाहिए (145) । प्रज्ञा के द्वारा जीव तथा कर्म-बन्वन को विभक्त करने के कारण ही वे दोनो अलग अलग हो जाते हैं (143) । इस प्रज्ञा के द्वारा जो ग्रहण किए जाने योग्य है, वह आत्मा (स्वतन्त्रता) निश्चय से 'मैं' हूँ। जो अवशिष्ट वस्तुएँ है, वे मेरे से भिन्न है (146)। ज्ञाता-द्रष्टा भाव और (वास्तविक) 'मैं' अभिन्न हैं (147, 148) । इसे प्रज्ञा (जान+चारित्र) के द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए (147)। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि समयसार के अनुसार स्वतन्त्रता की साधना का अर्थ है आन्तरिक विकासोन्मुख माध्यात्मिक परिवर्तन । समयसार का यह विश्वास प्रतीत होता है कि व्यक्ति विभिन्न सामाजिक कारणो से प्रेरित होकर वाह्य साधना तो आसानी से कर लेता है, पर आन्तरिक साधना जो एक अकेली यात्रा है, व्यक्ति कठिनाई से कर पाता है। केवल बाह्य साधना से सामाजिक सतुष्टि ती होती है, पर आध्यात्मिक आन्तरिक विकास नही हो पता है। इस कारण व्यक्ति लम्बे समय तक वाह्य साधना करने के पश्चात् भी अपनी जीवन पद्धति को नही बदल पाता है। अत कहा जा सकता है कि शुद्ध आत्मा की ओर दृष्टि हुए विना नियम, व्रत आदि का पालन सामाजिक दृष्टिकोण से उपयोगी होते हुए भी व्यक्ति के लिए व्यर्थ ही सिद्ध होता है। ऐसा होने से व्यक्ति के मानसिक तनाव कम होने के स्थान पर वढ जाते है । वे योगी जो परमार्थ (आध्यात्मिक आन्तरिक परिवर्तन) का अभ्यास करते है, वे ही मानसिक तनावो का क्षय कर पाते हैं (82)। जो लोग निश्चय (आध्यात्मिक आन्तरिक परिवर्तन) को सार्थकता को छोड़ कर व्यवहार (केवल वाह्य तप आदि) मे प्रवृत्ति करते हैं, वे मानसिक तनावो को नष्ट चयनिका [ रहा XXI Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही कर पाते हैं। इस तरह से वे लोग स्वतन्त्रता की साधना के स्थान पर परतन्त्रता की साधना करने लग जाते हैं। अत कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता को साधना व्यक्तित्व का प्राध्यात्मिक आन्तरिक परिवर्तन है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि कर्म-बन्धन (परतन्त्रता। मानसिक तनाव) के विषय मे चिन्ता करने से कर्म-वन्धन (मानसिक तनाव) नष्ट नही होता है (140)। चिन्ता व्याकुलता को जन्म देतो है, इस कारण व्यक्ति अपने उद्देश्य को प्राप्ति मे सफल नहीं हो पाता है। जो कर्म-बन्धन से उदासीन हो जाता है, जो वस्तुओ मे आसक्ति को त्यागता है, वही उससे छुटकारा पाता है और परम शान्ति प्राप्त करता है (141, 142)। साधना मे पाप (अशुभ क्रिया) का त्याग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हिंसक क्रिया के त्याग के साथ हिंसा के विचार का त्याग आवश्यक है । समयसार का शिक्षण है कि व्यक्ति प्राणियो की हिसा कर पावे अथवा उनकी हिंसान भी कर पावे, तो भी उसके हिसा के विचार से ही कर्म-वध होता है । निश्चयनय के अनुसार यह व्यक्तियो के कर्म-बध के कारण का सक्षेप है (133)। इसी प्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह के आसक्तिपूर्ण विचार को त्यागना ही विकास की ओर जाना है (132) । बाह्य पापपूर्ण क्रियाओ का त्याग समाज के लिए तो उपयोगी है,पर आन्तरिक त्याग के विना व्यक्ति का विकास नहीं होता है। पाप (अशुभ क्रिया) के वीज का नाश ही व्यक्ति व समाज मे स्थायी परिवर्तन ला सकता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह आदि का विचार पुण्य लाता है (134) | पुण्य शुभ क्रिया का ग्रहण है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बहुत से व्यक्ति पुण्य (शुभ-क्रिया) मे ही अटक जाते हैं । zxil ] समयसार Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पुण्य (शुभ-क्रिया) समाजको तो व्यवस्थित करता है, किन्तु इसकी उपस्थिति मे व्यक्ति मानसिक तनाव से ग्रसित रहता है ।। अत जो क्रिया मानसिक तनाव में प्रवेश कराती है वह उपयुक्त कैसे कही जा सकती है ? इस तरह से जैसे पाप (अशुभ क्रिया) कर्म-बध (मानमिक तनाव), वैसे ही पुण्य (शुभ क्रिया) भी कर्म-बध (मानसिक तनाव) का कारण है। ये दोनो ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास मे वाधक है। समयसार का शिक्षण है कि जैसे काले लोहे से बनी हुई वेडी व्यक्ति को बांधती है और सोने की बेडी भी व्यक्ति को बाधती है, उसी प्रकार व्यक्ति द्वारा की हुई शुभ-अशुभ (मानसिक तनावात्मक)क्रिया भी उसको परतन्त्र बनाती है (72)। अत समयसार का शिक्षण है कि व्यक्ति मानसिक तनाव उत्पन्न करनेवाले दोनो कुशीलो (शुभ-अशुभ क्रियाओ) के साथ बिल्कुल राग/आसक्ति न करे, उनके साथ सम्पर्क भी न रखे, क्योकि आत्मा का स्वतन्त्र स्वभाव कुशीलो के साथ सम्पर्क और उनके साथ राग से व्यर्थ हो जाता है (73)। जैसे कोई व्यक्ति निन्दित आचरणवाले मनुष्य को जानकर उसके साथ ससर्ग को और राग करने को छोड़ देता है, वैसे ही पाप-पुण्य की, शुभ-अशुभ क्रियाओ की प्राध्यात्मिक रूप से निन्दित प्रकृति को जानकर स्वभाव मे लीन व्यक्ति उनके साथ सवध छोड देते हैं और उनके साथ राग/ आसक्ति को तज देते है (74, 75)। किन्तु जो व्यक्ति शुद्ध प्रात्मा (स्वतन्त्रता) से अपरिचित हैं, वे ही पुण्य (शुभ क्रिया) मे आसक्त रहते हैं (80) । अष्टपाहड-चयनिका की प्रस्तावना मे लेखक द्वारा यह स्पष्ट किया जा चुका है कि शुभ भावो से प्रेरित शुभक्रियाओ से समाज आगे बढता है, किन्तु व्यक्ति मानसिक तनाव से दुखी रहता है। समयसार परतन्त्रता/मानसिक तनाव को - 1 विस्तार के लिए देखें, मष्टपाहुर-चयनिका की प्रस्तावना । चयनिका [ XX111 xxii Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्त करने की बात कहता है, जिसमे शुद्ध क्रियाएं (शुभ क्रियामानसिक तनाव ) की जा सके। मानसिक तनावरहित शुभक्रियाएँ (शुद्ध क्रियाएँ) व्यक्ति व समाज दोनो के लिए हितकर हैं । यहाँ यह समझना चाहिए कि स्वतन्त्रता की माधना मे इच्छाओ का त्याग महत्वपूर्ण है । इच्छाओ के कारण व्यक्ति वस्तु को सक्तिपूर्वक अपनाना है, शुभ-अशुभ क्रियायो को भी प्रासक्तिपूर्वक करता है । इच्छारहित व्यक्ति ग्रामक्तिरहित होता है । अत वह शुभ क्रिया तथा प्रशुभ क्रियाओ को नही चाहता है। वह उनका नायक होता है ( 103, 110 ) | यदि उसको कोई जीवनोपयोगी वस्तु किसी के द्वारा छिन्न-भिन्न करदी जाती है तो दी जाती है, अथवा ले जाई जाती है श्रथवा वह सर्वनाश को प्राप्त हो जाती है या किसी कारण से दूर चली जाती है, तो भी उसे मानसिक तनाव नहीं होता है, क्योकि उसकी वस्तु सक्ति नही है (108) । स्वतन्त्रता का साधक सदैव पर वस्तु के ग्राश्रय-रहित होता है । वह स्वशासित रहता है, तथा जायक मत्ता मात्र बना रहता है ( 111 ) | 1 यहाँ प्रश्न है सावना मे वेष का क्या महत्व है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि वेष निश्चय ही परम शान्ति का मार्ग नही है (155) | लोक मे नाना प्रकार के साधुओ के वेप और गृहस्थोके वेष प्रचलित हैं। मूढ व्यक्ति किसी विशेष वेष को ही परम शान्ति / स्वतन्त्रता का मार्ग बताता है (154), किन्तु कोई भी वेष परमशान्ति / स्वतन्त्रता का मार्ग नही हो सकता है (156) | इसलिए समयसार का शिक्षण है कि गृहस्थो और साधुओ के द्वारा वारण किए हुए वेषो की बात को त्यागकर व्यक्ति को सम्यग्दर्शन (स्वतन्त्रता का स्मरण), सम्यक्ज्ञान (स्वतन्त्रता का ज्ञान) और XXIV ] समयसार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र (स्वतन्त्रता मे रमण) को आराधना करनी चाहिए (155, 157)। दूसरे शब्दो मे, वेप के आग्रह को त्यागकर व्यक्ति मोक्ष (स्वतन्त्रता) के पथ मे प्रात्मा को स्थापित करे, उसका ही ध्यान करे, उसका ही अनुभव करे और वहाँ ही सदा रहे (158) । जो लोग बहुत प्रकार के साधु-वेपो मे तथा गृहस्थ-वेषो मे ममत्व करते हैं, वे समयसार (प्रात्मानुभव/स्वतन्त्रता के अनुभव) से अनभिज्ञ है (159)। समयसार का शिक्षण है कि व्यवहारनय दोनो ही वेषो को स्वतन्त्रता की साधना मे उपयुक्त मानता है, किन्तु निश्चयनय किसी भी वेप को स्वतन्त्रता की साधना मे स्वीकृति प्रदान नहीं करता है (160) । पूर्णता का अनुभव उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ममयसार निश्चयनय और व्यवहारनय से विपय का प्रतिपादन करता है। निश्चयनय चेतना को स्वतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि है, और व्यवहारनय चेतना की परतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि है । ये दोनो ही बौद्धिक दृष्टियाँ हैं। किन्तु पूर्णता का अनुभव नयातीत है (60, 70) । वह बुद्धि से परे है। इसी अनुभव को हम जब दूसरो तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं, तो नयो का सहारा लेना पड़ता है। इसके अलावा हमारे पास कोई रास्ता भी तो नहीं है। इस रास्ते पर चलने से अनुभव की समग्रता खो जाती है, और वह खण्ड-खण्ड रूप में सामाजिक बन जाती है। सच तो यह है कि आत्मा (स्वतन्त्रता) मे स्थिर व्यक्ति दोनो नयो के कथनो को केवल जानता है । वह थोडी भी नयदृष्टि को ग्रहण नहीं करता है (69) | निस्सन्देह बुद्धि महत्वपूर्ण होती है, पर उसका महत्व सीमित रहता है। अनुभव के समक्ष वह निस्तेज बन जाती है। नयात्मक दृष्टि बुद्धि का कौशल है । चयनिका [ XXV Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु पूर्णता का अनुभवी व्यक्ति वुद्धि के चातुर्य को त्यागकर अनुभव की सीढी पर चढ जाता है। यहाँ हो पात्मानुभव को अखण्डता, अनन्तता और द्वन्द्वातोतता प्रकट होतो है। समयसार चयनिका के उपर्युक्त विपय-विवेचन से स्पष्ट है कि समयसार मे जीवन के आध्यत्मिक पक्ष की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है। इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन (समयसारचयनिका) पाठको के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। गाथाओ के हिन्दी अनुवाद को मूलानुगामी वनाने का प्रयास किया गया है। यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढने से ही शब्दो की विभक्तियां एव उनके अर्थ समझ मे आ जाएँ । अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है। कहाँ तक सफलता मिली है इसको तो पाठक हो वता सकेंगे। अनुवाद के अतिरिक्त गाथाभो का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन सकेतो का प्रयोग किया गया है, उनको सकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है। यह आशा की जाती है कि चयनिका के अध्ययन से प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सोखने मे सहायता मिलेगी तया व्याकरण के विभिन्न नियम सहज मे ही सोखे जा सकेंगे। यह सर्वविदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का जान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत गाथाएं एव उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दो के प्रयोग भो सोखने में मदद मिलेगी। शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनो ही भाषा सीखने के प्रावार होते हैं। अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठको के समक्ष हैं। पाठको के सुभाव मेरे लिए बहुत ही काम के होगे। XXVI ] समयसार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभार समयसार-चयनिका के लिए श्री बलभद्र जैन द्वारा सपादित समयसार के संस्करण का उपयोग किया गया है। इसके लिए श्री वलभद्र जैन के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। समयसार का यह सस्करण श्री कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली से सन् 1978 मे प्रकाशित हुआ है। मेरे विद्यार्थी डॉ. श्यामराव व्यास, सहायक प्रोफेसर, दर्शन-विभाग, सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर का आभारी हूँ, जिन्होने इस पुस्तक के अनुवाद एव इसकी प्रस्तावना को पढकर उपयोगी सुझाव दिए। डॉ हुकमचन्द जैन (जैन विद्या एव प्राकृत विभाग, सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर) डॉ सुभाष कोठारी तथा श्री सुरेश सिसोदिया (आगम, अहिंसा-समता एव प्राकृत सस्थान, उदयपुर) के सहयोग के लिए भी आभारी हूँ। मेरी धर्म-पत्नो श्रीमती कमला देवी सोगाणी ने इस पुस्तक की गाथाओ का मूल-ग्रन्थ से सहर्ष मिलान किया है तथा प्रूफ-सशोधन का कार्य रुचिपूर्वक किया है, अत मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ। इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराज जी मेहता तथा सयुक्त सचिव एव निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागर जी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। कमलचन्द सोगाणी एच-7, चितरजन मार्ग, 'सी' स्कीम, जयपुर-302001 (राज) चयनिका XXVII [ XXVII Page #36 --------------------------------------------------------------------------  Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार - चयनिका Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार - चयनिका 1 सुदपरिचिदाणुभूदा एयत्तस्सुवलंभो सव्वस्स वि कामभोगबघकहा । गवरि रग सुलहो विहत्तस्स ॥ 2 तं एयत्तविहत्त दाएह श्रप्पणी सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चुक्के ज्ज छलं ग घेत्तव्वं ॥ 3 जहा ण वि सक्कमरगज्जो प्ररणज्जभासं विरणा दु गाहेदु । तह यवहारेण विरणा परमत्युवदेसरगमसक्कं ॥ 2 1 4 ववहारोऽभूदत्थो सूदत्थो देसिदो दु सुद्धरणओ । सूदत्यमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥ समयसार Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-चयनिका काम-भोग (सासारिक विषमता) के निरुपण की कथा सव (मनुष्यो) के द्वारा निश्चय ही सुनी हुई (है), जानी हुई (है). (तथा) अनुभव की हुई (है), (किन्तु) केवल समतामयी अद्वितीयता का अनुभव ही सुलभ नहीं (हुआ है)। उस समतामयी अद्वितीयता को निज की स्व शक्ति से (मैं) प्रस्तुत करूँगा । यदि प्रस्तुत कर सकें, तो (वह) यथार्थ ज्ञान (होगा) (और) (यदि) चूक जाऊँ तो (समझना कि) अयथार्थता ग्रहण किये जाने योग्य नहीं होती है)। जैसे अनार्य (व्यक्ति) अनार्य भाषा के बिना पढने के लिए कभी समर्थ नही हुआ है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ (सर्वोच्च सत्य) का कथन सभव नही हुआ है। ( जीवन मे महत्वपूर्ण होते हुए भी) व्यवहारनय अवास्तविक है (और ) (अध्यात्म मार्ग मे ) शुद्धनय ही वास्तविक कहा गया (है) । वास्तविकता पर आश्रित जीव ही सम्यग्दृष्टि होता है। चयनिका [ 3 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सुद्धो सुद्धादेसो णादवो परमभावदरिसीहि । ववहारदेसिदा पुरण जे दु अपरमे ठिदा भावे ॥ 6 जो पस्सदि अप्पारण प्रबद्धपुछ अरगण्यं अविसेसमसजुत्त त सुद्धरणय रिणयदं । वियाणाहि ॥ 7 जो पस्सदि अप्पाण, अवद्धपुट्ठ अणण्णमविसेस । अपदेससुत्तमझ, पस्सदि जिणसासरण सव्वं ॥ 8 जह णाम को वि पुरिसो रायाण नारिणदूण सद्दहदि । तो त अणुचरदि पुरणो अत्थत्थीनो पयत्तेण ॥ 9 एव हि जीवराया रणादवो तह य सद्दहेदव्यो । ___ अणुचरिदवो य पुणो सो चेव दु मॉक्खकामेण ॥ 10 अहमेद एदमह अहमेदस्सेव होमि मम अण्णं ज परदव्व सच्चित्ताचित्तमिस्स एद । वा ॥ 4 ] समयसार Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 शुद्ध (आत्मा) का निरुपण शुद्धनय है, (जो) परम स्थिति को देखने वालो द्वारा (ही) समझा जाने योग्य (होता है)। और जो अ-परम स्थिति मे ठहरे हुए हैं (वे) ही व्यवहार के द्वारा उपदिष्ट (होते हैं)। जो (नय) आत्मा को स्थायो, अद्वितीय, (कर्मों के) वन्ध से रहित, (रागादि से) न छुआ हुआ, (अत्तरग) भेद से रहित, (तथा) (अन्य से) अमिश्रित देखता है, उसको (तुम) शुद्ध नय जानो। 7 जो (आत्मा को न बधी हई (तथा) (कर्मों के द्वारा) मलिन न की हुई समझता है, (जो) (इसके अनुभव को) अद्वितीय (ममझता है) और इसके अस्तित्व को (अन्तरगरूप से) भेदरहित (समझता है), (जो) (आत्मा को) क्षेत्ररहित, परिभाषारहित तथा मध्यरहित (समझता है), (वह) सम्पूर्ण जिन-शासन को समझता है। 8 जैसे कोई भी धन का इच्छक मनुष्य राजा को जानकर (उस पर) श्रद्धा करता है, और तब उसका बडी सावधानी पूर्वक अनुसरण करता है, 9 वैसे ही परम शान्ति के इच्छक (मनुष्य) के द्वारा आत्मारूपी राजा समझा जाना चाहिए तथा श्रद्धा किया जाना चाहिए और फिर निस्सन्देह वह ही अनुसरण किया जाना चाहिए। जोभी कोई चेतन, अचेतन, मिश्र(चेतन-अचेतन)अन्य पर द्रव्य है, (उसके विषय मे यदि कोई व्यक्ति सोचे कि) मैं यह (पर द्रव्य) हूँ, यह (पर द्रव्य) मैं (हूँ) मैं इसके लिए ही (हूँ) मेरे लिए यह (है, चयनिका [ 5 10 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 प्रासि मम पुज्वमेद अहमेदं चावि पुग्यकालम्हि । __ होहिदि पुणो वि मज्झ अहमेदं चावि होस्सामि ॥ 12 एवं तु असंभूदं आदवियप्प करेदि समूढो । भूदत्थ जाणतो ण करेदि दु तं असंमूढो । 13 ववहारणपो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ___ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एक्कट्ठो ॥ 14 तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होति केवलिणो । केवलिगुणे थुदि जो सो तच्चं फेवलि युणदि ।। 15 रगयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुरणे थुन्वते ण केवलिगुणा थुदा होति ॥ 16 जो इदिये जिगित्ता गाणसहावाधिय मुदि प्रावं । त खलु जिदिदियं ते भरणति जे णिच्छिदा साहू ॥ 6 ] समयसार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पहले यह (पर द्रव्य) मेरा था, फिर भी (यह) मेरे लिए होगा, पूर्वकाल मे भी मैं यह (पर द्रव्य) (था) (तथा) मैं भी यह (पर द्रव्य) होऊँगा, (तो वह अज्ञानी है)। 12 इस प्रकार से हो (जो) बिल्कुल अयथार्थ (मिथ्या) विकल्प को मन में विचारता है, (वह) अज्ञानी (है), और (जो) यथार्य को जानता हुआ उस (मिथ्या विकल्प) को मन मे नही विचारता है, (वह) ज्ञानी है । 13. व्यवहारनय कहता है (कि) जोव और देह एक (समान) होते हैं, परन्तु निश्चयनय के अनुसार) जीव और देह कभी एक (समान) पदार्थ नही (होते हैं)। 14 वह (केवलो/समतावान/तनाव-मुक्त के पुद्गलमय शरीर की) (स्तुति) निश्चग्दृष्टि से उपयुक्त नही होती है, क्योकि केवली के (आत्मानुभव मे) शरीर के गुण नहीं होते है । जो केवली (समतावान) के गुणो (आत्मानुभव की विशेषताओ) की स्तुति करता है, वह वास्तव मे केवली (समतावान) की स्तुति करता है। 15 जैसे नगर का वर्णन किया हुआ होने पर भी, राजा का वर्णन किया हुआ नही होता है, (वैसे ही) देह-विशिष्टताओ की स्तुति किए जाते हुए होने पर भी अरहत (शुद्ध आत्मा) की विशिष्टताएँ स्तुति की हुई नही होती है। 16 जो इन्द्रियासक्ति को जीतकर ज्ञानस्वभाव से अोतप्रोत आत्मा का अनुभव करता है, उस (व्यक्ति) को ही वे, जो पक्के साधु हैं, इन्द्रियो को जीतनेवाला कहते हैं। चयनिका [ 7 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिण ति जारिणदु मुदि । तह सम्वे परभावे रणादूण विमुञ्चदे गाणी ॥ 18 अहमेक्को खलु सुद्धो दसरणणाणमइयो सयारवी । ए वि अस्थि मज्झ किचि वि अण्ण परमाणुमेत्त पि । 19 एदे सम्वे भावा पॉग्गलदवपरिणामणिप्पण्णा । केवलिजिणेहि भरिणदा किह ते जीवो त्ति वुच्चति ॥ 20 अरसमरूवमगध अव्वत्त अलिगग्गहणं चेदणागुणमसद्द । जीवमरिणविसंठाणं ॥ जारण 21 जीवस्स पत्थि वण्णो ण वि गंधोरण वि रसोरण वि य फासो। ण वि रूव ण सरीरं ण वि संठाणं ण सहणणं ॥ 22 जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो व विज्जदे मोहो । णो पच्चया ण कम्म णोकम्म चावि से पत्थि ॥ 8 ] समयसार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. जैसे कोई भी मनुष्य, यह पर वस्तु है, इस प्रकार जानकर (उसको) छोड देता है, वैसे ही ज्ञानी (मनुष्य) सभी पर भावो को समझकर (उनको) त्याग देता है। 18 मैं अनुपम (हूँ), निश्चय हो शुद्ध (१), दर्शन-ज्ञानमय (हूँ), सदा अमूर्तिक (अतीन्द्रिय) हूं, इसलिए कुछ भी दूसरो (वस्तु) परमाणु मात्र भी मेरी नहीं है। 19 (जव) अरिहत द्वारा ये सभी (रागादि) भाव (कर्म)-पुद्गल द्रव्य के फल-स्वरूप उत्पन्न कहे गए (है) (तो) वे जीव (चेतन) (हैं), इस प्रकार कैसे कहे जाते हैं ? (यह समझ मे नही आता है)। 20 (यह) तुम जानो (कि) आत्मा रस-रहित, रूप-रहित, गधरहित, शब्द-रहित तथा अदृश्यमान (है), (उसका) स्वभाव चेतना (है),(उसका) ग्रहण विना किसी चिन्ह के (केवल अनुभव से)(होता है) और (उसका) आकार अप्रतिपादित (है)। 21. जीव मे (कोई) वर्ण नही (है), (उसमे) (कोई) गध भी नही है, (उसमे) (कोई) रस भी नही है, (उसमे) (कोई) स्पर्श भी नही (है), (उसमे) (कोई) शब्द भी नहीं (है), (उसका) (कोई) शरीर भी नही (है), (उसका) (कोई) आकार भी नही (है) (और) (उसमे) (किसी प्रकार की) अस्थि-रचना भी नहीं (है) । जीव मे राग नही है, (उसमें) द्वेष भी नही (हैं), न ही (उसमे) मोह (है), न (उसमे) ज्ञेय पदार्थ (है), न ही (उसमे) कर्म (है) और (उसके) शरीरादि (नोकर्म) भी नही है । चयनिका [ १ 22. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 एदेहि य सबधो जहेव खोरोदय मुरणेदव्वो । रण य होति तस्स तारिण दु उवयोगगुरणाषिगो जम्हा ॥ 24 पथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणति ववहारो । मुस्सदि एसो पंथो ण य पथो मुस्सदे कोई ॥ 25 तह जोवे कम्माण णोकम्माण च पस्सिदु वण्ण । जोवस्स एस वणो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥ 26 गधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य । सम्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ॥ 27 तत्थ भवे जीवाण ससारत्याण होति वण्णादी । ससारपमुक्काण पत्थि दु वण्णादो केई ॥ 28 जीवो चेव हि एदे सन्चे भाव ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य पत्थि विसेसो दु दे कोई ॥ 29 जाव ण वेदि विसेसंतर तु पादासवाण दोण्हं पि । अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो ॥ 10 ] समयसार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 इन (वर्णादि) के साथ (जीव का) मवध दूध और जल के समान (अस्थिर) समझा जाना चाहिए । वे (वर्णादि) उसमे (जीव मे) (स्थिररूप से) विल्कुल ही नही रहते है, क्योकि (जीव) तो ज्ञान-गुण से ओतप्रोत (होता है)। 24 मार्ग मे (व्यक्ति को) लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग कहते है (कि) यह मार्ग लूटा जाता है। किन्तु (वास्तव मे) कोई मार्ग लूटा नही जाता है, (लूटा तो व्यक्ति जाता है) । 25 उसी प्रकार जीव मे कर्म और नोकर्म से (उत्पन्न) बाह्य दिखाव-बनाव को देखकर, जिन के द्वारा कहा गया (है) (कि) यह दिखाव-बनाव व्यवहार से जीव का हो है। 26 जो गध, रस, स्पर्श और वर्ण (हैं), (जो) देह (है) तथा जो आकार आदि (है), (वे) सब व्यवहार से (जीव के) (जितेन्द्रियो द्वारा) कथित (है)। (ऐसा) निश्चय के जानकार कहते है। उस (व्यवहार) अवस्था मे ससार (मानसिक तनाव) मे स्थित जीवो के वर्ण आदि होते है, परन्तु ससार (मानसिक तनाव) से मुक्त (जीवो) मे किसी भी प्रकार का वर्ण आदि नही होता है। 28 यदि (तू) निश्चय से इस प्रकार मानता है (कि) (जीव की) ये सब अवस्थाएं निस्सदेह जीव ही (है), तो (तेरे लिए) जीव और अजीव मे कोई भेद ही नही रहेगा। जव तक (व्यक्ति) आत्मा व आश्रव (कर्मों/मानसिक तनावो की उत्पत्ति) दोनो के ही विशेष भेद को नही समझता है, तव तक वह अज्ञानी (व्यक्ति) क्रोधादि को ही करता रहताहै। 27 29 चयनिका [ 11 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 कोहादिसु चट्टतस्स तस्स कम्मस्स संचपो होदि । जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सम्वदरिसीहि ॥ 31 जइया इमेण जीवेण अप्पणो पासवारण य तहेव । गाद होदि विसेसंतर तु तइया रण बंधो से ॥ 32 रणादूण पासवारण असुचित्तं च विवरीदभाव च । दुक्खस्स कारणं ति य, तदो रिणयत्तिं कुरणदि जीवो ॥ 33 अहमेक्को खलु सुद्धो य णिम्ममो वारणसणसमग्गो । तम्हि ठिदो तच्चित्तो सन्चे एदे खय णेमि ॥ 34 जीवरिणबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा प्रसरणा य । दुक्खा दुक्खफला ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं ॥ 35 ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । णाणी जाणतो वि हु पोंगलकम्म अणेयविह ॥ 12 ] समयसार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 क्रोधादि को करते हुए उसके कम (मानसिक तनाव) का सचय होता है। इस प्रकार जीव के (कर्म) का बन्धन सवज्ञो द्वारा बताया गया (है)। जिम समय इस व्यक्ति के द्वारा आत्मा और पाश्रवो (कर्मों। मानसिक तनावो की उत्पत्ति) का विशिष्ट भेद (द्रष्टा भाव मे) जाना गया होता (हे), उस ममय उमके (कर्म) बन्ध (मानसिक तनाव) नही होता है। 32 आश्रवो (कर्मों/मानसिक तनावो की उत्पत्ति) की अमगलता और (उनको) (समताभाव से) विपरीत स्थिति को जान कर तथा (यह) (जानकर) (कि) (प्राथव) दुख (अशान्ति) का कारण (है), जीव उमसे दूर होने की क्रिया करता है । 33 में निश्चय ही अनुपम (हूँ), शुद्ध (हूँ), (अपने मूल रूप) मे प्रासक्तिरहित (हूँ) तथा (मै) ज्ञान-दर्शन से ओतप्रोत (हूँ) । (इसलिए) उसमे (ही) मन लगाया हुआ तथा उसमे ही ठहरा हुआ (मैं) इन मव (पाश्रवो मानसिक तनावो की उत्पति) का नाश करता हूँ। 34 ये (आश्रव/कर्म/मानसिक तनावो की उत्पत्ति) (यद्यपि) जीव से जुड़े हुए हैं, फिर भी (ये) अलग होने योग्य (होते हैं), (ये) अस्थिर हैं तथा (स्थायी) सहारे-रहित हैं । (ये) (स्वय) दुख (है) तथा दुख-परिणामवाले (हैं) । इस प्रकार जानकर (ज्ञानी) उनसे दूर हट जाता है। 35 निश्चय ही ज्ञानी अनेक प्रकार के पुद्गल-कर्म को (द्रष्टा भाव से) जानता हुआ (उस) पर द्रव्य की पर्याय मे कभी भी रूपान्तरित नहीं होता है, न (ही) (उसको) पकडता है और न (ही) (उसके साथ) आत्मसात् करता है। चयनिका [ 13 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 रग विपरिणमदि ग गिण्हदि उप्पज्जदि ग पर दव्वपन्जाए । गाणी जाणतो वि हु सगपरिणामं प्रणेयविह || 37 रंग वि परिरणमदि ग गिण्हदि उप्पज्जदि रग परदव्यपज्जाए । गाणी जाणंतो वि हू पोंग्गलकम्मफल प्रणतं ॥ 8 रण विपरिणमदिरा गिण्हदि उप्पज्जदि रग परदन्वपज्जाए । पॉग्गलदव्वं पि तहा परिणमदि सगेहि भावहि ॥ 39 जीव परिणामहेदु कम्मत्तं पोंग्गला परिणमति । पग्गलकम्मरिणमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ 10 ण वि कुव्र्वदि कम्मगुणे जीवो कम्म तहेव जीवगुणे । गोरिमित्तेरण दु परिरणामं जारण दोन्हं पि । 41 एदेरण कारणेरण दु कत्ता श्रादा सगेरण भावेरण । पग्गलकम्मकदाणं रण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ 14 1 समयसार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 निश्चय ही ज्ञानी (राग-द्वे पात्मक ) अनेक प्रकार के अपने भावो को (द्रष्टा भाव से) जानता हुआ पर द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न (शुद्ध) पर्यायो मे कभी भी रूपान्तरित नही होता है, न ( ही ) ( उनको) पकडता है और न ( ही ) ( उनके साथ) आत्मसात् करता है । 37 निश्चय ही ज्ञानी अन्नत पुद्गल - कर्म के फल को (द्रष्टा भाव से) जानता हुआ पर द्रव्यो के निमित्त से उत्पन्न ( फलरूप) पर्यायो मे कभी भी रूपान्तरित नही होता है, न ही ( उनको ) पकडता है और न ही ( उनके साथ) आत्मसात् करता है । 38 39 जीव के (राग-द्वेषात्मक) मनोभाव के कारण पुद्गल कर्मपने को प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार पुद्गल कर्म के कारण जीव भी ( राग-द्वेषात्मक रूप से) रूपान्तरित होता है । 40 उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी ( जीवरूपी) पर द्रव्य की पर्यायो मे न ही रूपान्तरित होता है, न ( ही ) उनको पकडता है तथा न (ही) (उनके साथ) श्रात्मसात् करता है । ( वह ) (तो) अपनी (ही) पर्यायो मे रूपान्तरित होता है । 41 जीव ( आत्मा ) (पुद्गल) कर्मरूप परिवर्तनो को कभी नही करता है, उसी प्रकार कर्म जीवरूप (चेतनरूप ) परिणामो को (कभी नही करता है), परन्तु परस्पर निमित्त से दोनो के ही परिणमन को (तुम) जानो । इस कारण से आत्मा (अपने मे ) अपने निजी भावो के ( उत्पन्न होने के कारण ही ( उनका ) कर्त्ता है, परन्तु [ 15 चयनिका Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 रिणच्छयरण्यस्स एवं आदा अप्पारणमेव हि करेदि । वेदयदि पुरषो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥ 43 ववहारस्स दु प्रादा पॉग्गलकम्म करेदि णेयविहं । तं चेव य वेदयदे पोग्गलकम्मं प्रणयविहं ॥ 44 जदि पॉग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि प्रादा । दोकिरियावदिरित्तो पसज्जदे सो जिरणावमदं ॥ 45 नं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स । कम्मत्त परिणमदे तम्हि सयं पॉग्गलं दत्व ॥ 46 परमप्पाण कुव्व अप्पाण पि य परं करंतो सो । अपणारणमनो जीवो फम्माणं कारगो होदि । 47 परमप्पारणम कुव अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो । सो पाएमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ॥ 16 ] समयसार Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल कर्म के द्वारा उत्पन्न किए हुए किसी भी भाव का (आत्मा) कर्ता नही है। निश्चयनय के (अनुसार) इस प्रकार (कहा गया है कि) आत्मा आत्मा (अपने भावो) को ही करता है, तथा आत्मा आत्मा (अपने भावो) कोही भोगता है,उसको ही (तुम)जानो। 43 विन्तु व्यवहारनय के (अनुसार) आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म को करता है, तथा (वह) उस अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म को ही भोगता है । 44 यदि आत्मा इस पुद्गल कम को (भी) करता है (तथा) उसको ही भोगता है (तो) वह दो (विभिन्न) क्रियाओ से अभिन्न (होता है) । (ऐसा सोचने से) (वह) जिन (के कथन) से विपरीत मत मे सलग्न होता है। 45 (अज्ञानी) आत्मा जिस भाव को उत्पन्न करता है, वह उस भाव का कर्ता होता है। उसके (कर्ता) होने पर पुद्गल द्रव्य अपने आप कर्मत्व को प्राप्त करता है। 46 पर (द्रव्य) को आत्मा मे ग्रहण करता हुआ तथा आत्मा को भी पर (द्रव्य) मे रखता हुआ जीव (मनुष्य) अज्ञानमय होता है। वह (अज्ञानी जीव ही) कर्मों का कर्ता (कहा जाता है) । पर (द्रव्य) को आत्मा मे ग्रहण न करता हुआ तथा आत्मा को भी पर (द्रव्य) मे न रखता हुआ जीव (मनुष्य) ज्ञानमय होता है। वह (ज्ञानी जीव ही) कर्मों का अकर्ता (कहा जाता है) । *1 मात्मा के द्वारा शुद्ध भावो को करना व भोगना तथा 2 पात्मा के द्वारा पुद्गल कर्म को करना व भोगना । - - चयनिका [ 17 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 एवं पराणि दन्वाणि अप्पय कुरणदि मंदबुद्धीप्रो । अप्पाण अवि य पर करेदि अण्णाणभावेण ॥ 49 एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविहि परिकहिदो । एवं खलु जो जागदि सो मुञ्चदि सव्यकत्तित्त ॥ 50 ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधादिदव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य गोकम्मारपीह विविहारिण ॥ 51 जदि सो परदवाणि य करेज्ज गियमेण तम्मनो होज्ज । जम्हा ण तम्मनो तेण सो ण तेसि हवदि कत्ता ॥ 52 जीवो ण करेदि घड व पडं णेव सेसगे दवे । जोगुवोगा उप्पादगा य तेसि हदि कत्ता ॥ 53 जे पोंग्गलदव्वाण परिणामा होति णाणप्रावरणा । ण करेदि ताणि प्रादा जो जाणदि सो हदि गाणी ॥ 18 ] समयसार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 इस प्रकार (मनुष्य) अज्ञान भाव के कारण पर द्रव्यो को आत्मा मे ग्रहण करता है और आत्मा को भी पर (द्रव्यो) मे रखता है। (सच है) मन्द बुद्धि (मनुष्य) (ऐसे ही होते हैं)। 49 इस (कारण) से ही वह आत्मा निश्चयनय के ज्ञाताओ द्वारा (अज्ञानो) कर्ती कहा गया है। इस प्रकार जो निश्चयपूर्वक जानता है वह सब (प्राकर से) कर्तृत्व को छोड देता है। 50. व्यवहार से ही (कहा गया है कि) आत्मा इस लोक मे घडा, कपडा, रथ आदि वस्तुओ को बनाता है, विविध क्रियाओ को (करता है), तथा (विविध) कर्मों को और (विविध) नोकर्मो को (उत्पन्न करता है)। । 51 यदि वह (आत्मा) पर द्रव्यो को करे (तो) नियम से (वह) तद्रूप हो जायेगा। चू कि (वह) तद्रूप नही होता है, इसलिए वह उनका कर्ता नही है। 52 जीव (आत्मा) घडे को नही बनाता है, न ही कपडे को (वनाता है) और न ही शेष वस्तुओ को (बनाता है)। (जोव) (अपने) योग और उपयोग के कारण तथा (उनका ही) उत्पन्न करनेवाला होने के कारण उनका ही कर्ता होता है। जो ज्ञान के प्रावरण (हैं), (वे) पुद्गल द्रव्यो के रूपान्तरण होते हैं। उनको आत्मा उत्पन्न नही करता है। (ऐसा) जो जानता है, वह ज्ञानी होता है। चयनिका [ 19 53 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ज भाव सुमसुह करेदि प्रादा स तस्स खलु कत्ता । त तस्स होदि कम्म सो तस्स दु वेदगो अप्पा || 55 जो जम्हि गुणो दव्वे सो प्रणम्हि दु र सक्रमदि दव्वे । सो प्रमसंकतो किह त परिणामए दव्व ॥ 56 दव्वगुरणस्स य प्रादा ग कुर्गादि पॉग्गलमयम्हि कम्महि । त उहयमकुव्वतो तम्हि कह तस्स सो कत्ता ॥ 57 जीवम्हि हेदुभूदे वधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जोवेर कद कम्म भण्ादि उवयारमेत्तेण ॥ 58 जोधेहि कदे जुद्धे रायेण कद त्ति जम्पदे लोगो । तह वबहारेरण कद राणावरणादि जोवेण ॥ 1 59 उप्पादेदि करेदि य बधदि परिणाम एदि गिण्हदि य श्रादा पोंगलदव्व ववहाररण्यस्स वत्तत्वं ॥ 20 ] समयसार Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 (अज्ञानी) श्रात्मा जिस शुभ-अशुभ भाव को करता है, वह उसका निस्सदेह कर्त्ता होता है, वह (भाव) उसका कर्म होता है, (तथा) वह आत्मा हो उसका भोक्ता होता है । 55 जो गुरण जिस द्रव्य मे ( होता है), वह निश्चय ही अन्य द्रव्य मे प्रवेश नही करता है, (जब ) वह ( गुरण) अन्य (द्रव्य) मे प्रविष्ट नही हुआ है, किस प्रकार उस (अन्य ) द्रव्य को परिणमन करायेगा ? (तो) 56 आत्मा पुद्गलमय कर्म मे 57 58 (स्वयं के ) द्रव्य और गुण को सर्वथा उत्पन्न नही करता है, (इसलिए ) उन दोनो को उसमे पुद्गल कर्म मे ) उत्पन्न न करता हुआ, वह उसका (पुद्गल कर्म का ) कर्त्ता कैसे होगा ? 59 जीव का निमित्त बना हुआ होने पर (कर्म) - बध के फल को देख कर, जीव के द्वारा कर्म किया गया है, (ऐसा ) उपचार मात्र से ( व्यवहार से ) कहा जाता है । योद्धा द्वारा युद्ध किया जाने पर, राजा के द्वारा ( युद्ध किया गया है) इस प्रकार लोक कहता है । उसी प्रकार व्यवहार से ( कहा जाता है कि) जीव के द्वारा ज्ञानावरणादि (कर्म) किया गया है । व्यवहारनय का (यह) कथन ( है कि ) श्रात्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, ( उसको ) परिणमन कराता है, ग्रहरण करता है और बाँधता है । चयनिका [ 21 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो ति पालविदो । तह जीवो ववहारा दम्वगुणुप्पादगो भणिदो ॥ 61 ज कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मरस । गारिणस्स दुणाणमनो अण्णाणमो प्रणारिणस्स ॥ 62 अण्णारणमनो भावो प्रणारिणो कुरणदि तेण कम्माणि । पारणमन्नो गाणिस्स दुण कुरणदि तम्हा दु कम्माणि ॥ 63 पाणमया भावादो णाणमनो चेव जायदे भावो । जम्हा तम्हा रणाणिस्स सच्चे भावा हु णाणमया ॥ 64 अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो । जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया प्रणाणिस्स ॥ 65 कणयमया भावादो जायते कुडलादयो भावा । प्रयमयया भावादो जह जायते दु कडयादी ॥ 66 अण्णाणमया भावा प्रणाणिणो वहुविहा वि जायते । पारिपस्स दु णाएमया सवे भावा तहा होति ॥ 22 ] समयसार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 जैसे राजा व्यवहार के कारण ( जनता मे) दोष और गुणो को उत्पन्न करने वाला कहा गया है, वैसे ही जीव (भी) व्यवहार के कारण (पुद्गल) द्रव्य और ( उसके ) गुणो को उत्पन्न करने वाला कहा गया है । 61. आत्मा जिस भाव को (अपने मे) उत्पन्न करता है, वह उस (भाव) कर्म का कर्त्ता होता है । ज्ञानी का ( यह भाव) ज्ञानमय ( होता है) और अज्ञानी का ( यह भाव ) अज्ञानमय होता है । 62 (चू कि) अज्ञानी के अज्ञानमय भाव (होता है) इसलिए ( वह) कर्मों को ग्रहण करता है, परन्तु ज्ञानी के ज्ञानमय (भाव) (होता है), इसलिए ( वह) कर्मों को ग्रहण नही करता है । 63 चूँकि ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है, इसलिए ज्ञानी के सब भाव ही ज्ञानमय (होते हैं) । 64 चूँकि अज्ञानमय भाव से अज्ञान (मय) भाव ही उत्पन्न होता है, इसलिए अज्ञानी के अज्ञानमय भाव (होते हैं) । 65. जैसे कनकमय वस्तु से कुण्डल श्रादि वस्तुएं उत्पन्न होती हैं और लोहमय वस्तु से कडे आदि उत्पन्न होते हैं, 66 वैसे ही श्रज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते हैं तथा ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं । चयनिका [ 23 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 जोवे कम्म बद्ध पुटु चेदि ववहाररणयभरिगद | सुद्धरणयस्स दु जीवे श्रबद्धपुट्ठ हवदि कम्मं ॥ 68 कम्मं बद्धमवद्ध जीवे एद तु जारण गयपक्खं । यपक्खातिक्कतो भण्ादि जो सो समयसारो ॥ 69 दॉण्ह वि णयाण भणिद जाणदि णवरि तु समयपडिवद्धो । रग दु गयपक्ख गिण्हदि किचि वि रायपक्खपरिहीणो ॥ 70 सम्मद्दसरगरगाण एसो लहदि त्ति णवरि ववदेस " सव्वरणय पक्खरहिदो भरिदो जो सो समयसारो ॥ 71 कम्मसुहं कुसील सुहकम्म चावि जागह सुसील । किह त होदि सुसील ज संसारं पवेसेदि ॥ 1 72 सोवण्णिय पि रियल बघदि कालायसं पि जह पुरिस बधदि एव जीव सुहमसुह वा कदं कम्म 11 24 ] समयसार Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 67 जीव के द्वारा कर्म बांधा हुआ (है) और पकडा हुअा (है) इस प्रकार (यह) व्यवहारनय द्वारा कहा गया है, किन्तु शुद्धनय के (अनुसार) जीव के द्वारा कर्म न बाँधा हुआ (और) न पकडा हुआ होता है । जीव के द्वारा कर्म बाँधा गया (है) और नही बाँधा गया (है)-इसको तो (तुम) नय की दृष्टि जानो, किन्तु जो नय की दृष्टि से अतीत (है) वह समयसार (शुद्ध आत्मा) कहा गया (है)। 69 आत्मा मे स्थिर (व्यक्ति) तो दोनो ही नयो के कथन को केवल जानता है। वह थोडी भी नय-दृष्टि को ग्रहण नही करता है । (इस तरह से) (वह) नय-दृष्टि से रहित होता है। 70 जो सब नय-दृष्टि से रहित कहा गया है, वह समयसार है। केवल यह (समयसार हो) सम्यकदर्शन-ज्ञान इस प्रकार नाम को प्राप्त करता है। अशुभ कर्म (क्रिया) दुरी प्रकृतिवाली (अनुचित) और शुभ कर्म (क्रिया) अच्छी प्रकृतिवाली (उचित) (होती है)। (ऐसा) तुम (सव) समझो। (किन्तु) (आश्चर्य |) जो (क्रिया) ससार (मानसिक तनाव) मे प्रवेश कराती है, वह अच्छी प्रकृतिवाली (उचित) कैसे रहती है ? 72 जैसे काले लोहे से बनी हुई वेडो व्यक्ति को बाँधती है और सोने की (वेडी) भी (व्यक्ति को) (बाँधती है), वैसे ही (जीव के द्वारा) किया हा (मानसिक तनावात्मक) शुभ-अशुभ कर्म भी जीव को बाँधता है। चयनिका [ 25 71 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 तम्हा दु कुसोलेहि य राग मा काहि मा व मसग्गि । साधोगो हि विणासो कुसीलसमग्गिरागेणे ॥ 74 जह णाम को वि पुरिसो कुच्छियमील जण वियारिणता । वज्जेदि तेरण समय ससग्गि रागकरण च ॥ 75 एमेव कम्मपयडो सोलसहाव हि कुच्छिद जादु । वज्जति परिहरति य त सग्गि सहावरदा ॥ 76 रत्तो बदि कम्म मुञ्चदि जीवो विरागसपण्णो । एसो जिपोवदेसो तम्हा कम्मेस मा रज्ज ॥ 77 परमट्ठो खलु समयो सुद्धो जो केवली मुरणी गाणी । तम्हि द्विदा सहावे मुरिगणो पावंति रिणवाणं ॥ 78 परमम्मि दु अठिदो जो कुरणदि तवं वदं च धारयदि । त सव्वं बालतव वालवदं विति सव्वण्हू ॥ 26 ] समयसार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 इसलिए तो ( दोनो) कुशीलो ( मानसिक तनाव उत्पन्न करनेवाले कर्मों) के साथ बिल्कुल राग मत करो और (उनके साथ) सम्पर्क ( भी ) मत ( रक्खो), क्योकि (आत्मा का) स्वतन्त्र (स्वभाव) कुशीलो के साथ सम्पर्क और (उनके साथ) राग से व्यर्थ ( हो जाता है) । 74 75 76 77 जैसे कोई व्यक्ति निन्दित आचरणवाले मनुष्य को जानकर उसके साथ ससर्ग को और राग करने को छोड देता है, वैसा ही (पुद्गल ) - कर्म का स्वभाव ( समझा गया है) । उसकी निन्दित व्यवहार - प्रकृति को निश्चय ही जानकर स्वभाव मे लीन (व्यक्ति) उसके साथ को छोड देते हैं और उसके साथ) (राग -क्रिया को ) (भी) तज देते हैं । आसक्त (जीव ) कर्मों को बाँधता है, अनासक्ति से युक्त जीव (कर्मो को छोड देता है । यह जिन - उपदेश है । इसलिए कर्मों मे श्रासक्त मत होवो । जो शुद्ध श्रात्मा (है), (वह) निश्चय ही वास्तविकता है । (ऐसी) (आत्मा) (ही) पूर्ण रागद्वेषरहित, मुनि और ज्ञानी ( कही जाती है) । उस वास्तविकता मे ठहरे हुए मुनि (ज्ञानी) परम शान्ति प्राप्त करते हैं । उस 78. जो (व्यक्ति) शुद्ध श्रात्मा पर (तो) निर्भर नही है, किन्तु ( वह) (बाह्य) तप और व्रत धारण करता है । ( धारण करने को) केवलज्ञानी अबोध तप और अबोध व्रत कहते हैं । चयनिका [27 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 वरिणयमाणि धरता सोलाणि तहा तव च कुव्वता । परमवाहिरा जे णिवाण ते ण विदति ॥ 80 परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्यमिच्छति । सससारगमणहेदु वि मॉवखहेद प्रयाणता ॥ 81 जोवादोसद्दहण मम्मत्त रागादोपरिहरण चरण तेनिमधिगमो णाण । एसो दु मॉक्खपहो ॥ 82 मोंत्तूण णिच्छयट्ठ ववहारेण विदुसा पवट्ठति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदोण कम्मक्खनो होदि ॥ 83 वत्थस्स सेदभावो जह णासदि मलविमेलनाच्छण्णो । मिच्छत्तमलोच्छण्ण तह सम्मत्त खु रणादव ॥ 84 वत्यस्स सेदभावो जह पासदि मलविमेलणाच्छण्णो । अण्णाणमलोच्छण्ण तह गाणं होदि णादव ॥ 281 समयसार Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 80 81 82 83 84 व्रत और नियमो को धारण करते हुए तथा शीलो और तप का पालन करते हुए जो (व्यक्ति) परमार्थ (शुद्ध आत्मतत्व) से अपरिचित ( है ) वे परम शान्ति को प्राप्त नही करते हैं । जो (व्यक्ति) शुद्ध ग्रात्मा मे अपरिचित ( हैं ), वे प्रज्ञान से ससार-गमन (मानसिक तनाव। के हेतु पुण्य को चाहते है और मोक्ष (तनाव मुक्तता / स्वतन्त्रता / समता) के हेतु को न समझते हुए (जीते रहते हैं) । जीवादि मे श्रद्धान सम्यक्तव ( है ), उनका (ही) ज्ञान (सम्यक् ) ज्ञान (है), (तथा) रागदि का त्याग ( सम्यक् ) चारित्र ( है ) | यह ही शान्ति का पथ है । विद्वान (लौकिक विद्याओ मे निपुण) (व्यक्ति) निश्चय की सार्थकता को छोडकर व्यवहार मे प्रवृत्ति करते है। ( सच तो यह है कि ) परमार्थ का अभ्यास करनेवाले योगियों के ही कर्मो का क्षय होता है । जिस प्रकार मैल के घने सयोग से ढकी हुई वस्त्र की मफेद अवस्था अदृश्य हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व - (मूच्छ) रूपी मैल से लोप किया गया सम्यक्तव (जागृति ) ( अदृश्य हो जाता है) । (यह) निश्चय ही समझा जाना चाहिए । जिस प्रकार मैल के घने सयोग से ढकी हुई वस्त्र की सफेद ग्रवस्था दृश्य हो जाती है, उसी प्रकार अज्ञानरूपी मैल से लोप किया गया ज्ञान ( अदृश्य हो जाता है) । (यह ) समझा जाना चाहिए । चयनिका [ 29 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 वत्थस्स सेदभावो जह णासदि मलविमेलणाच्छरणो । कस्सायमलोच्छण्ण तह चारित्त पि णादव ॥ 86 सो सव्वणाणदरिसी कम्मरयेण णिएगावच्छण्णो । ससारसमावण्णो ण विजारणदि सव्वदो सव ॥ 87 रणत्थि दु पासववधो सम्मादिहिस्स आसवरिणरोहो । सते पुत्वरिणबद्धे जागदि सो ते अवधतो ॥ 88 भावो रागादिजुदो जोवेण कदो दु बंधगो होदि । रागादिविप्पमुक्को प्रबंधगो जाणगो एवरि ॥ 89 पक्के फलम्मि पडिदे जह ण फलं बज्झदे पुणो विटे । जीवस्स कम्मभावे पडिदे ण पुणोदयमुवेदि ॥ 30 ] समयसार Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 जिस प्रकार मैल के धने सयोग से ढकी हुई वस्त्र की सफेद अवस्था अदृश्य हो जाती है, उसी प्रकार कषाय के मैल से लोप किया गया (स्वरूपाचरण) चारित्र (अदृश्य हो जाता है)। (यह) समझा जाना चाहिए । 86 वह (आत्मा) पूर्ण ज्ञान से देखने वाला है। (फिर भी खेद है कि) (वह) अपने द्वारा (अजित) कर्मरूपी रज से ही आच्छादित है (तथा) (उसके द्वारा) ससार (मानसिक तनाव) प्राप्त किया गया (है), (इसलिए) (वह) (अव) किसी भी (पदार्थ) को पूर्ण रूप से नही जानता है । 87 सम्मन्दष्टि के (जीवन मे) पाश्रव (कर्म/नये मानसिक तनाव की उत्पत्ति) का नियन्त्रण हो जाता है। इसलिए उसके आश्रव से उत्पन्न वध (अशान्ति) नही होता है । वह उनको (नवीन कर्मो को) न बांधता हुआ (जीता है) । वह पूर्व में बाँधे हुए विद्यमान (कर्मों) को केवल (दृष्टा-भाव से) जानता है। 88 जोव के द्वारा किया हुआ रागादियुक्त भाव ही कर्म-बन्ध करनेवाला होता है, (किन्तु) रागादि से रहित (भाव) कर्म-बन्ध करनेवाला नही (होता है) । (वह) (तो) केवल जायक (होता हैं)। 89 पक्के फल के गिरे हुए होने पर जैसे (वह) फल फिर से डठल पर नही वाँधा जाता है, (उसी प्रकार) जीव के कर्म-भाव के गिरे हुए होने पर (जीव के कर्म) फिर से उदय को प्राप्त नहीं होते हैं । [ 31 चयनिका Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 रागो दोसो मोहो प प्रासवा गत्यि सम्मदिदिठस्स । तम्हा पासवभावेण विणा हेदू पच्चया होति ॥ 91 उवनोगे उवभोगो कोहादिसु पत्थि को वि उवयोगो । कोहे कोहो चेव हि उवोगे णत्यि खलु कोहो ॥ 92 एद तु अविवरोद गाण जइया दु होदि जीवस्स । तइया ण किंचि कुवदि भावं उवयोगसुद्धप्पा ॥ 93 जह करणयमग्गितविय पि करण्यसहाव ण त परिच्चयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णारिणत्त ॥ 94 एव जारणदि गाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं । अण्णाणतमोच्छण्ण पादसहावं अयाणतो ॥ 95 सुद्ध तु वियातो विसुद्धमेवप्पा लहदि जीवो । जाणतो दु असुद्ध असुद्धमेवप्पय लहदि ॥ 32 ] समयसार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 सम्यग्दृष्टि के जीवन मे (नये) राग-द्वेष (आसक्ति) और मोह (मूर्छा) नही (होते हैं)। इसलिए (उसके) आश्रव (नये मानसिक तनावो की उत्पत्ति) (नही होता है)। प्राश्रव को (उत्पन्न करनेवाले) मनोभाव के बिना प्रत्यय (सत्ता मे विद्यमान कर्म) (प्राश्रव का) हेतु नही होते हैं। 91 (शुद्ध) ज्ञानात्मक चेतना (शुद्ध) ज्ञानात्मक चेतना मे ही (रहती है)। क्रोधादि (कषायो) मे किंचित भी ज्ञानात्मक चेतना (नही रहती है)। क्रोध क्रोध मे ही (रहता है)। इसलिए ज्ञानात्मक चेतना मे क्रोध बिलकुल ही नही रहता है। जिस समय व्यक्ति के (जीवन मे) यह सम्यक् ज्ञान सचमुच उत्पन्न होता है, उस समय ज्ञान (समत्व) के द्वारा शुद्ध हुआ व्यक्ति कोई भी (शुभ-अशुभ) भाव उत्पन्न नही करता है। 92 93 जैसे आग मे तपाया हया सोना भी (अपने) कनक-स्वभाव को नही छोडता हैं, वैसे ही कर्म के उदय से तपाया हुआ ज्ञानी भी (अपने) ज्ञानीपन को नहीं छोडता है। इस प्रकार ज्ञानी समझता है। (किन्तु) अज्ञानी अज्ञानरूपी अधकार से लोप किए गए आत्म-स्वभाव को न जानता हुआ राग और आत्मा को (एक) ही मानता है । 94 95 शुद्ध (प्रात्मा) को जानता हुमा व्यक्ति शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है तथा अशुद्ध (आत्मा) को जानता हुआ (व्यक्ति) अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। चयनिका [ 33 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 अप्पाणमप्परगा रु घिदूरण दोपुण्यपावजोगेसु । दसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि ॥ 97 जो सव्वसगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणा अप्पा । ण वि कम्म पोकम्म चेदा चितेदि एयत्तं ॥ 98 अप्पाण झागतो दसणणाणमइयो अणण्णमयो । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ॥ 99 जह विसमुवभुज्जतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पॉग्गलकम्मस्सुदय तह भुजदि रणेव बज्झदे गाणी ॥ 100 सेगतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो को वि । पगरणचेदा कस्स वि ग य पायरपो ति सो होदि ॥ 34 ] समयसार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 96 जो व्यक्ति आत्मा को प्रात्मा के द्वारा शुभ-अशुभ दो 97 क्रियाओ से रोककर दर्शन-ज्ञान मे ठहरा हुआ (है), और (जो) अन्य मे इच्छा से विरत (होता है), तथा (जो) ममस्त प्रासक्ति से रहित (रहता है), (जो) आत्मा के द्वारा आत्मा का ध्यान करता है तथा अनुपमता (शुद्ध आत्मा) का चिन्तन करता है, किन्तु कर्म और नोकर्म का कभी भी नही, जो दर्शन-ज्ञान से ओतप्रोत (तथा) अनुपम (स्वभाव) से युक्त (होता है), वह (ही) (व्यक्ति) आत्मा का ध्यान करता हुआ कर्मों से रहित आत्मा को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। 99 जैसे वैद्य (आयुर्वेद से सबधित) पुरुष (जिसके द्वारा) विप खाया जाता हुआ (है), (विष-नाशक प्रक्रिया करने के कारण) मरण को प्राप्त नही होता है, वैसे ही (जो) ज्ञानी पुद्गल कर्म के उदय को (अनासक्तिपूर्वक) भोगता है (वह) (कर्मों से) नही बाँधा जाता है । 100 (सुखो के लिए वस्तुप्रो को) उपयोग मे लाते हुए भी (अनासक्ति के कारण) कोई (व्यक्ति) (तो) (उन पर) आश्रित नही होता है (और परम शान्ति प्राप्त कर लेता है), (किन्तु) (उनको) उपयोग मे न लाते हुए भी (कोई) (व्यक्ति) (आसक्ति के कारण) (उन पर) आश्रित (रहता है) (और) (परम शान्ति प्राप्त नही कर पाता है) । (ठीक ही है) किसी के लिए (किए गए) श्रेष्ठ कार्य के प्रयास के कारण भी (आसक्ति के कारण) वह (कोई) (व्यक्ति) (उस) श्रेष्ठ कार्य से (दृढ रूप से) सबधित नही होता है। (अत. कहा जा सकता है कि आसक्ति के कारण ही वस्तुओ से सबध जुडता है, जीव के कर्म-बन्धन होता है और उसमे अशान्ति पैदा होती है)। चयनिका 35 ] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 उदयविवागो विविहो कम्माण वण्णिदो जिरणवरेहि । हु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ॥ 102 एवं सम्मादिट्ठी अप्पाण मुरादि जाणगसहाव । उदय कम्मविवाग च मुयदि तच्च वियाणंतो ॥ 103 परमाणुमेत्तय पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स । ए वि सो जारणदि अप्पारण्य तु सवागमधरो वि ॥ 104 अप्पारणमयाणतो अणप्पय चावि सो प्रयाणतो । किह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ॥ 105 गाणगुणेरण विहीणा एद तु पद बहू वि रण लहंति । त गिण्ह रिणयदमेद जदि इच्छसि कम्मपरिमॉक्खं ॥ 106 एदम्हि रदो पिच्चं सतुठो होहि रिगच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥ 107 मज्भं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छे ज्ज । पादेव अह जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्म ॥ 36 ] समयसार Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 जितेन्द्रियो द्वारा कर्मों के उदय का अनेक प्रकार का फल बताया गया (है)। वे निश्चय ही मेरे स्वभाव नहीं (हैं)। मैं तो केवल ज्ञातक सत्ता (हूँ) । 102 इस प्रकार सम्यग्दृष्टि (व्यक्ति) आत्मा को (और उसके) ज्ञायक स्वभाव को जानता है, और (इसलिए) (वह) (प्रात्म)-तत्व को जानता हुआ कर्म-विपाक (और उसके) उदय को त्याग देता है। 103 निस्सदेह जिसके रागादि (भावो) का अश मात्र भी विद्य मान होता है, (वह) (यदि) सर्व आगम का धारक भी (है), तो भी (वह) प्रात्मा को नही जानता हैं । 104 (यदि) वह आत्मा को न जानता हुआ तथा अनात्मा को भी न जानता हया (है), (तो) (इस तरह से) जीव और अजीव को न जानता हुआ, सम्यग्दृष्टि कैसे होगा? 105 अत ज्ञान-गुरण से रहित होने के कारण अत्यधिक (व्यक्ति) इस जान पद को प्राप्त नही करते हैं। इसलिए यदि (तुम) कर्म से छुटकारा चाहते हो, (तो) इस स्थिर (ज्ञान) को ग्रहण करो। 106 इसमे (ही) (तू) सदा सलग्न (रह), इसमे (ही) सदा सतुष्ट हो, (और) इससे (ही) (तू) तृप्त हो, (ऐसा करने से) तुझे उत्तम सुख होगा। 107 यदि परिग्रह मेरा (है), तव (तो) मैं अजीवता को ही प्राप्त हो जाऊंगा। चू कि मै ज्ञाता ही (हूँ), इसलिए परिग्रह मेरा नहीं है। चयनिका 37 ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 छिज्जदु वा भिज्जदु वा रिगज्जदु वा ग्रहव जादु विप्पलय । जम्हा तम्हा गच्छदु तहावि रंग परिग्गहो मज्झ ॥ 109 अपरिग्गहो णिच्छो भरिणदो गारणी य रच्छदे धम्मं । परिग्गहो दु धम्मस्स जागगो तेण सो होदि || 110 अपरिग्गहो अरिणच्छो भरिणदो गारणी य णेंच्छदि श्रधम्मं । अपरिग्गहो प्रधम्मस्स जागो तेण सो होदि ॥ 111 एमादिए दु विविहे सच्चे जागगभावो गियदो भावे य णेंच्छदे गाणी । णोरालंबो दु सव्वत्य ॥ 112 णाणी रागप्पजहो हि सव्वदव्वेसु णो लिप्पदि रजएण दु मम 38 ] कम्ममज्भगदो । जहा कणयं ॥ समयसार Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 (मेरी कहलाने वाली वस्तु) (किसी के द्वारा छिन्न-भिन्न कर दी जाए, तोड दी जाए अथवा ले जाई जावे अथवा वह सर्वनाश को प्राप्त हो जाए या किसी कारण से (मेरे से) दूर चली जाए, तो भी (कोई बात नही है ), ( क्योकि ) (कोई भी) परिग्रह (वस्तुत ) मेरा ( नही है ) । 109 इच्छारहित व्यक्ति परिग्रहरहित कहा गया ( है ) | इसलिए ( ऐसा ) ज्ञानी धर्म ( शुभ भाव / शुभ मानसिक तनाव ) को भी नही चाहता है । वह परिग्रहरहित (व्यक्ति) तो ( शुभ भाव / शुभ मानसिक तनाव का ) ज्ञायक होता है । 110 इच्छारहित (व्यक्ति) परिग्रहरहित कहा गया ( है ) । इसलिए ( ऐसा ) ज्ञानी धर्मं (अशुभ भाव / अशुभ मानसिक तनाव ) को भी नही चाहता है । वह परिग्रहरहित (व्यक्ति) अधर्म का नायक होता है । 111 इस प्रकार नाना प्रकार को समस्त जीवनोपयोगी वस्तुओ को ज्ञानी नही चाहता है । वह हर समय ( पर के) आश्रयरहित (होता है) । ( वह ) स्वणामित ( रहता है) तथा ज्ञायक सत्तामात्र बना रहता है । 1 112 निश्चय ही ज्ञानी सब वस्तुओं मे राग का त्यागी (होता है) । अत कर्म के मध्य मे फसा हुआ भी ( कर्मरूपी) रज के द्वारा मलिन नही किया जाता है, जिस प्रकार कनक कीचड के मध्य मे ( पडा हुआ) ( मलिन नही किया जाता है) । चयनिका [ 39 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 अण्णाणी पुरण रत्तो हि सम्बदम्वेसु कम्ममझगदो । लिप्पदि कम्मरयेण दु कद्दममझे जहा लोह ॥ 114 भुनंतस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दब्वे । सखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो का ॥ 115 तह णारिणस्स दु विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दब्वे । भुजंतस्स वि गाणं रण सक्कमण्णाणदं णेदु । 116 जइया स एव संखो सेदसहावं सयं पजहिदूरण । गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ।। 117 तह गाणी वि हु जइया णासहावं सयं पहिदूरण । अण्णाणण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे । 118 सम्मादिही जीवा हिस्संका होति णिन्भया तेण । सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ॥ 40 ] समयसार Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 और निस्सदह अज्ञानी सब वस्तुओ मे आसक्त (होता है)। अत कर्म के मध्य मे फंसा हुआ कर्मरूपी रज से मलिन किया जाता है, जिस प्रकार कीचड मे (पडा हुआ) लोहा (मलिन किया जाता है)। 114. नाना प्रकार की सचित्त, अचित्त और मिश्रित वस्तुप्रो को खाते हुए भो शख की श्वेत पर्याय काली (पर्याय) कभी भी नही की जा सकती है। 115. उसी प्रकार अनेक प्रकार की सचित्त, अचित्त और मिश्रित वस्तुओ को भोगते हुए ज्ञानी का भी ज्ञान अज्ञान मे बदलने के लिए सभव नही किया गया है। 116 जव वह ही शख श्वेत पर्याय को स्वय (ही) छोडकर कृष्ण पर्याय को प्राप्त करता है, तब (वह) (ही) शुक्लत्व को छोड देता है। 117 निश्चय ही उसी प्रकार ज्ञानी भी जब ज्ञान-स्वभाव को स्वय ही छोडकर अज्ञान के द्वारा परिवर्तित (होता है), तव अज्ञान भाव को प्राप्त हो जाता है। 118. सम्यग्दृष्टि जीव (अध्यात्म मे) शकारहित होते हैं, इस लिए (वे) निर्भय (होते हैं), चूकि (सम्यग्दृष्टि जीव) सात (प्रकार के भयो से मुक्त (होते है), इसलिए निश्चय ही (वे) (अध्यात्म मे) शका-रहित (होते हैं)। * लोक-भय, परमोक-भय, मरक्षा भय, अगुप्ति-भय (सयम हीन होने का भय), मृत्यु-भय, वेदना-भय, मौर अकस्मात-भय । [ 41 चयनिका Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 जो दु ण करेदि कखं कम्मफले तह य मन्वधम्मसु । सो रिणक्कखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदवो ॥ 120 जो ए करेदि दुगुञ्छं चेदा सम्वेसिमेव धम्माण । सो खलु णिन्विदिगिञ्छो सम्भाविट्ठी मुरणेदवो ॥ 121 जो हवदि असम्मूढो चेदा सहिटि सवभावेसु । सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्यो । 122 जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहरणगो दु सन्वधम्माण । ___ सो उवगृहणगारी सम्माविट्ठी मुणेदव्वो ॥ 123 उम्मग्ग गच्छत सग पि मग्गे ठवेदि जो चेदा । सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुदण्वो ॥ 124 जो कुरादि वच्छलत्तं तिण्ह साहूण मॉक्खमग्गम्मि । सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुरणेदवो ॥ 42 ] समयसार Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 जो किसी भी शुभ मनोवृत्ति से (लौकिक फल प्राप्ति की) चाहना नहीं करता है तथा (उनसे उत्पन्न) कर्म-फलो को भी (नहीं चाहता है, वह व्यक्ति नि काम सम्यग्दृष्टि समझा जाना चाहिए। 120 जो व्यक्ति किसी भी (सेवा) कर्तव्य के प्रति घृणा नहीं करता है, वह निश्चय ही निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि समझा जाना चाहिए। 121 जो व्यक्ति सभी (शुभ) मनोवृत्तियो मे मूढतारहित (होता है) तथा (उनमे) उचित दृष्टिवाला होता है, वह निश्चय ही अमूढप्टि सम्यग्दृष्टि समझा जाना चाहिए। 122 जो (व्यक्ति) शुद्धात्मा की श्रद्धा से युक्त (है) और (अपने द्वारा किए गए) (दूसरो की) सभी भलाई के कार्यों को ढकनेवाला है, वह उपगृहनकारी सम्यग्दृष्टि समझा जाना चाहिए। 123. जो मनुष्य उन्मार्ग मे जाते हुए स्वय को सद्मार्ग मे स्थापित करता है, वह स्थितिकरण से युक्त सम्यग्दृष्टि समझा जाना चाहिए। 124 जो (मनुष्य) मोक्ष (परम शान्ति) के मार्ग में स्थित तीन* (प्रकार के) साघुरो के प्रति वात्सल्यता को प्रकट करता है, वह वात्सल्य भाव युक्त सम्यग्दृष्टि समझा जाना चाहिए। * भाचार्य, उपाध्याय, साधु । ( चयनिका ३ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 विज्जार हमारूढो मरणोरहपहेसु भमइ जिणणाणपहावी सो सम्मादिठी 126 जह णाम को विपुरिसो नेहभत्तो दु रेणुबहूलम्मि । ठाणम्मि ठाइदूरण य करेदि सत्येहि वायामं ॥ 127 छिदिभिदि य तहा तालोतलकय लिवंसपिडीओो । सच्चित्ताचित्ताण करेदि दवाणसुवाद | कुब्वंतस्स तस्स णिच्छयदो चितेज्ज हु कि 128 उवधाद जो चेदा । मुरदव्व ॥ णाणाविहेहि करणेहि । पच्चयगो दु रथबंधो ॥ 129 जो सो दु णेहभावो तम्हि गरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विष्णेयं ण कायचेद्वाहि सेसाहि ॥ 44 ] 130 एवं मिच्छादिट्ठी बट्टतो बहुविहासु चिट्ठासु । रायादी उपभोगे कुव्वंतो लिप्पदि रयेण ॥ समयसार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 जो मनुष्य अध्यात्म-ज्ञान रूपी रथ पर बैठा हुआ सकल्प रूपी नायक के द्वारा (विभिन्न मार्गों (स्थानो) पर भ्रमण करता है, वह अरहत (समतादशी) द्वारा प्रतिपादित ज्ञान की महिमा करनेवाला सम्यग्दृष्टि ममझा जाना चाहिए । 126 जैसे कोई व्यक्ति (शरीर पर) चिकनाई से युक्त हुआ बहुत 127. धूल वाले स्थान पर रहकर (नाना प्रकार के) शस्त्रो द्वारा चेष्टा करता है तथा (उनके द्वारा) ताड, पहाडी ताड, केले, बाँस और खजूर के वृक्षो को छेदता है तथा भेदता है, सचित्त और अचित वस्तुओ का नाश करता है। 128 नाना प्रकार के साधनो से (वृक्षो का) नाश करते हुए उसके निश्चय ही धूल का सयोग (होता है)। (इसका) क्या आधार है ? (इस) (पर) निश्चय-दृष्टि से हमे विचार करना चाहिए। 129 जो उस मनुष्य पर चिकनाई का अस्तित्व है, उस कारण से उम (मनुष्य) के वह धूल-सयोग (होता है) । यह निश्चय-दृष्टि से समझा जाना चाहिए। अन्य सभी काय-चेष्टाओ से (धूल-सयोग) नही (होता है)। 130 इस प्रकार मच्छित व्यक्ति) बहत प्रकार की चेष्टाओ मे प्रवृत्ति करता हा चेतना मे रागादि को करता हुआ (कर्म)-धूल के द्वारा मलिन किया जाता है। चयनिका [ 45 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 एवं सम्मादिट्ठी घट्ट तो बहुविहेसु जोगेसु । करतो उवनोगे रागादी र लिप्पदि रयेण ॥ 132 प्रज्वसिदेण बघो सत्ते मारेहि मा व मारेहि । एसो बंधसमासो जीवाण णिच्छयणयस्स || 133 एवमलिये प्रदत्ते प्रबभचेरे परिग्गहे चेव । कोरदि श्रज्भवसाणं ज तेण दु बज्झदे पाव 1 134 तह वि य सच्चे दत्ते बम्हे अपरिग्गहत्तणे चेव । कोरदि प्रभवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुष्णं ॥ 135 वत्थु पडुच्च त पुरण प्रज्भवसारणं तु होदि जीवाणं । ण हि वत्थुदो दु बंधो अवसारण बंधोति ॥ 136 एव ववहाररओ पडिसिद्धो जाण रिणच्छयणयेण । मिच्छयरणयासिदा पुरण मुणिणो पावति णिव्वाणं ॥ 46 ] समयसार Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 और जागृत (व्यक्ति) वहुत प्रकार की क्रियाओं मे प्रवृत्ति करता हुआ तथा चेतना मे रागादि को नही करता हुआ ( कर्म / मानविक तनावरूपी ) चूल के द्वारा मलिन नही किया जाता है । 132 प्राणियो की हिंसा करो अथवा ( उनकी ) हिमा न भी करो, (किन्तु ) (हिमा के ) विचार से ( ही ) (कर्म) - वध (होता है) । निश्चयनय के ( अनुसार ) यह जीवो के कर्म - (वध) का सक्षेप है । 133 इस प्रकार असत्य मे, चोरी मे, अब्रह्मचर्य मे (तथा) परिग्रह मे जो ( श्रासक्तिपूर्ण) विचार किया जाता है, उसके द्वारा ही पाप ग्रहण किया जाता है । 134 और उसी प्रकार ही सत्य मे, अचौर्य मे, ब्रह्मचर्य मे (तथा) अपरिग्रहता मे जो विचार किया जाता है, उसके द्वारा ही पुण्य ग्रहण किया जाता है । 135 फिर वस्तु को श्राश्रय करके निस्सदेह जीवो के वह ( श्रासक्ति पूर्ण) विचार होता है, तो भी वास्तव मे वस्तु से बघ नही (होता है) । प्रत ( श्रासक्तिपूर्ण) विचार से ही बघ (होता है) । 136 इस प्रकार निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय अस्वीकृत ( है ) । ( ऐसा ) (तुम) समझो। और फिर निश्चयनय के आश्रित ज्ञानी परम शान्ति प्राप्त करते है । चयनिका [ 47 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 मोक्ख असद्दहतो प्रभवियसत्तो दु जो अघीय ज्ज । पाठो ण फरेदि गुण असहहंतस्स गाणं तु ॥ 138 पायारादो गाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिक व तहा भरणदि चरिसं तु बवहारो ॥ 139 ण वि रागदोसमोहं कुचदि णाणी कसायभावं वा । सयमप्पणो ण सो तेरण कारगो तेसि भावाणं ॥ 140 जह बंधे चिततो बंघरणवद्धो ण पावदि विमक्खिं । तह बंधे चिततो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ॥ 141 जह बंधे छत्तण य बंधणबद्धो दु पावदि विमॉक्खं । तह बंधे छेत्तूरण य जीवो संपावदि विमॉक्खं ।। 142 बंधाणं च सहावं वियाणिदु अप्पणो सहावं च । बंधेसु जो विरन्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुरणदि ॥ 48 ] समयसार Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 जो भी अनाध्यात्मवादी (परतन्त्रतावादी) जीव शुद्ध आत्मा पर अश्रद्धा करता हुआ अध्ययन करता है, तो (उस) (शुद्ध आत्म) ज्ञान पर अश्रद्धा करते हुए (जीव) के लिए (वह) अध्ययन (कोर्ड) (आत्म-ज्ञान-रूपी) फल उत्पन्न नही करता है। 138 आचाराग आदि (आगमो) मे (गति) ज्ञान समझा जाना चाहिए, और जीव आदि (तत्वो मे) (रुचि) दर्शन (सम्यग्दर्शन) (समझा जाना चाहिए)। छः जीव-समूह के प्रति (करुणा) चारित्र (समझा जाना चाहिए)। इस प्रकार व्यवहार कहता है। 139 ज्ञानी राग-द्वीप-मोह अथवा कपाय-भाव को कभी नही करता है। इसलिए मन के उन भावो का वह स्वय कर्ता नहीं हैं। 140 जैसे (कोई) वन्धन में बंधा हा (उस) बघन की चिंता करते हुए (उससे) छुटकारा नही पाता है, उसी प्रकार जीव भी (कर्म)-वधन की चिंता करते हुए मुक्ति (शान्ति) प्राप्त नही करता है। 141 जैसे (कोई) बधन से वधा हा (उस बधन को नष्ट करके (उससे) छुटकारा पाता है, वैसे ही (कर्म-बधन) को नष्ट करके जीव मुक्ति (परम शाति) प्राप्त करता है। 142 (कर्म)-बध के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर जो (व्यक्ति) (कर्म)-बध से उदासीन हो जाता है, वह कर्मों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। चयनिका । 49 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 जीवो बंधो य तहा छिन्नति सलक्खणेहि मियदेहि । पण्णाछेदणएण दु छिण्णा पाणत्तमावण्णा ॥ 144 जोवो बंधो य तहा छिजति सलक्खणेहि मियदेहिं । बंधो छेदेदवो सुद्धो अप्पा य घेत्तन्वो ॥ 145 किह सोधेप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घेप्पदे अप्पा । जह पगाइ विहत्तो तह पण्णाएव घेत्तन्वो ॥ 146 पण्णाए |तन्वो जो चेदा सो अहं तु रिगच्छयदो ॥ अवसेसा जे भावा ते मझ परे ति रणादवा ॥ 147 पण्णाए घेत्तव्चो जो दवा सो प्रह तु बिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे ति वादग्वा ॥ 148 पण्णाए घेत्तन्वो जो णादा सो अहं तु पिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्भ परे ति णादव्या ॥ 50 ] समयसार Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 प्रज्ञा के द्वारा विभक्त करन के कारण ही जीव तथा (कर्म) वध निश्चित स्व-लक्षणो द्वारा विभक्त कर दिए जाते है। (वे) विभक्त किए हुए पृथकता को प्राप्त होते है) । 144 (जव) जीव तथा (कर्म)-वध निश्चित स्व-लक्षणो द्वारा विभक्त कर दिये जाते हैं, (तब फिर) वध नष्ट कर दिया जाना चाहिए और शुद्ध पात्मा ग्रहण की जानी चाहिए। 145 वह आत्मा कैसे ग्रहण किया जाता है ? वह आत्मा प्रज्ञा से ही ग्रहण किया जाता है। जैसे प्रज्ञा के द्वारा (आत्मा कर्म से) अलग किया हुआ (है), वैसे ही प्रज्ञा के द्वारा (आत्मा) ग्रहण (अनुभव) किया जाना चाहिए। 146 जो प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण किए जाने योग्य है, वह आत्मा निश्चय से मैं ही (हूँ) । अत जो अवशिष्ट वस्तुएं हैं, वे मेरे से भिन्न समझी जानी चाहिए। 147. जो द्रष्टा (भाव) (है), वह निश्चय-दृष्टि से मै (हूँ।। (यह) प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए। जो शेष भाव (है), वे मुझे से भिन्न हैं। इस प्रकार (ये भाव) समझे जाने चाहिए। 148 जो जाता (भाव) (है), वह निश्चय-दृष्टि से मैं (हूं)। जो शेप भाव है, वे मुझ से भिन्न है। इस प्रकार (ये) (भाव) समझे जाने चाहिए । [ 51 चयनिका Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 अण्णाणी कम्मफल पयडिमहावट्टिदो दु वेदेदि । पाणी पुण कम्मफलं जाररादि उदिद ण वेदेदि ॥ 150 रण मुयदि पयडिमभन्वो सुठ्ठ वि अज्झाइदूरण सत्याणि ।। गुडदुद्ध पि पिवता " पणया रिणदिवसा होति ॥ 151 रिणव्वेयसमावण्णो पाणी कम्मफलं वियागादि । महर कड़यं बहुविहमवेदगो तेण सो होदि ॥ 152 ण वि कुवदि ग वि वेददि णाणो कम्माइ बहुप्पयाराई । जादि पुरण कम्मफल बघ पुण्ण च पाव च ॥ 153 जोवस्स जे गुणा केई णत्यि ते खलु परेसु दन्वेसु । तम्हा सम्मादिद्विस्स णत्यि रागो दु विसएसु ॥ 154 पासडिय लिंगाणि य गिहिलिगाणि य वहुप्पयाराणि । घेत्तु वदति मूढा लिगमिणं मोक्खमग्गो ति ॥ 52 ] समयसार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 अज्ञानो जड के स्वभाव मे स्थित हा कर्म के फल का ही अनुभव करता है किन्तु ज्ञानी कर्म के फल को जानता (ही) है, उदय मे आए हुए (कर्म) को (मुख-दु खरूप) अनुभव नही करता है। 150. अनाध्यात्मवादी (परतन्त्रतावादी) आध्यात्मिक ग्रन्थो का भली प्रकार से अध्ययन करके भी (जड)-स्वभाव को नही छोडता है, (जैसे) सर्प गुड सहित दूघ को पीते हुए भी विष-रहित नहीं होते हैं। 151 विरक्ति को पूर्णत प्राप्त हुआ जानी कर्म के फल को (केवल) जानता है। इसलिए वह अनेक प्रकार के मधुर (सुख देनेवाले) (और) कडवे (दुख देनेवाले) (कर्म के फल) को भोगनेवाला नहीं (होता है)। 152 ज्ञानी (व्यक्ति) वहत प्रकार के कर्मों को न ही करता है (और) न ही भोगता है, किन्तु (वह) (तो) कर्मों के फल को और (उनके) वन्ध को, पुण्य तथा पाप को (केवल) जानता (ही) है । 153 जीव के जो कोई गण (है), वे द्रव्यो मे निश्चय ही नहीं होते है। इसलिए सम्यग्दृष्टि के (इन्द्रिय)-विषय मे राग विल्कुल नहीं होता है। 154 बहुत प्रकार के साधुओ के वेषो और गृहस्थो के वेषो को प्रत्यक्ष करके मूढ व्यक्ति इस प्रकार कहता है (कि) यह वेष मोक्ष (परम शान्ति स्वतन्त्रता) का मार्ग है। [ 53 चयनिका Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 ण दु होदि मों क्समग्गो लिंग जं देहरिणम्ममा अरिहा । लिगं मुइत्तु दसणणाणचरित्तारिण सेवंते ॥ 156 ण वि एस मों खमग्गो पासंडिय गिहिमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ॥ 157 तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारियेहि वा गहिदे । दंसरणणाणचरिते अप्पाणं जुञ्ज मोक्खपहे ॥ 158 मोक्खपहे अप्पारणं ठवेहि चेदयहि झाहि तं चेव । तत्येव विहर पिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ॥ 159 पासंडिय लिगेसु व गिहिलिगेसु व बहुप्पयारेसु । कुव्वति जे ममत्तं तेहि प रणादं समयसारं ॥ 160 ववहारिओ पुरण पो दोणि विलिंगाणि भणदि मोक्खपहो। रिणच्छयणमो दु णेच्छदि मोक्खपहे सवलिंगाणि ॥ 54 ] समयसार Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155. (सच है कि) वेष निश्चय ही शान्ति का मार्ग नही होता है, क्योकि देह की ममता-रहित अरिहत वेष (की भावना) को छोडकर सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना करते हैं। 156 साधु और गृहस्थ के लिए बने हुए (कई) वेष (होते हैं)। यह (कोई भी मोक्ष (परम शान्ति/स्वतन्त्रता) का मार्ग नही है। अरिहत सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र-(इन तीनो) को शान्ति का मार्ग कहते हैं । 157. इसलिए गृहस्थो और साधनो के द्वारा धारण किए हुए वेषो की बात को (मन से) त्याग कर (तुम) सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी अध्यात्म मार्ग मे निज को लगाओ। 158 (तू) मोक्ष-पथ (स्वतन्त्रता का पथ) मे प्रात्मा को स्थापित कर, उसको ही अनुभव कर, (तथा) (उसका ही) ध्यान कर, वहाँ ही (तू) सदा रह, (तू) अन्य द्रव्यो मे स्थिति मत कर। 159. बहुत प्रकार के साध-वेषो मे तथा गहस्थ-वेषो मे जो (लोग) ममत्व करते है, उनके द्वारा समयसार (आत्मा का सार) नहीं जाना गया है। 160. व्यवहार-सवधी नय दोनो ही वेषो को मोक्ष (स्वतन्त्रता) के मार्ग मे प्रतिपादित करता है, किन्तु निश्चयनय किसी भी वेष को मोक्ष (स्वतन्त्रता) के मार्ग मे स्वीकृति नहीं देता है। चयनिका [ 55 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत सूची , © B401 सति स्त्री कर्म $.****--Pet: (अ) -अव्यय (इसका अर्थ विधिकृ -विधि कृदन्त लगाकर लिखा गया स -सर्वनाम ___ सक सम्बन्ध कृदन्त प्रक -अकर्मक क्रिया सक -सकर्मक क्रिया अनि अनियमित --सर्वनाम विशेषण प्राज्ञा -प्राज्ञा --स्त्रीलिंग -कर्मवाच्य हेल -हेत्वर्थ कृदन्त (क्रिविन)-क्रिया विशेषण ( ) -इम प्रकार के कोष्ठक अव्यय (इसका अर्थ मे मूल शब्द रक्खा =लगाकर लिखा गया है। गया है) -तुलनात्मक विशेषण [ ( +()+( ) ] -पुल्लिग इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+ -प्रेरणार्थक क्रिया चिह्न किन्ही शब्दो मे सधि का धोतक है। यहां अन्दर के कोष्ठको कृदन्त -भविष्यत्काल मे गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। -भाववाच्य [ ( )-( )-( ) ] -भूतकाल इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर - -भूतकालिक कृदन्त चिह्न समास का द्योतक है। -वर्तमानकाल [ [( )-( )... ] वि] -वर्तमान कृदन्त नहाँ समस्त पद विशेषण का वि -विशेषण कार्य करता है, वहां इस प्रकार के विधि -विधि कोष्ठक का प्रयोग किया गया है । 56 ] समयसार Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल सस्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है, वहां कोष्ठक के अन्दर का शन्द 'सजा' है । • जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त प्रादि प्राकृत के नियमानुसार नही बनें हैं, वहाँ कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है। 1/1 अक या सफ–उत्तम पुरुष/ एकवचन 1/2 अकया सक-उत्तम पुरुष । बहुवचन 2/1 अक या सक-मध्यम पुरुष । एकवचन 2/2 अक या सक-मध्यम पुरुष । बहुवचन 3/1 अक या सक-अन्य पुरुष/ एकवचन 312 अक या सक-अन्य पुरुष/ बहुवचन 1/1-प्रथमा/एकवचन 1/2-प्रथमा/बहुवचन 211-द्वितीया एकवचन 212-द्वितीया/बहुवचन 3/1-तृतीया/एकवचन 3/2-तृतीया/बहुवचन 411-चतुर्थी/एकवचन 4/2-चतुर्थी/बहुवचन 5/1-पंचमी/एकवचन 3/2-पचमी/बहुवचन 611-पष्ठी/एकवचन 612-षष्ठी /बहुवचन 111-सप्तमी/एकवचन 712-सप्तमी/बहुवचन 8/1-सवोधन /एकवचन 8/2-सबोधन/बहुवचन चयनिका [ 57 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 1 सुदपरिचिदाण भूदा [ (सुद) + (परिचिद) + (अणुभूदा)] [ (सुद) भूक अनि-(परिचिद) भूकृ अनि--(अणुभूद-+प्रणुभूदा) भूक 1/l अनि] सन्वस्स! (मब) 61 वि वि (प्र)=निश्चय हो कामभोगवधकहा [ (काम)-(भोग)-(वध)-(कहा) 1/1] एयत्तस्सुवलभो [ (एयत्तस्स) + (उवलभो) ] एयसम्म (एयत्तः) 6/1 उवलभो (उवल भय) 1/1 रणवरि (घ)-केवल ण (म)=नहीं सुलहो (सुलह) 11 वि विहत्तस्स (विहत्त) भूक 6/1 अनि 2 त (त) 2/1 सवि एयत्तविहत्त [ (एयत्त)-(विहत्त) भूक 211 अनि ] दाएहब (दाम): भवि 1/1 सक अप्पणो (मप्प) 6/1 सविहवेण [ (स) वि-(विहव) 3/1] जदि (अ)=यदि दाएज्ज (दान) विधि 111 सक पमाण (पमाण) 1/1 चुक्केज्ज (भुक्क) विधि 1/1 अक छल (छल) 111 ण (प्र)=नही घेत्तचं (घेत्तम्ब) विधि 1/1 अनि । 3 नह (अ)-जैसे ण वि (म)=कभी नही सक्कमणज्जो [ (सक्क) +(मगज्जो) ] मक्क (सक्क) विधिकृ 1/1 मनि प्रगज्जो (अणज्ज) 1/1 वि अरगज्जभास: [ (मणज्ज) वि-(भास) 211) विरणा (अ)-विना दु (अ)=पाद पूर्ति गाहे (गाह) हेकृ तह (म) . 1 कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-134) 2 वध-निरूपण, एयत्त-अद्वितीयता, विहत्त-समतामयी, उवलम-मनुभव 3 (दा+अ)-यहाँ 'दा' में विकल्प से 'अ' जोडा गया है। 4 हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-170 तथा अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ, 264(11)। 5 "विना' के साथ द्वितीया, तृतीया या पचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। 58 ] समयसार Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -वैसे ही ववहारेरणा (ववहार) 3/1 विणा (म)=विना परमस्युववेसरगमसपक [ (परमत्थ)+ (उवदेसण) + (असक्क)] [ (परमत्य)-(उवदेसण) 1/1 ] असक्क (असक्क) विषि कृ 111 पनि 4 ववहारोऽ भूदत्यो [ (ववहारो)+ (अभूदत्थो) ] ववहारो (ववहार) 1/1 अभूदत्यो (प्रभूदत्य) 111 वि भूदत्यो (भूदत्य) 1/1 वि देसिदो (देस) भूकृ Iदु (अ) ही सुखरणनो [ (सुद्ध) वि(ग) 1/1) ] भूदत्थमस्सिदो [ (भूदत्थ) (प्रस्सिदो) ] भूदत्य (भूदत्य) 2/1 अस्सिदो (अस्सिद) 1/1 भूक अनि खलु (अ)=ही सम्मादिट्ठी (सम्मादिट्ठी) 1/1 वि हदि (हव) व 3/1 अक जीवो (जीव) 11 5 सुद्धो (सुद्ध) 111 वि सुद्धादेसो [ (सुद्ध)+ (प्रादेस) ] [ (सुद्ध) वि-(प्रादेम) 1/1 ] रणादव्वो (णा) विधि कृ 1/1 परमभावदरिसीहि । (परम) वि-(भाव)-(दरिसि) 312 वि] वयहारदेसिदा [ (ववहार)-(दस) भूकृ 1/2 ] पुरण (अ) और जे (ज) 1/2 सवि दु (अ)-ही अपरमे (अपरम) 7/1 वि ठिदा (ठिद) भूक 1/2 अनि भावे (भाव) 7/1 जो (ज) 1/1 सवि पस्सदि (पस्स) व 3/1 सक अप्पारण (अप्पारण) 211 अवद्धपुट्ठ [ (अबद्ध)+ (अपुट्ठ) ] [ (प्रबद्ध) भूक अनि-(अपुट्ठ) भूक 2/1 अनि ] अण्णय (अणण्ण) 2/1 वि स्वार्थिक 'य' प्रत्यय रिणयद (रिणयद) 2/1 वि अविसेसमसजुत्त [ (अविसेस)+ (असजुत्त) ] अविसेस (प्रविसेस) 2/1 वि असजुत्त 1 (पीछे देखो 5) 2 कमी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-137) या मस्सिद' क्र्म के साथ कर्तृवाच्य में प्रयुक्त होता है (माप्टे, सस्कृत-हिन्दी कोश)। चयनिका [ 59 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रसजुत्त) भूक 2/1 अनि त (त) 2/1 सवि सुखणय (सुद्धणय) 2/1 वियाणाहिः (वियाण) विधि 2/1 सक 7 जो (ज) 1/1 सवि पस्सदि (पस्स) व 3/1 सक अप्पाण (मप्पाण) 2/1 अवद्धपुछ [ (प्रवद्ध) + (अपुट्ठ) ] [ (प्रवद्ध) भूक अनि(अपुट्ठ) भूक 2/1 अनि ] अण्णमविसेसं [ (अणण्ण)+ (प्रविसेस)]प्रणण्ण (अणण्ण) 2/1 वि अविसेस (अविसेस) 2/1वि अपदेससुत्तमझ [ (प्र-पदेस) + (अ-सुत्त) + (अ-मज्झ) ] [ (अ-पदेस) वि-(अ-सुत्त) वि-(अ-मज्झ) 1/1 वि] जिणसासरण [ (जिण)-(सासण) 2/1 ] सव्व (सम्व) 2/1 वि जह (अ) जैसे णाम (अ)=पाद पूर्ति को (क) 1/1 वि वि (अ)=भी पुरिसो (पुरिस) 1/1 रायाण (रायाण) 2/1 अनि जारिणदूरण (जाण) सक सद्दहदि (सह) व 3/1 सक तो (अ)तब त (त) 2/1 सवि अरण चरदि (अणुचर) व 3/1 सक पुरणो (प्र) =और अत्थत्थीयो (अत्यत्थी) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक प्रत्यय पयत्तेण (क्रिविन)=बडी सावधानीपूर्वक 9 एव (अ)=वैसे हि (अ)=ही जीवराया [ (जीव)-(राय) 1/1] यादवो (णा) विधिकृ 1/1 तह य (अ)=तथा सहहेदव्वो (सद्दह) विधिक 1/1 अरण चरिदन्वो (अणुचर) विधिक 1/1 य (अ)=और पुरणो (अ)=फिर सो (त) 1/1 वि चेव (म)= ही दु (अ)=निस्सदेह मॉक्खकामेण (मॉक्खकाम) 3/1 वि. 10 महमेव [ (ग्रह) + (एदं) ] अहं (प्रम्ह) 1/1 स एद (एद) 1/1 सवि एदमहं [ (एद) + (प्रह) ] एदं (एद) 1/1 सवि 1 माशार्थक या विधि प्रर्थक प्रत्ययों के होने पर कभी कभी अन्त्यस्थम के स्थान पर 'मा' की प्राप्ति हो जाती है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-158 वृत्ति) 60 ] समयसार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स एव (भ) = ही होमि एद (एद ) 1 / 1 सवि ग्रह ( श्रम्ह ) 1 / 1 स श्रहमेदस्सेव [ (अहं) + (एदस्स) + (एव) ] ग्रह (ग्रह) 1/1 स एदस्स ( एद ) 4 / 1 (हो) व 1 / 1 श्रक मम ( श्रम्ह ) 4 / 1 स क्षण (अण्णा) 1 / 1 विज (ज) 1 / 1 वि - ( दव्व) 1 / 1 ] सच्चित्ता चित्तमिस्स [ ( सचित ) + (चित्त) ( सचित्त) वि - ( प्रचित्त ) वि - ( मिस्स ) 1 / 1 वि ] सवि परदव्य [ ( पर) + (मिस्स ) ] [ वा (प्र) = भी. सवि 11 प्रसि (श्रस ) भू 3 / 1 अक मम ( म्ह) 6 / 1स पुव्वमेव [ ( पुबं) + (एदं ) ] पुर्व्वं (प्र) = पहले एद ( एद ) 1 / 1 अहमेद [ (ग्रह) + (एद ) ] ग्रह (ग्रह) 1 / 1 स एद (एद ) 1 / 1 मवि चावि ( अ ) भी पुण्वकालम्हि [ ( पुव्व) वि - (काल) 7/1] होहिदि (हो) भवि 3 / 1 अक पुणो (भ) = फिर बि (भ) भी मज्झ (म्ह) 4 / 1 स होस्सामि (हो) भवि 1 / 1 अक = -- 12 एव ( अ ) = इस प्रकार से तु (भ) = ही प्रससूद (श्र - स-भूद ) 2 / 1 वि प्रादवियप्प [ ( श्राद) - ( वियप्प ) 2 / 1 -- ] करेदि (कर) व (भूदत्य) 271 वि 1 / 1 वि भूवस्थ 3/1 सक समूढो ( स - मूढ ) जाणतो (जाण) वकृ 1 / 1 (त) 2 / 1 सवि श्रसमूढो (भ-स- मूढ ) 1 / 1 वि प ( प्र ) = नही दु (प्र) = ओर त जीवो (जीव) 13 ववहाररण (ववहारण) 1 / 1 भासदि (भास) व 3/1 सक 1/1 बेहो (देह) 1 / 1 य (भ) = और हवदि (हव) खलु (अ) = पाद-पूर्ति एक्को ( एक्क) 1/1 वि दु ( अ ) = परन्तु रिगच्छयस्स (गिन्छ ) 6 / 1 य (भ) और कदावि (ध) = कभी एक्कट्ठो [ ( एक्क) - व 3 / 1 अक रण ( अ ) = नही == (प्रट्ठो) ] [ (एक्क) वि- (भट्ट) 1 / 1 ] चयनिका [ 61 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 त (त) 1 / 1 पिच्छये (गिच्छय) 7/1 ण (म ) = नही जुज्जदि - ( जुज्जदि) कर्म व 3 / 1 सक अनि सरीरगुणा [ ( सरीर ) - (गुरण) 1/2 ] हि (अ) = क्योकि होंति (हो) व 3 / 2 अक केवलिगो (वलि) 6 / 1 केवलिगुरणे [ ( केवलि) - ( गुण) 2 / 2 ] थुरादि (थुरण) व 3 / 1 सक जो (ज) 1 / 1 सवि सो (त) 1/1 सवि तच्च (क्रिविन ) = वास्तव मे केवल (क्वलि) 2 / 1 (प्र) = भो 15 यरम्मि ( यर) 71 / 1 वण्णिदे जह (श्र) = जैसे ग (प्र) = नही वि 6/1 वरणरणा (वण्णरण ) 1/2 कदा (कद ) भूकृ 1/2 श्रनि होदि (हो) व 3 / 1 ग्रक देहगुणे' [ (देह) - (गुण) 7 / 1] थुब्वते 2 (थुव्वते) वकृ कर्म 7/1 अनि केवलिगुरगा [ ( केवलि) - (गुण) 1/2 ] थूदा (थुद ) भूकृ 1 / 2 अनि होति (हो) व 3/2 क (वणिद) भूकृ 7 / 1 अनि रण्लो (राय) 16 जो (ज) 1 / 1 सवि इदिये (इंदिय) 2 / 2 जिणित्ता ( जिरण) सकृ रणारण सहावाघिय [ (शारण) + (सहाव ) + (प्रधिय) ] [ ( गाण) - (सहाव ) - ( अघि ) 2 / 1 वि ] मुर्गादि (मुण) व 3 / 1 सक श्राद (द) 2 / 1 त (त) 2 / 1 सवि खलु ( अ ) = ही जिदिदिय [(जिद) + (इदिय)]] [[ ( जिद) भूकृ अनि - (इदिय) 1 / 1] वि] (त) 1/2 सवि भरणति ( भरण) व 3 / 2 सक जे (ज) 1 / 2 सवि रिच्छिदा ( रिणच्छिद) 1/2 वि साहू ( साहु) 1 / 2 1 जुज्नदि (कर्मवाच्य भनि ) का प्रयोग सप्तमी या पष्ठी के साथ 'उपयुक्त होना' अर्थ में होता है । आप्टे संस्कृत - हिन्दी कोप (युज्→कमं युज्यते) । जुञ्जदि' पाठ ठीक प्रतीत नहीं होता है । देखें समयसार कुन्दकुन्द भारती के अन्तर्गत ( स प पन्नालाल साहित्याचार्य) 2 एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होने पर पहली क्रिया मे सप्तमी होती है । कर्मवाच्य में कर्म भोर कूदन्स में सप्तमी होगी । 62 ] समयसार Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 जह (प्र)=जैसे गाम (म)=पाद पूर्ति को (क) 1/1 सवि वि (म)= भी पुरिसो (पुरिस)1/1 परदव्यमिण [(पर)+ (दवं)+ (इण)] [(पर) वि-(दस्व)1/1] इण (इम) 1/1 मवि ति (प्र)- इस प्रकार जारिणदु (जाण) सकृ मुवि (मुय) व 3/1 सक तह (प्र)-वैसे ही सन्ये (सव्व) 2/2 परभावे [(पर)-(भाव) 212] पादूरण (णा) सक विमुञ्चदे (विमुञ्च) व 3/1 सक पाणी (णारिण) 1/1 वि 18 अहमेक्को [(प्रह) + (एक्को)] अहं (पम्ह) 1/1 स एक्को (एक्क) 1/1 मवि खलु (अ)निश्चय ही सुद्धो (सुद्ध) 1/1 वि दसरगणाणमइयो [(दमण-(णाणमइन) 1/1 वि] सयास्वी [(मया)+ (मख्वी)] सया (अ)==सदा अस्वी (मरूवि) 1/1वि ण (प)-नही वि (म)=इसलिए अत्यि (अ)=है मज्झ (अम्ह) 611 किचि (अ)-कुछ वि (अ)=भी अण्ण (अण्ण) 1/1 सवि परमाणमेत [(परमाण.)-(मेत) 1/1]पि (प)=भी 19 एदे (एद) 1/2 सवि सन्वे (सन्व) 1/2 सवि भावा (भाव) 1/2 पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा [(पोरगल)- (दम्व)-(परिणाम)(णिप्पण्ण) भूक 1/2 अनि] केवलिजिणेहि (केवलिजिण) 3/2 भरिणदा (भण) भूक 1/2 किह (अ)= कैसे ते (त) 1/2 सवि जीवो (जीव) 1/1 ति (अ)-इस प्रकार वुश्चति (वुच्चति) व कर्म 3/2 सक अनि 20 अरसमरूवमगध [(मरस) + (मरूव) + (अगध)] अरस (मरस) 1/1वि प्ररूवं (प्रस्व) 1/1 वि अगष (अगध) 1/1 वि अव्वत्त (प्रवत्त) 1/1 वि चेदरगागुणमसद्द [(चेदणा)+ (गुण)+ (प्रसद्द)] [(चेदणा)-(गुण) 1/1] असद्द (असद्द) 1/1 वि जाण (जाण) विधि 2/1 सक अलिंगग्गहण [(मालिंग) विचयनिका 63 ] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 (ग्गहण) 1/1] जीवमणिहिट्ठसठाण [ (जीव) + (मणिट्ठि) + (सठाण)] जीव (जीव) 1/1[(प्रणिहिट्ठ) वि-(मंठाण) 1/1] जीवस्स (जीव) 611 पत्थि (म)=नही है वष्णो (वण्ण) 1/1 ण (म)=नही वि (म)=भी वि य (प्र)=भी गधो (गध) 1/1 रसो (रस) 1/1 फासो (फाम) 1/1 स्वर (स्व) 1/1 सरीर (सरीर) 1/1. सठाण (सठाण) 1/1. सहरणरण (सहणण) 1/1 जीवस्स (जीव) 6/1 रणत्यि (म)= नही है रागो (राग) 1/1 रण (अ)=नही वि (अ)=भी दोसो (दोस) 1/1 एंव ()नही विज्जदे (विज्ज) व 3/1 अक मोहो (मोह) 1/1 गो (प्र) =नही पच्चया (पच्चय) 1/2 कम्म (कम्म) 1/1 पोकम्म (खोकम्म) 1/1 चावि (अ) और भी से (त) 6/1 स एदेहि (एद) 312 स य (अ)=पादपूरक सबंधो (सवध) 1/1 जहेव (अ)=समानता व्यन करने के लिए प्रयुक्त होता है। खीरोदय [(खीर)+ (उदय)] [खीर)-(उदय) 1/1] मुणेदव्वो (मुण) विधिकृ 1/1 ण (अ)=नही य (अ)=बिल्कुल होति (हो) व 3/2 अक तस्स (त) 6/1 स तारिण (त) 1/2 स दु (अ)तो उवप्रोगगुणाधिगो [ (उवनोग)+ (गुण)+ (अधिगो) ] [(उवमोग)-(गुण)-(आधिग) 1/1 वि] जम्हा (प्र)=क्योकि 1 कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत-व्याकरण, 3-134)1, 2 रूप-रूवः शन्द (माप्टे सस्कृत-हिदी कोश)। 3 देखें गाया 21 4 'सह', 'साथ के योग मे तृतीया होती है । 5 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-134)। 64 ] समयसार Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 26 27 1 2 पथे (पथ) 7/1 मुस्सत ( मुम्सत) कर्म व ( पस्स) सकृ लोगा (लोग) 1/2 भर्णात ववहारी ( ववहारि ) 1/2 वि मुस्सदि सक अनि एसो ( एत) 1 / 1 सत्रि पथो नही य ( प्र ) = किन्तु मुस्सदे (मुस्पदे) कर्म कोई' (प्र) = कोई (पथ) 2 / 1 अनि पस्सिदृण (भरण) व 3 / 2 सक कर्म व 3 / 1 3 (मुस्सदि ) व 3 / 25 तह (प्र) = उसी प्रकार जीवे (जीव ) 7/1 कम्माणं ( कम्म ) 6 / 2 शोकम्माण (गोकम्म) 6/2 च (प्र) = और परिसद् (पस्स) सकृ वरण (वा) 2 / 1 जीवस्स (जीव ) 6 / 1 एस (एत ) 1 / 1 सवि वणी ( वण्ण) 1 / 1 जिणेहि ( जिरग ) 3 / 2 ववहार दो (ववहार ) पंचमी प्रार्थक 'दो' प्रत्यय उत्तो ( उत्त) भूकृ 1 / 1 अनि 1 / 1 1/2 1 तत्थ (त) 7 / 1 सवि भवे (भव ) 7/1 जीवारण ससारस्थारण (ससारत्थ ) 6 / 2 वि होति (हो) ण ( अ ) = सक प्रनि. 1/2 ] देहो 1/2 सवि य (भ्र) गधरसफासरूवा [ ( गध) - (रम ) - ( फास ) - (रुव) (देह) 1/1 सठारण माइया [ ( सठारण ) + (प्राइया) ] सठाणं ( सठाण) 1 / 1 ग्राइया (आइय ) 1/2 जे (ज) = प्रोर सब्वे (सव्व ) 1/2 सवि ववहारस्स य पादपूरक रिणच्छ्यदण्डू (ववदिस) व 3 / 2 सक - (रिगच्छय दण्डु) (ववहार ) 6/1 वि ववदिसति (जीव ) 6/2 व 3 / 2 अक 'इ' कभी कभी दोघं हो जाता है (पिशल पृष्ठ 138 ) । कभी-कभी पष्ठी का प्रयोग तृतीया के स्थान पर पाया जाता है (हेम-प्राकृतव्याकरण, 3-134) | वणवाह्य दिखाव - बनाव ( outward appearance), Monter Williams, Sanskrit-English Dictionary 4 कभी कभी तृतीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हैम- प्राकृतव्याकरण, 3-134 ) । चयनिका [65 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण्णादी [ (वण्ण) + (प्रादी) ] [ (वण्ण)-(ग्रादि) 1/2 ] ससारपमुक्काण [ (ससार)-(पमुक्क) 6/2 वि] एत्यि (अ)= नही है दु (अ) परन्तु वण्णादो [ (वण्ण) + (आदओ) ] [ (वण्ण)-(पाद) 1/1 'अ' स्वार्थिक] केई (अ)=किसी भी प्रकार का 28 जीवो (जीव) 1/1 चेव (अ) निस्सन्देह हि (अ)=पादपूरक एदे (एत) 1/2 सवि सव्वे (सम्व) 1/2 सवि भाव (भाव) मूल शब्द 1/2 त्ति (अ)-इम प्रकार मापसे (मण्ण) व 2/1 सक जदि (अ) यदि हि (अ)=निश्चय से जीवस्साजोवस्स [ (जीवस्स) + (अजीवस्स)] जीवस्स (जीव) 6/1 अजीवस्स (अजीव) 6/1 य (अ) ही रणत्थि (अ)-नही है विसेसो (विसेस) 1/1 दु (अ)=तो दे (प्र)-पादपूरक कोई (अ)-कोई जाव (अ)=जब तक ण (अ)=नही वेदि० (वेदि) व 3/1 सक अनि विसेसतर [ (विसेस) +अतर] [ (विसेस)-(अंतर) 211) तु (अ)=पादपूरक प्रादासवाण [ (पाद)+(आसवाण) } [ (पाद)-(प्रासव) 612 ] दोण्ह (दो) 6/2 सवि पि (अ) ही 1 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है हिम-प्राकृत - व्याकरण, 3-134)। 2 कभी कभी 'ईदोघं हो जाता है। 3 पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल सज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है (पिशल प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ, 517)। 4 कमी कभी सप्तमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्रात व्याकरण, 3-134) । 3 कभी कमी 'ई' दोघं कर दिया जाता है (पिशल पृष्ठ 138) 6 विद्-वेत्ति- वेदि (भदादिगण परस्मैपदी) 66 ] समयसार Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णारणी (अण्णाणि) 1/1 वि ताव (अ)= तब तक दु (अ) ही सो (त) 1/1 सवि कोहादिसु (कोहादि) 712 अनि वट्टदे (वट्ट) व 3/1 सक जीवो (जीव) 1/1 30 कोहादिसु (कोहादि) 7/2 अनि. वह तस्स (वट्ट) व 6/1 तस्स (त) 6/1 स कम्मस्म (कम्म) 6/1 सचत्रो (सचम) 1/1 होदि (हो) व 3/1 अक जीवस्सेवं [(जीवस्स) + (एव) ] जीवस्स (जीव) 6/1 एवं (अ)-इस प्रकार बधो (बध) 1/1 भरिएको (भण) भूक 1/1 खलु (अ)=पादपूरक सम्वदरिसीहि (मन्वदरिसि) 3/2 31 जइया (अ)=निस समय इमेण (इम) 3/1 स जीवेण (जीव) 3/1 अप्पणो (अप्प) 6/1 पासवाण (प्रासव) 6/2 य तहेव (अ)=और गाद (रणा) भूक 1/! होदि (हो) व 3/1 अक विसेसतर [ (विसेस) + (अतर)] [ (विसेम)-(अतर) 1/1] तु (अ)=पादपूरक तइया (अ)= उस समय ण (अ)-नही वघो (वध) 1/1 स (त) 6/1 स 32 रणादूरण (णा) सकृ पासवाण (प्रासव) 6/2 असुचित्त (असुचिता) 2/1 च (अ)=और विवरीदभाव [ (विवरीद)(भाव) 2/1] दुक्खस्स (दुक्ख) 6/1 कारण (कारण) 1/1 त्ति (अ)=कही गई बात य (अ)-तथा तदो (अ)-उससे पियत्ति (णियत्ति) 2/1 कुणदि (कुण) व 3/1 सक जीवो (जीव) 1/1 1 कभी कभी द्वितीय विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत-व्याकरण, 3-135)। 2 कभी कभी द्वितीय विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत-व्याकरण, 3-135) । चयनिका [ 67 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 अहमेक्को [ (प्रह)+ (एक्को) ] अह (अम्ह) 1/1 म एक्को (एक्क) 1/1 वि खलु (अ)=निश्चय ही सुदो (सुद) भूकृ 111 अनि य (अ) = तथा जिम्ममो (रिणम्मम) 111 वि णाणदसणसमग्गो [ (पाण)-(दसण)-(समग्ग) 1/1 वि ] तम्हि (त) 7/1 म ठिदो (ठिद) भूकृ 1/1 अनि तच्चितो (तच्चित्त) 1/1 वि सव्वे (सम्ब) 2/2 वि एदे (एद) 2/2 सवि खय (खय) 2/1 मि (पी) व 1/1 सक 34 जीवणिवद्धा [ (जीव)-(रिणबद्ध) भूक 1/2 प्रनि ] एदे (एद) 1/2 सवि अधुवर (अधुव) मूल शब्द 1/2 वि अणिचा (अरिणच्च) 1/2 वि तहा (अ)= तया असरणा (असरण) 1/2 य (अ) =फिर भी दुक्खा (दुक्ख) 1/2 दुक्खाफला [ (दुख)-(फन) 1/2 वि ] त्ति (म)= इस प्रकार य (अ) तथा जादूण (गा) मक णिवत्तदे (णिवत्त) व 3/1 अक तेहिं (त) 3/2 स 35 ण (अ)=नही वि (अ)- कभी भी परिणदि (परिणम) व 3/1 अक गिण्हदि (गिण्ह) व 3/1 सक उप्पज्जदि (उप्पज्ज)व 3/1 अक परदत्वपज्जाए [(पर)वि-(दव)-(पज्जाम) 7/1] गाणी (णारिण)1/1 वि जाणतो (जाण) वकृ 1/1 वि (अ)=पादपूरक हु (अ)=निश्चय ही पोग्गलकम्म [(पोग्गल)-(कम्म) 2/1] अणेयविह (भगेयविह) 2/1 वि 36 सगपरिणाम[ (सग) वि-(परिणाम)2/1] बाको के लिए देखें 35 1 पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल सहा शब्द काम में लाया जा सकता है (पिशल, प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ, 517)। 2 कभी कभी तृतीया विभक्ति का प्रयोग पचमी के स्थान पर पाया जाता है (हेम प्राकृत-व्याकरण, 3-136)। 681 समयसार Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 पोग्गलकामफल [(पोग्गल)-(कम्म)-(फल) 2/1] अणत (प्रगत) 211 वाकी के लिए देम 35 38 वि (प्र) =ही पोग्गलवव्व [(पोग्गल)-(दन्व)1/1] पि (अ)= भो तहा (प्र)= उसी प्रकार सगेहि(सग) वि भावेहि(भाव) 3/2 39 जीव (जीव) मूलशन्द परिणामहेदु [(परिणाम)-(हेदु) 1/1] कम्मत (कम्मत्त) 2/1 पोग्गला (पोग्गल)1/2 परिणमति (परिणम) व 3/2 मक पोग्गलफम्मििमत्त [(पोग्गल)-(कम्म)(णिमित्त) 1/1] तहेव (म)== उसी प्रकार जीवो (जीव) 1/1 वि (प्र)=भी परिणदि (परिणम) व 3/1 प्रक 40 गवि (प्र) = कभी नही कुवदि (कुन्च) व 3/1 मक कम्मगुणे [ (कम्म)-(गुग्ग) 2/2] जीवो (जीव) 1/1 कम्म (कम्म) 1/I तहेव (अ)= उमी प्रकार जीवगुणे [(जीव)-(गुण) 2/2] अण्णोण्णणिमित्तण [(अण्णोण्ण) वि-(रिणमित्त)3/1] दु (अ)= परन्तु परिणाम (परिणाम) 2/1 जाण (जाण) विधि 2/1 सक दोण्ह (दो)612 पि (अ)=ही एदेण (एद) 3/1 सवि कारणेण (कारण) 3/1 दु (म)=ही कत्ता (कत्तु) 1/1 प्रादा (पाद) 1/1 सगेण (सग) 3/1 वि भावेण (भाव) 3/1 पोग्गलकम्मकदाणं [(पोग्गल)-(कम्म)(कद) भूक 612 अनि] ण (म)=नहीं दु (अ)-परन्तु कत्ता (कत्तु) 1/1 सव्वभावाण [(सन्व) वि-(भाव) 612] 42 णिच्छयणयस्स (पिच्छयरणय) 6/1 एन (अ)= इस प्रकार प्रादा (पाद) 1/1 अप्पाणमेव [(अप्पारण) + (एव)] अप्पारण (अप्पारण) 1 पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल सज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिणल प्राकृत भाषामों का व्याकरण पृष्ठ, 517) चयनिका [ 65 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2/1 एव (अ)=ही हि (अ)=पाद पूर्ति करेदि (कर) व 3/1 सक वेदयदि (वेदयदि) व 3/1 मक अनि पुणो (प्र) तथा त (त) 2/1 मवि चेव (अ) ही जाण (जाण) विधि) 2/1 सक अत्ता (अत्त) 1/1 दु (प)-ही प्रत्ताण (प्रप्तारा) 211 ववहारस्स (ववहार) 611 दु (प्र)= किन्तु प्रादा (पाद) 1/1 पोग्गलकम्म [(पोग्गल)-(कम्म)2/1] करेदि (कर) व 3/1 सक यविह (णेयविह) 2/1 वि त (त) 211 मवि चेव (म)=ही य (प्र)=तथा वेदयदे (वेदयदे) 43/1 मक पनि अणेयविह (अणेयविह) 2/1 वि 44 जदि (प्र)= यदि पोग्गलकम्ममिण [(पोग्गल)+ (कम्म)+ (इण)] [(पोग्गल)-(कम्म) 2/1] इण (इम) 2/1 सवि कुम्वदि (कुन्व) व 3/1 मक त (त) 2/1 मवि चेव (अ) ही वेदयदि (वेदयदि) व 3/1 सक अनि प्रादा (पाद) 1/1 दोकिरियावदिरित्तो[(दो) वि-(किरिया)-(प्रवदिग्त्ति) 1/1 वि] पसज्जदे (पसज्ज) व 3/1 अक सो (त) 1/1 सवि जिणावमदं [ (निण) + (अव) + (मद)] [(जिण-(अव) प्रविपरीत(मद)12/1] ज (ज) 2/1 सवि कुरणदि (करण) व 3/1 मक भावमादा [ (भाव)+ (आदा)] भावं (भाव) 211 प्रादा (आद) 1/1 कत्ता (कत्तु) 1/1 वि सो (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 अक तस्स (त) 6/1 स भावस्स (भाव) 6/1 कम्मत्त (कम्मत्त) 2/1 परिणमदे (परिणम) व 3/1 सक तम्हि (त) 7/1 स सय (अ)=अपने आप पॉग्गल (पॉग्गल) 1/1 दन्वं (दव्व) 1/1 1 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-137) 70 ] समयसार Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 परमप्पाण[ (पर) + (अप्पाण) ] पर (पर) 2/1 वि अप्पाणा (अप्पारण) 2/1 कुव (कुम्ब) वकृ 1/1 अप्पाण (प्रप्याण) 2/1 पि (अ)-भी य (अ)=और पर! (पर) 2/1 वि करतो (कर) वक 1/1 सो (त) 1/1 सवि अण्णाणमयो (अण्णाणमन) 111 वि जीवो (जीव) 1/1 कम्माण (कम्म) 612 कारगो (कारग) 111 वि होदि (हो) व 3/1 प्रक 47 परमप्पाणमकुव्वं [ (परं) + (अप्पारण) + (अकुव) ] पर (पर) 2/1 वि अप्पाण३ (अप्पारण) 2/1 अकुव (अकुन्व) वकृ 1/1 अप्पाण (अप्पाण) 211 पि (अ)=भी य (अ)=ौर पर (पर) 2/1 वि अकुन्वतो (अकुल्व) व 1/1 सो (त) 1/1 सवि पाणमनो (णाणमन) 1/1 वि जीवो (जीव) 1/1 कम्मारणमकारगो [ (कम्माण)+ (प्रकारगो) ] कम्माण (फम्म) 612 प्रकारगो (अकारग) I|| वि होदि (हो) व 3/1 भक 48. एव (भ)=इम प्रकार पराणि (पर) 2/2 वि दन्वाणि (दन्व) 2/2 अप्पयः (अप्प) 2/1 'य' स्वार्थिक प्रत्यय कुरणदि (कुण) व 3/1 सक मदबुद्धीओ [ (मद)-(बुद्धि) 1/21 अप्पाण (अप्पाण) 2/1 अवि(म)=भी य (अ)=और पर (पर)2/1वि 1 कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत-व्याकरण 3-137) 2 छन्द की माता की पूर्ति हेतु कुव्वतो' के 'तो' का लोप हुमा है । 3 कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता हैं। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-137) 4 छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'भकुन्वतो' के 'तो' का लोप हुमा है। 5 फभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-137) चयनिका [ 71 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेदि (कर) व 3/1 अण्णाभावेण [ (अण्णाण)-(भाव) 3/1] 49 एदेण (एद) 3/1 सवि दु (अ)=ही सो (त) 1/1 सवि कत्ता (कत्तु) 1/1 वि प्रादा (पाद) 1/1 णिच्छयविहि [(पिच्छय) -(विदु) 312 वि] परिकहिदो (परिकह) भूकृ 1/1 एव (अ) =इस प्रकार खलु (अ)=निश्चपूर्वक जो (ज) 1/1 सवि नादि (जाण) व 3/1 सक सो (त) 1/1 सवि मुञ्चदि (मुञ्च) व 3/1 मक सम्वकत्तित्त [ (मन्व) वि-(कनित्त) 2/1] ववहारेण (ववहार) 3/1 दु (अ)=ही प्रादा (पाद) 1/1 करेदि (कर) व 3/1 सक घडपडरधादिदव्वाणि [ (घड)+ (पड) + (रघ) + (आदि) + (दवाणि) ] [ (पड)- (पड)-(रथ)(आदि)-(दव) 2/2 ] करणाणि (करण) 2/2 य (अ) और कम्मारिण (कम्म) 2/2 य (अ)=और पोकम्भारणीह [ (गोकम्माणि)+ (इह) ] णोकम्माणि (णोकम्म) 2/2 इह (अ)=इम लोक मे विविहारिण (विविह) 2/2 वि 50 51 नदि (अ)= यदि सो (त) 1/1 सवि परदव्वाणि [ (पर) वि (दन्व) 2/2 ] य (अ)=पाद पूर्ति करेज्ज (कर) विधि 3/1 मक णियमेण (क्रिविन)= नियम से तम्मो (तम्मन) 1/1 होज्ज (हो) भवि 3/1 अक जम्हा (अ)=चूकि ण (अ)=नही तेरण (अ)=इसलिए तेसि (त) 6/2 हवदि (हव) व 3/1 प्रक कत्ता (कत्तु) 1/1 वि 52 जीवो (जीव) 1/1 ए (प्र)= नही करेदि (कर) व 3/1 सक घड (घड) 2/1 णेव (अ)=नही पड (पड) 2/1 सेसगे (सेस) 2/2 वि स्वार्थिक 'ग' प्रत्यय दवे (दन्व) 212 जोगुवोगा 72 ] समयसार Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ (ग) : (उवनोगा) ] [ (जोग) - (उवप्रोग)1 5 1 ] उप्पादगा (उपादग) 5/1 वि य (ग) = तथा तेसि (त) 6/2 हदि (च) व 3/1 प्रक पत्ता (कत्तु) 11 वि 53 जे (ज) 1,2 मचि पॉग्गलदव्यारण [(पॉग्गल)-(दब) 612 ] परिणामा (परिणाम) 1/2 होति (हो) व 3/2 अक पारगमायरणा [ (गारण)-(प्रावरण) 1/2 ] (प्र)= नही फरेदि (कर) व 3/1 गक तारिण (त) 212 प्रादा (पाद) 1/1 जो (ज) 1/। मवि जाणदि (जाण) व 3/1 मक सो (त) 11 मवि हदि (हव) व 31 अक गाणी (गाणि) 1/1 वि 54 ज (ज) 211 मवि भाव (भाव) 2/1 सुहमसुह [ (सुह)+ (प्रमुह) ] सुह (सुह) 2/1 वि अमुह (असुह) 2/1 वि फरेदि (कर) व 3/1 मक प्रादा (पाद)1/I स (त) 1/1 सवि तस्स (त) 611 वलु (अ)=निम्मदेह फत्ता (कत्त) 1/1 वि त (त) 1/1 मवि होदि (हो) व 3/1 अक फम्म (कम्म) 1/1 सो (त) 1/1 मयि दु (प्र)=ही वेदगो (वेदग) 1/1 वि अप्पा (अप्प) 1/1 55 जो (ज) 1/1 मवि जम्हि (ज) 7/1 मवि गुणों (गुण) 1/1 दवे (दव्व)7/1 मो (त) 1/1 सवि अण्णम्हि (अण्ण) 711 मवि दु (प्र)-निश्चय ही रण (म)=नही सकमदि (सकम) व किसी पाय का कारण व्यक्त करने वाली स्वीलिंग-भिन संशा को तृतीया या पचमी में रखा जाता है। 2 कमी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान मे मप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम-प्राकृत - व्याकरण, 3-135) गत्यार्थक क्रिया के योग मे द्वितीया विभक्ति होती है। 3 'गुणे' के स्थान पर 'गुणो' पाठ ठीक प्रतीत होता है (समयसार कुन्दकुन्द भारती के मन्तगत, स पग्नालाल साहित्याचाय) । चयनिका [ 73 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1/I सक दन्वे (दन्व) 7/1 अण्णमसंकतो [(अण्ण) + (प्रसंकतो)] अण्ण (अण्ण) 2/1 सवि असकतो (असकत) भूक 1|| अनि किह (प्र)=किस प्रकार त (त) 2/1 सवि परिणामए। (परिणाम) व 3/1 सक दव्व (दव्व) 2/1 56 दव्वगुणस्स [ (दव)- (गुण) 611] य (प्र)=सर्वथा प्रादा (आद) 1/1 ण (प्र)=नही कुणदि (कुण) व 3/1 सक पोग्गलमयम्हि (पॉग्गलमय) 7.1 कम्मम्हि (कम्म) 7/1 त (त) 2/1 सवि उहयमकुवती [ (उहय) + (भकुन्बतो) उहयं (उय) 2/1 वि अकुव्वतो (अकुन्व) व 1/1 तम्हि (त) 7/1 सवि कह (अ)- कैसे तस्स (त) 6/1 स सो (त) 1/1 सवि कत्ता (कत्त) 1/1 वि जोवम्हि (नीव)7/1 हेदुदे [ (हेदु)-(भूद) भूक 7/1 अनि ] वघस्स (बघ) 6/1 दु (प्र)=पाद पूर्ति पस्सिदूरण (पस्स) संकृ परिणाम (परिणाम) 211 जीवेण (जीव) 3/1 कदं (कद) भूक 1/1 अनि कम्म (कम्म) 1/1 भण्णादि (भण्ादि) व कर्म 3/1 मक अनि उवयारमेतेण (क्रिविन)= उपचार मात्र से 58 जोधेहि (जोध) 312 कदे (कद) भूकृ7/1 अनि जुद्धे (जुद्ध) 711 रायेण (राय) 3/1 कद (कद) भूकृ 1/1 अनि. त्ति (प्र) 57 को 1 प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान काल का प्रयोग प्राय भविष्यत् काल के अर्थ में होता है। 2 कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान मे पप्ठी का प्रयाग पाया जाता है । हिम-प्राकृत-व्याकरण . 3-134)। 3 एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होने पर पहली क्रिया में सप्तमी होती है। कत्तृवाच्य में कर्ता मौर कृदन्त में सप्तमी होती है। 4 एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होने पर पहली क्रिया में सप्तमी होती हैं । पर्मवाच्य में कर्म मौर कृदन्त में सप्तमी होती हैं, कर्ता में तृतीया होती है । 74 ] समयसार Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 - इस प्रकार जम्पदे (जम्प) व 3/1 सक लोगो (लोग) 1/11 तह (अ)= उसी प्रकार ववहारेण (ववहार) 3/1 कद (कद) भूकृ !/1 अनि पाणावरणादि [ (रणाणावरण) + (आदि) ] [ (णाणावरण)- (आदि)1 मूल शब्द 1/1] जीवेण (जीव)3/1 59 उप्पादेदि (उप्पाद) व 3/1 सक करेदि (कर) व 3/1 सक य (अ) और बंधदि (वघ) व 3/1 सक परिणामएदि2 (परिणाम) व प्रेरक 311 सक गिण्हदि (गिण्ह) व 3/1 सक य (अ) =और प्रादा (पाद) 1/1 पोंग्गलदव्वं [ (पॉग्गल)-(दव्व) 2/1] ववहारणयस्स (ववहारणय) 6/1 बत्तन्व (वत्तव्व) 1/1 जह (अ) जमे राया (राय) 1/1 ववहारा (ववहारा) 5/1 दोसगुण पादगो [ (दोस) + (गुण) + (उप्पादगो) ] [ (दोस)(गुण)-(उप्पादग) 1/1 वि] ति (अ)समाप्ति-सूचक पालविदो (मालव) भूकृ 1/1 तह (म)=वैसे ही जीवो (जीव) 1/1 ववहारा3 (ववहारा) 5/1 दम्वगुण पादगो [ (रध्व) + (गुण) (उप्पादगो) ] [ (दन्व)-- (गुण)-(उप्पादग) 1/1 वि] भणिदो (भण) भूक 1/1 61 ज (ज) 2/1 सवि कुणदि (कुण) व 3/1 सक भावमादा [ (भाव)+(प्रादा) ] भाव (भाव) 2/1 मादा (पाद) 1/1 कता (कत्तु) 1/1 वि सो (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 पद्य में किमी भी कारक के लिए मूल सा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशल प्राकृत भापामो का व्याकरण, पृष्ठ 517) 2 प्रेरणार्थक बनाने के लिए 'ए' मादि प्रत्यय जोडे जाते है (परिणाम+ए) परिणामेदि किन्तु यहां मात्रा के लिए 'ए' को अलग रखा गया है मत परिणामपदि 3 किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए (स्त्रीलिंग भिम्न) सहा मे तृतीया या पचमी का प्रयोग किया जाता है। चयनिका [ 75 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक तस्स (त) 6/1 स कम्मस्स (कम्म) 6/1 गाणिस्स (णारिण) 6/1 वि दु (अ)=पाद-पूर्ति सारणमग्रो (णाणमन) 1/1 वि अण्णाणमनो (प्रणाणमन) 1/1 वि अगाणिस्स (अगाणि) 6/1 वि 62 अण्णाणमत्रो (अण्णाणमप्र) 1/1 वि भावो (भाव) 11 प्रणारिणणो (अणारिण) 6/1 वि कुरणदि (कुण) व 3/1 मक तेरण (अ)=इमलिए कम्माणि (कम्म) 2/2 गाणमनो (णाणमप्र) 1/1 वि रणारिणस्स (गाणि) 6/1 वि दु (अ)=परन्तु (अ) =नही तम्हा (अ)= इसलिए दु (अ)=पाद-पूर्ति कम्माणि (कम्म) 2/2 णाणमया (णाणमय) 5/1 वि भावादो (भाव) 5/1 गारणमनो (णाणमय) 1/1 वि चेव (अ) ही जायदे (जाय) व 3/1 मक भावो (भाव) 111 जम्हा (अ)=चूकि तम्हा (म)=इसलिए गाणिस्स (पाणि) 6/1 सव्वे (मव्व) 1/2 भावा (भाव) 1/2 हु (अ)=ही पारगमया (णारगमय) 1/2 अण्णाणमया (अण्णाणमय) 5/1 भावा (भाव) 5/1 अण्णायो (अण्णाण) 1/1 चेव (प्र)=ही जायदे (जाय) व 3/1 अक भावो (भाव) 1/1 जम्हा (अ)= कि तम्हा (अ)=इसलिए भावा (भाव) 1/2 अण्णाणमया (अण्णाणमय) 1/2 प्रणारिणस्स (प्रणारिण) 6/1 65 कणयमया (कणयमय) 5/1 वि भावादो (भाव) 511 जायते (जाय) व 3/2 अक कुडलादयो [ (कु डल) + (प्रादयो) ] [ (कु डल)-(आदि) 1/2 ] भावा (भाव) 112 अयमयया 1 [जा+ (य)] जा' में 'य' विकल्प से जोडा गया है। 76 ] समयसार Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 अण्णारणमया ( ग्रण्णारणमय) 1/2 भावा (भाव) 1/2 श्रणारिणो ( गारिग) 6 / 1 बहुविहा (बहुविह) 1/2 वि (प्र) = ही जायते (जाय) व 3 /2 ग्रक गाणिस्स (गारिण) 6 / 1 दु ( अ ) = तथा गाणमचा ( सारणमय) 1 / 2 सव्वे (मन्त्र) 1/2 सवि तहा ( अ ): वैसे ही होति (हो) व 3 /2 क = 67 जोवे' (जीव) 7 / 1 कम्म (कम्म) 1 / 1 बद्ध (बद्ध ) भूकृ 1 / 1 अनि पुट्ठ (पुट्ठ) भूकृ 1 / 1 प्रनि चेदि [ (च) + (इदि ) ] च (प्र) : और इदि (प्र) = इस प्रकार ववहारणयभिरिषद [ (ववहारणय ) - (भग) भृकृ 1 / 1 ] सुद्धरणयस्स (सुद्धरणय ) 6 / 1 श्रद्धट्ठ [ अवद्ध ) - ( अपुट्ठ ) ] [ ( प्रवद्ध ) - ( श्रपुट्ठ) भनि ] हवदि (हव) व 3 / 1 अक कम्म (कम्म) 1/1 दु ( अ ) = किन्तु भूकृ 1/1 68 ( प्रथम ) 5 / 1 विस्वार्थिक 'य' प्रत्यय जह ( अ ) == जैसे दु ( अ ) = और कयादी [ ( कड) + (प्रादी)] [ ( कडय) - ( आदि ) 1/2 ] 1 2 [ (बद्ध) भूकृ (जीव ) 7 / 1 एव कम्म (कम्म) 1/1 बद्धमवद्ध [ ( वद्ध) + (मबद्ध )] 1 / 1 अनि - ( प्रवद्ध ) भूकृ 1 / 1 श्रनि) जीवे2 ( एद ) 2 / 1 सवि तु (प्र) = तो जारण (जाण) विधि 2 / 1 सक गयपक्सल [ (राय) - ( पक्ख) 2/1] गयपक्खा तिक्ककतो [ (राय) - ( प्रतिक्कतो ) ] [ (राय) - ( पक्ख ) - ( प्रतिक्कत) 1 / 1 वि ] भादि ( भण्ादि ) व कर्म 3 / 1 सक अनि जो (ज) 1 / 1 सवि सो (त) 1 / 1 सवि समयसारो ( समयसार ) 1/1 कभी कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम - प्राकृत - व्याकरण 3-135 ) कभी कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम - प्राकृत - व्याकरण 3-135 ) चयनिका [ 77 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 दोण्ह (दो) 612 वि वि (4) ही गयाण (गय) 6/2 भरिणद (भरिणद) 2/1 जागदि (जाण) व 3/1 मक गवरि (म)= केवल तु (म)=तो समयपरिवद्धो [ (समय)-(पडिवद्ध) भूकृ I/! अनि ] रण (म)== नही दु (अ)=पाद-पूर्ति पयपक्वं [ (राय)(पक्ख) 2/1 ] गिण्हदि (गिण्ह) व 2/1 सक किंचि (प्र)= थोडी वि (प)= भी रायपक्खपरिहोणो [ (एय)-(पक्ख) (परिहीण) भूक 1/1 अनि ] 70 सम्मइसणणाण [ (सम्महसण)-(णाण) 2/1 एसो (एत) 1/1 सवि लहदि (लह) व 3/1 सक त्ति (अ)=इस प्रकार गवरि (प्र) केवल ववदेस (ववदेस) 2/1 सम्वरणयपक्खरहिदो [ (सन्च)(एय)-(पक्ख)-(रह) भूकृ 1/1] भरिणदो (भण) भूकृ 1/1 जो (ज) 1/I सवि सो (त) 1/1 सवि समयसारो (समयसार) 1/1 71 कम्ममसुह [ (कम्म) + (मसुह) ] कम्म (कम्म) 1/1 असुह (असुह) 1/1 वि कुसोल (कुसील) 1/1 वि सुहकम्म [ (सुह) -(कम्म) 1/1 चावि (अ) और जारणह (जाण) विधि 2/2 सक सुसील (सुसील) 1/1 वि किह (प्र) कैसे त (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 अक ज (ज) 1/1 सवि ससार (ससार) 2/1 पवेसेवि (पवेस) व 3/1 सक 72 सोवणिय (सोवण्णिय) 1/1 वि पि (म)=भी रिणयल (रिणयल) 1/1 बदि (वध) व 3/1 सक कालायस [ (काल)+(प्रायस)] [ (काल)-(प्रायस) 1/1 वि ] पि (म)=और जह (म)=जैसे पुरिस (पुरिस) 1/1 एव (भ) वैसे ही जीव (जीव) 2|| सुहमसुह [ (सुह) + (मसुह) ] सुह (सुह) 1/1 वि असुह (प्रसुह) 1/1 वि वा कद (कद) भूक 1/1 अनि कम्म (कम्म) 1/1 78 ] समयसार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 74 76 75 एमेव ( अ ) = इसी प्रकार कम्मपयडी [ ( कम्म ) - ( पयडि ) 1 / 1 ] सोलसहाव [ ( मोल ) - (सहाव ) 2 / 1 ] हि (प्र) - निश्चय ही कुच्छिद (कुच्छिद ) 2 / 1 वि गाडु ( रा ) सकृ वज्जति ( वज्ज) व 3/2 तक परिहरति (परिहर) व 3 / 2 सक य 2 / 1 सवि ससरिंग ( ससग्गि) 211 भूकृ 1 / 2 पनि ] (प्र) = भोर त (त) सहावरदा [ ( सहाव ) - ( रद) 1 2 तम्हा (प्र) = इमलिग दु (प्र) = तो कुसोलेहि (कुसील) 3 / 2 वि य ( प्र ) = विल्कुल राग (राग) 2 / 1 मा (प्र) = मत काहि (का) विधि 2 / 1 मक व ( अ ) = प्रोर ससरिंग (मसरिग) 2 / 1 साधीणो ( माषीण) 111 वि हि (प्र) = क्योकि विरणासो (विरणास ) 1/1 कुसीलससग्गिरागेण [ ( कुसील) - ( समग्गि ) - (राग) 3 / 1 ] जह ( 7 ) == जैसे गाम ( प्र ) = निश्चय ही को 2 वि ( क ) 1/1 स पुरिसो ( पुरिस) 1 / 1 कुच्छियसील [ ( कुच्छियसील) 2 / 1 वि जरण ( जरग ) 2 / 1 वियाणित्ता (वियाग) सकृ वज्जेवि ( वज्ज) व 3 / 1 सन तेरण (त) 3 / 1 स समय (प्र) : ) = साथ ससग्ग (ससग्गि) 2/1 रागकरण [ (राग) - (करण) 2 / 1 ] चु (अ) = और रतो ( रत्त) भूकृ 1 / 1 अनि बधदि (वध) व 3 / 1 सक कम्म (कम्म) 2/1 मुञ्चदि ( मुञ्च) व 3 / 1 सक जीवो (जीव) 1/1 विरागसपण्णी [ ( विराग ) - (सपण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि ] एसो ( एत) 1 / 1 सवि जिरगोवदेसो [ ( जिरण) + (उवदेमो) ] [ (जिरण) - ( उवदेस) 1/1] तम्हा (प्र) = इसलिए कम्मे (कम्म) 7/1 मा (प्र) = | = मत रज्ज (रज्ज) विधि 2/1 अक - प्रनिश्चय अर्थ प्रकट करने के लिए 'क' के साथ वि भादि जोड दिये जाते हैं । 'साथ' के योग में तृतीया होती है । चयनिका [ 79 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 परमट्ठो (परमट्ठ) 1/1 खलु (प्र)=निश्चय ही समग्रो (ममन) 1/1 सुद्धो (मुद्ध) भूक 1/1 अनि जो (ज) 1/1 मवि केवली (कलि) 111 वि मुणी (मुणि) 1/1 वि पाली (गारिण) 1/1 वि तम्हि (त)7/1 स ट्ठिवा (ट्ठिद) भू 1/2 अनि सहावे (महाव) 7/1 मुरिगणो (मणि) 1/2 वि पावति (पाव) व 3/2 मक रिणवारण (रिणवाण) 2/1 78 परमम्मि (परमट्ट) 7/1 दु (अ) =किन्तु प्रठिदो (अठिद) भूकृ 1/1 अनि जो (ज) 1/1 सवि फुणदि (कुण) व 3/1 मक तव (तव) 2/1 वद (वद) 2/1घ (अ) =और धारयदि (धारयदि) व 3/1 मक अनि त (त) 21 सवि सच (मन्व) 2/1 वि बालतव [ (वाल) वि-(तव) 2/1] वालवदं [ (वाल) वि(वद) 2/1 ] विति (बू) व 3/2 सक सन्वण्ह (मन्वप्ह) 1/2 वि 79 वदणियमाणि [ (वद)-(रिणयम) 2/2 ] घरता (घर) वकृ 1/2 सीलाणि (मील) 2/2 तहा (प्र)=तया तव (तव) 2/1 च (प्र)=और कुव्वता (कुन्य) व 1/2 परमट्टवाहिरा [ (परमट्ट) -(वाहिर) 1/1वि जे (ज) 1/2 मवि णिवाणं (रिणवाण) 2/1 ते (त) 1/2 सवि ण (अ)=नही विदति (विंद) व 3/2मक 80 परमट्टवाहिरा [ (परमट्ठ)-(वाहिर) 1/2 वि ] जे (ज) 1/2 सवि ते (त) 1/2 सवि अण्णाणेण (अण्णाण) 3/1 पुण्णमिच्छति [ (पुण्ण)+ (इच्छंति) ] पुण्ण (पुण्ण) 2/1 इच्छति (इच्छ) व 312 सक संसारगमणहेदु [ (संसार)-(गमण)-(हेदु) 2/1] वि (अ) =और मोक्खहेदु [(मोक्ख)-(हेदु) 2/1] प्रयाणता (प्रयाण) वकृ 1/2 80 ] समयसार Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 जीवादीसद्दहण [ (जीव) + (प्रादी')+ मद्दहण) ] [ (जीव (पानी)-(सदृहण) 1/1] सम्मत्त (सम्मत्त) 1/1 तेसिमधिगमो [(तमि) । (अधिगमो)] तेमि (न) 612 स अधिगमो (अधिगम) 1/1 णाण (णाण) 11| रागादीपरिहरण [(राग) + (ग्रादी)+ (पग्हिरण)] [(राग)-(प्रादी)-(परिहरण) 1/1 चरण (चरण) 1/1 एसो (एत) 1/1 सवि दु (अ)=ही मोक्खपही [ (मोक्ख) (पह) 111] 82 मोत्तण (मोत्तूण) सकृ अनि णिच्छय? [ (रिणच्छय)+ (अट्ठ) J [(पिच्छय)-(अट्ठ) 2/! ववहारेण (ववहार) 3/1 विदुसा (वदुस) 1/। वि पवट्टति (पवट्ट) व 3/2 प्रक परमट्ठमस्सिवारण [(परमट्ठ) + (अस्मिदाण)] परमट्ठ (परमट्ठ) 2/1 अस्सिदारण (प्रस्सिद) भूक 6/2 अनि दु (अ) ही जदीण (जदि) 612 कम्मक्खनो [(कम्म)- (क्खन) 1/1] होदि (हो) व 3/1 प्रक 83 वत्थस्स (वत्य) 6/1 सेदभावो [ (सेद)वि-(भाव)1/1 ] जह (अ) =जिम प्रकार णासदि (पास)43/[अक मलविमेलणाच्छण्णो [(मल) + (विमेलण) + (आच्छण्णो)] [(मल)-(वि-मेलण)(आच्छण्ण) भूकृ 1/1 अनि] मिच्छत्तमलोच्छण्ण [ (मिच्छत्त)+ (मल) + (उच्छण्ण) ] [ (मिच्छत्त)-(मल)---(उच्छण्ण। भूक 1/1 अनि तह (अ)= उसी प्रकार सम्मत्त (मम्मत्त) 1/1 ख (अ) = निश्चय ही रणादव (गा) विधिक 1/1 1 समासगत शब्दो मे स्वर हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाया करते हैं। यहाँ 'मादि' के स्थान पर 'प्रादी' हुमा है । (हेम-प्राकृत व्याकरण 1-4) 2 कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-137) 3 'अस्सिद' कर्म के साथ फतवाच्य मे कभी कभी प्रयुक्त होता है। चयनिका [ 81 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 प्रणामलोच्द्रण [ ( अण्णारण ) - (मल) + [ ( अण्णाण ) - ( मन ) - ( उच्छण) भूकृ 1 / 1 होदि (हो) व 3 / 1 प्रक 1 / 1 श्रनि] ( बाकी के 85 कस्सायमलोच्छण्ण [ ( कस्माय) + (मल) + (उच्टण)] [(कस्साय ) - (मल) – (उच्ण्ण) भूकृ 1 / 1 प्रनि ] चारित (चारित) 1/1 पि ( अ ) = भी (बाकी के लिए देखें 83 ) - 86 Cate सो (त) 1 / 1 सवि सव्वरणारादरिसी [ ( सव्व) वि- (गाण) - ( दरिमि) 1/1 वि ] कम्मरयेण [ ( क्म्म) (ग्य) 3/1] गिएणावच्छृण्णो [(खिएण) + ( प्रव - छण्णो ) ] रिगए (गिम) 3/1 प्रवणो (व छण्ण) 1 / 1 वि ससारसमावो [ (संसार) - ( ममावण्ण) 1 / 1 वि] ग ( ) = नही विजारदि (विजारण) व 3/1 सक सव्वदो (प्र) = पूर्णरूप से सव्व (मन्त्र) 2 / 1 सवि 87 पत्थि (प्र) नही होता है दु (अ) इसलिए श्रासवबंधो [ ( ग्रामव) - (वध) 1/1] सम्मादिट्ठिस्स ( सम्मादिट्ठि) 6/1 आसवणिरोहो [ ( प्रासव ) - ( गिरोह ) ] 1 / 1 संते ( मत) 2/2 वि पुव्वरिणवद्धे [ (पुत्र) वि (विड) भूकृ 2/2 अनि ] जारगदि (जाण) व 3 / 1 सक सो (त) 1 / 1 सवि ते (त) 2/2 सवि श्रवघतो (अवंध) वकृ 1 / 1 ―― (उच्छृण्ण ) ] खाण (गाण) लिए देखें 83 ) = ― 88 भाबो (भाव) 1 / 1 रागादिजुदो [ (राग) + ( श्रादि) + (जुदो ) ] [ (राग) - ( आदि ) - (जुद ) 1/1 वि ] जीवेण (जीव ) 3 / 1 कबो (कद) भूकृ 1 / 1 अनि दु ( अ ) = ही बंधगो ( बंधग) 1 / 1 वि होदि (हो) व 3 / 1 क रागादिविष्पसुक्को [ (राग) + (आदि) + (विप्मुक्को) ] [ (राग) - (भादि ) - (विप्यमुक्क) 1 / 1 वि] अवधगो ( प्रववग) 1/1 वि जागो ( जागग) 1 / 1 वि गवरि ( अ ) = केवल 82 ] समयसार Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 पक्के (पक्क) 7/1 वि फलम्मि (फल) 7/1 पडिदे। (पड) भूक 7/1 जह (अ)जैसे रण (अ)-नही फल (फल) 1/1 बज्झदे (वज्झदे) व कर्म 3/1 सक अनि पुरणो (अ)=फिर से विटे (विट) 7/1 जोवस्स (जीव) 611 कम्मभावे [(कम्म)-(भाव) 7/1] पुरणोदयममुवेदि [(पुण) + (उदय) + (उवेदि)] पुरण (अ)= फिर से उदय (उदय) 2/1 उवेदि (उवि) व 3/1 सक 90 रागो (राग) 1/1 दोसो (दोस) 1/1 मोहो (माह) 1|| य (अ) =और पासवा (प्रामव) 1/2 रणस्थि (म)=नही होते हैं सम्मदिट्ठिस्स (सम्मदिट्ठि)6/1 तम्हा (म)== इसलिए प्रासवभावरण [(प्रामव)-(भाव) 3/1] विणा (प्र)= विना हेदू (हेदु) 1/! ण (अ)-नही पच्चया (पच्चय) 1/2 होति (हो) व 3/2 अक 91 उवप्रोगे (उवयोग) 711 उवमोगो (उदप्रोग) 1/1 कोहादिसु (कोहादि) 7/2 अनि एत्थि (अ)=नही रहती है को वि (क) 1/1 सवि कोहे (कोह) 7/1 कोहो (कोह) 1/1 चेव (प्र)=ही हि (अ)-इसलिए खलु (म)=निश्चय ही 92 एद (एद) 1/1 सवि तु (अ)=पादपूरक अविवरीद (अविवरीद) 1/1 वि गाण (पाण) 1/1 जइया (म)= जिस समय दु (म)=निश्चय ही होदि (हो) व 3/1 अक नीवस्स (जीव)6/1 तइया (म)=उस समय ए (म)=नही किंचि (क) 1/1 सवि कुव्ववि (कुम्व) व 3/1 सक भाव (भाव) 2/1 उवभोगसुखप्पा [(उवनोग)-(सुटप्प) 1/1] 93 जह (म)=जैसे करणयमग्गितविय [ (करण्य) + (मग्गि)+ (तविय)] करणय (करणय) 1/1 [(मग्गि)-(तव) भृकृ 1/1] 1 गाथा 36 देखो। चयनिका [ 83 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 95 पि ( 2 ) =भी करणवसहाव ( करणय ) - (सहाव ) 2 / 1] ग ( ) = नही त ( प्र ) : == वाक्य की शोभा परिच्चयदि (परिचय) व 3 / 1 सक तह ( प्र ) = वैसे ही कम्मोदयतविदो [ (कम्म) + (उदय) + (नविदो ) ] [ ( कम्म ) - (उदय) - (तव ) भूकृ 1 / 1] जहदि (जह ) व 3 / 1 सक गासी (गारिण) 1/1 विदु (प्र) = भी खालित (ufua) 2/1 96 एव ( प्र ) - इस प्रकार जारदि (जाण) व 3 / 1 सक गाणी (रागि) 1 / 1 वि श्रवणाखी (प्रणारिण) 1/1 वि मुरदि ( मुरण) व 3/1 सक रागमेवाद [ (राग) + (एव) + (प्राद) ] राग (राग) 2 / 1 एव (प्र) = ही प्राद ( द ) 2 / 1 अण्णारणत मोच्छरण [ ( अण्णारण) + (तम) + (उच्च) ] [ ( अण्णारण ) - ( तम) - (उद्धरण) भूकृ 21 अनि ] [ ( प्राद) - ( महाव ) 2 / 1 ] श्रयाणतो दसहाव (अयारण) वकृ 1/1 सुद्ध (सुद्ध) 2/1 वि तु (प्र) = पादपूर्ति विद्याणतो ( वियारण) वकृ 1/1 विसुद्धमेवप्पय [ ( विसुद्ध ) + (एव) + ( श्रपय)] विसुद्ध ( विसुद्ध ) 2 / 1 वि एव (प्र) = ही अप्पयं ( अप्प ) 2 / 1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय लहदि (लह) व 3 / 1 सक जीवो (जीव) 1/1 जाणतो (जाण) व 1 / 1 दु (प्र) = तथा असुद्ध ( असुद्ध ) 2 / 1 वि श्रसुद्धमेवप्पय [ (असुद्ध ) + (एव) + ( श्रप्पय ) ] असुद्ध (प्रसुद्ध) 2 / 1 वि एव ( अ ) = ही अप्पय ( अप्प ) 2 / 1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय अप्पारणमप्परगा [ ( अप्पारण) + (अप्परगा ) ] प्रमाण (अप्पा) 2/1 प्रणा (ग्रप्प ) 3 / 1 रु घिण ( रूघ) संकृ दोपुण्णपाव जोगेसु [ (दो) – (पुष्ण) – (पाव) – (जोग) 7 / 2 [ ( दमरण) - (सारण) 7/1] ठिदो ( ठिद) भूकृ 1 / 1 अनि इच्छा विरदो - - ] दंसणगारसम्हि 84 ] समयसार Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ (इच्छा)-(विरद) भकृ ||| अनि ] य (अ) तथा अण्णम्हि (अण्ण) 711 97 जो (ज) 1|| मवि सन्वसगमुक्को [(मन्त्र) वि - (सग)-(मुक्क) भूक 111 अनि ] झायदि (भा) व 3/1 सक अप्पारगमप्पणा [ (अप्पाग) + (अप्पणा) ] अप्पारण (अप्पारग) 2/1 अप्पणा (अप्प) 3 11 अप्पा (अप्प) I/I ण (प्र)= नहीं वि (प्र)-कभी कम्म (कम्म) 1/1 पोकम्म (लोकम्म) 1/1 चेदा (चेद) 1/1 चितेदि (चित) व 3/1 मक एयत्त (ण्यत्त) 2/1 98 अप्पाण (अप्पारण) 211 झायतो (भा) वकृ 1/1 दसणणाणमइओ [(दसण)-(णाणमइन) 1/1 वि] अणण्णमत्रो (अणण्णमन) 1/1 वि लहदि (लह) व 3/1 मक प्रचिरेण (क्रिविन)-शीघ्र अप्पारणमेव [ (अप्पारण) + (एव) ] अप्पाण (अप्पारण) 2/1 एव (अ)=ही सो (त) 1|| सवि कम्मपविमुक्क [ (कम्म)(पविमुक्क) भूकृ 2/1 अनि] जह (प्र) = जैमे विसमुव मुज्जतो [(विस) + (उवमुज्जतो)] विस (विम) 11 उवमुज्जतो (उवमुज्जतो) वकृ कर्म 1/1 प्रनि वेज्जो (वेज्ज) 1/1 वि पुरिसो (पुरिस) 1/1 रण (अ)=नही मरणमुवयादि [ (मरण) + (उवयादि) ] मरण (मरण) 2/1 उवयादि (उवया) व 3/1 सक पोग्गलकम्मस्सुदय [(पोग्गल)+ (कम्मम्स) + (उदय)] [(पोग्गल)-(कम्म) 6/1] उदय 2/1 तह (प्र) =वैमे ही भञ्जदि (भुञ्ज) व 3/1 मक व (प्र)=नही वज्झदे (बज्झदे) व कम 3/1 मक भनि गाणी (णाणि) 1/1 वि 100 सेवतो (सेव) वकृ || वि (म)=भी ण (अ)=नही सेववि (सव) व 3/1 मक असेवमाणो (प्रसेव) वकृ 1/1 वि (अ)= किन्तु सेवगो (सेवग) 111 वि फो वि (क) 1/1 स पगरणचेट्ठा [ 85 चयनिका ५५ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [(प-गरण)-चिट्ठ) 5/1] कस्स (क) 6/1 स वि (प्र) =भी ण (अ)=नही य (अ)= बिल्कुल पायरो (पायरण) 1/1 वि त्ति (अ)=निश्चय ही सो (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 प्रक 101 उदयविवागो [(उदय)-(विवाग) 1/1] विविहो (विविह) 1/1वि कम्माण वि(कम्म)6/2 वण्णिदो(वण्ण)भूकृ1/1 जिरणवरेहि (जिणवर) 312 रण (अ)= नही हु (अ)=निश्चय ही ते (त) 1/2 सवि मज्झ (अम्ह ) 6/1 स सहावा ( सहाव ) 112 जाएगभावो [ (जाणग) वि-(भाव) 1/1] दु (अ) =तो अहमेक्को [ (ग्रह) + (एक्को ] अह (अम्ह) 1/1 स एक्को (एक्क) 1/1 सवि 102 एवं (अ)=इस प्रकार सम्मादिट्ठी (सम्मादिट्ठि) 1/1 वि अप्पारण (अप्पाण) 2/1 मुणदि (मुण) व 3/1 सक जाणगसहाव [ (जाणग)- (सहाव) 2/1] उदय (उस्य) 2|| कम्मविवाग [ (कम्म)-(विवाग) 2/1 ] च (अ)--और मुयदि (मुय) व 3/1 सक तच्चं (तच्च) 2/1 वियाणतो (वियाण) व 1/1 103 परमाणु मेत्तय [ (परमाणु) - (मेत्त) 1/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय ] पि (प्र) =भी हु (अ) =निस्सदेह रागादीण [ (राग)-(प्रादि) 6/2 ] तु (म)=पाद-पूर्ति विज्जदे (विज्ज) व 3/1 सक जस्स (ज) 6/1 सण (अ)=नही वि (अ) =तो भी सो (त) 1/1 सवि जागदि (जाण) व 3/1 सक अप्पारणयं (अप्पाण) 2/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय तु (अ)=पाद-पूर्ति सव्वागमषरो [ (सन्व) + (मागम) + (धरो)] [ (मन्व) वि-(आगम) (घर) 1/1 वि] वि (प्र)=भी 1 प्राकरणिक प्राकरण (वि) (Momer Williams. P 701 Col III ) ! 86 ] समयसार Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 104. अप्पा मारतो [ (गप्पारण) - (प्रयाणतो) ] प्रप्पारण (अप्पारण) 21 प्रयागतो (प्र-- शरण) वकृ 1 / 1 प्रणव्यय ( प ) 2/1 स्वायिक य' प्रत्यय चावि [(च) प्रावि) ] च (प्र) = ओर प्रावि (प्र) = मी सो (त) 1 / 1 सवि प्रयाणतो ( प्र - यारण) वकृ 1 / 1 किह (प्र) कैसे होदि' (हो) व 3 / 1 अक सम्मदिट्ठी ( सम्मदिट्टि) 1/1 वि जीवाजीवे [ (जीव) + (प्रजीवे) ] [ (जीव) - (प्रजीव) 27/1 ] 105. लाल गुरोग [ ( लाग) - ( गुण ) 3 / 1 ] विहोगा ( विहीण ) 5 / 1 वि एद (एद ) 2 / 1 मवि तु (घ) पाद-पूर्ति पद (पद) 2/1 ag (g) 1/2 fa fa (x) = | = प्रत ग ( प्र ) = नही लहति ( लह) व 3/1 सक त (श्र) = इसलिए गिव्ह (गिण्ह ) विधि 2 / 1 सक रियदमेद [ (यिद ) + (एद ) ] गियद ( रिणयद ) 2 / 1 वि एद (एट) 2 / 1 सवि नदि (प्र) = यदि इच्छसि (इच्छ) व 2 / 1 सक कम्मपरिमोक्स [ ( कम्म ) - ( परिमोक्स) 2 / 1 ] 106 एदम्हि (एम) 7 / 1 मवि रदो (रद) भूकृ 1 / 1 प्रनि खिच्च (प्र) सदा सतुट्ठो (संतुदठ) भूकृ 1 / 1 अनि होहि (हो) विधि 2/1 क रिच्चमेदम्हि [ ( णिच्च) + (एदम्हि ) ] णिच्चं (प्र) = सदा एदम्हि (एद ) 7/1 सवि एदेण (एद ) 3 / 1 स तित्तो (fan) 1/1 fa fzfz (¿ì) ufa 3/1 asF JE (IFE) 4/1 स उत्तम (उत्तम) 1/1 वि सोक्ख (सोक्ख) 1 / 1 प्रश्नवाचक शब्दो के साथ वर्तमान काल का प्रयोग प्राय भविष्यत् काल के अथ मे होता है । कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम प्राकृत - व्याकरण 3-135 ) किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए सज्ञा में तृतीया या पचमी का प्रयोग किया जाता है । चयनिका 1 2 3 [ 87 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 मज्झ (अम्ह) 6/1 म परिग्गहो (परिगह) 1/1 जदि (प्र) = यदि तदो (अ)=नत्र प्रहमजीवद [ (ग्रह)+(प्रजीवद)] ग्रह (अम्ह) 1/1 म अजीवद (अजीवदा) 211 तु (म)=ही गच्छेज्ज (गच्छ) भवि 1/1 सक णादेव [ (णादा) + (एव) ] णादा (रणादु) 1/1 वि एव (अ)=ही जम्हा (प्र)= कि तम्हा (अ) - इसलिए ण (प्र) =नही परिग्गहो (परिगह)1/1 मज्झ (मम्ह) 6/1 स 108 छिज्जदु (छिज्जदु) विधिकर्म 3/1 मक अनि वा (अ) अथवा भिज्जद् (भिज्जदु) विधिकम 3/1 सक अनि णिज्जदु (रिणज्जदु) विधिकम 3/1 सक अनि अहव (अ)==या जादु (जा) विधि 3/1 सक विप्पलय (विप्पलय) 1/1 जम्हा तम्हा (प्र)= किसी कारण से गच्छदु (गच्छ) विधि 3/1 सक तहावि (अ)=तो भी ण (म) =नही परिगहो (परिग्गह) 1/1 मज्झ (अम्ह) 6/1 स 109 अपरिग्गहो (अपरिग्गह) 1/1 वि अणिच्छो (परिणय) 1/1 वि भणिदो (भण) भूकृ 1/1 गाणी (पाणि) 1/1 वि य (प्र)-भी णेच्छदे [ (ण)+ (इच्छदे) ] ण (प्र)=नही इच्छदे (इच्छ) व 3/1 सक धम्म (धम्म) 2/1 अपरिगहो (अपरिग्गह) 1/1 वि दु (अ)=तो धम्मस्स (धम्म) 6/1 जाणगो (जाणग) 1/1 वि तेण (प्र)-इसलिए सो (त) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 प्रक 110 प्रधम्म(अधम्म) 2/1 अघमस्स(अधम)611 बाकी के लिए देखें 109 - 111 एमादिए [ (एम)+ (आदिए) ] एम (म)- इस प्रकार आदिए (मादिय) 1/1दु (अ)=पादपूरक विविहे (विविह) 2/2 वि 1 विप्रलय ( विप्पलय) सर्वनाश ( भाप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश )। 88 ] समयसार Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वे (मध्व) 212 सवि भावे (भाव) 2/2 य (अ)पादपूरक गेच्छदे [ (ण)+(इच्छदे)] ण (म)-नही इच्छदे (इच्छ) व 3/1 सक गाणी (गाणि) 11 वि जाणगभावो [ (जाणग)(भाव) 11 ] मियदो (रिणयद) 1/1 विणीरालबो (गीरालय) 1/1 वि दु (प) तथा सव्वत्थ (अ)-हर ममय 112 गाणी (णारिण) 1/1 वि रागप्पजहो [ (राग)-(प्पजह) 1/1 वि] हि (अ)निश्चय ही सम्वदम्वेसु [ (सम्ब)-(दन्व) 712] कम्ममझगदो [ (कम्म)- (मझ)- (गद) भूक 1/1 अनि] गो (प्र)-नही लिप्पदि (लिप्पदि) व कर्म 3/1 सक अनि रजएण (रजम) 3/1 दु (प्र)-प्रत कदममज्झे [ (कम) (मझे) 7/1 जहा (अ)-जिस प्रकार फणय (कणय) 1/1 113 अण्णाणी (अण्णारिण) 1/1 वि पुण (अ)ीर रत्तो (रत्त) भूक 1/1 अनि हि (अ)=निस्सदेह सव्वदन्वेसु [ (सन्व)-(दव) 712 ] फम्ममज्झगदो [ (कम्म)-(मज्झ)-(गद) भूक 1/1 अनि ] लिप्पवि (लिप्पदि) व कर्म 3/1 सक अनि कम्मरयेण [ (कम्म)-(रय) 3/1 ] दु (प्र)-प्रत कद्दममझे [ (कद्दम) ---(मज्झ) 7/1] जहा ( अ जिस प्रकार लोह (लोह) 1/1 114 भुजतस्स (मुज) वकृ 6/1 वि (प्र)=भी विविहे (विविह) 212 वि सचित्ताचित्तमिस्सिए [ (मचित्त) + (प्रचित्त) + (मिस्सिए)] [ (सचित्त)-(अचित्त)-(मिस्म) भूक 2/2 ] दब्वे (दव्व) 2/2 सखस्स (सख) 6/1 सेदभावो [(सेद) वि(भाव) 1/1] ण वि (अ)-कभी नही सक्कदिः (मक्कदि) व कर्म 3/1 सक भनि फिण्हगो (किण्ह) 1/1 वि स्वार्थिक 'ग' प्रत्यय कादु (कादु) हे अनि 1 हेत्वयं कृदन्त (कादु) के साथ 'सक्कदि को कर्म वाच्य का अर्थ दिया जाता है। - - चयनिका [ 89 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115. तह (अ)=उमी प्रकार पाणिस्स (गाणि) 611 दु (अ)= पादपूर्ति विविहे (विविह) 2/2वि सचित्ताचितमिस्सिए[(सरित)+ (प्रचित्त)+ (मिस्मिए)] [ (सच्चित्त)-(प्रचित्त)-(मिस्स) भूक 212] दन्वे (दन्व) 2/2 भुजतस्स (मुज) वक 6/11 वि (म) =भी गाण (सारण) 1/1 रण (म)=नहीं सक्कमपणाणदं [(सक्क) + (अण्णाणद)] सक्कं (मक्क) विधिक 1/1 पनि, अण्णारणदा (अण्णाण) 2/1 वि स्वार्थिक 'द' प्रत्यय गेदु (गो) हेक अनि 116 जइया (प्र)= नब स (त) 1/1 सवि एव (प्र) ही संखो (मन) 1/1 सेदसहाव [ (सेद) वि-(महाव) 2/1] सय (म)=स्वय पनहिरण (पजह) सकृ गच्छेज्ज (गच्छ) व 3/1 सक किण्हभावं [(किण्ह)-(भाव) 2/1] तइया (प्र)=तव सुक्कत्तण (सुक्कत्तण) 211 पनहे (पजह) व 3/1 मक 117 तह (अ)=उमी प्रकार गाणी (णाण) 1/1 वि वि (अ)=भी हु (अ)=निश्चय ही जइया (अ) जब गाणसहावं [(णाण)(सहाव) 2/1] सय (अ) स्वयं पजहिदूण (पजह) म अण्णाणेण (अण्णाण) 3/1 वि परिणदो (परिणद) भूकृ 1/1 अनि तइया (प्र)=तव अण्णाद (अण्णाण) 2/1 वि स्वार्थिक 'द' प्रत्यय गच्छे (गच्छ) व 3/1 मक 118 सम्मादिट्ठी (सम्मादिट्टि) 1/2 जीवा (जीव) 1/2 णिस्सका (णिस्सक) 1/2 वि होति (हो) व 3/2 अक णिन्भया (णिभय) 1/2 वि तेण (अ)= इसलिए सत्तभयविप्पमुफ्का [(सत्त) वि(भय)- (विप्पमुक्क) 1/2 वि] जम्हा (अ)-चूकि तन्हा (अ)--इसलिए दु (अ)=निश्चय ही 1 गमन अर्थ में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुमा है। 90 ] समयसार Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = पादपूरक ण ( कख (कन ) 2/1 119 जो (ज) 1/1 मवि (कर) व 3 / 1 गक कम्म फले (फल) 2/2] तह य ( प्र ) = तथा सव्वधम्मेसु र [ ( सच्च) --- (धम्म) 7/2] सो (त) 1 / 1 सवि णिक्कखो ( रिक्कस) 1 / 1वि चेदा (वेद) 1/1 सम्मादिट्ठी ( मम्मादिट्ठि) 1/1 मुदव्वो (मुण) विधि 1/1 दु ( प्र ) = 1 ) 120 दुगञ्छ (दुगञ्छ ) 2 / 1 सव्वेसिमेव [ ( मव्वेसि) + (एव) ] सव्वेनिय (मन्त्र) 6 / 2 वि एव (प्र) = भी. धम्माण' (धम्म) 6 / 2 सो (त) 1 / 1सवि खलु प्र ) = निश्चय हो णिव्विदिगियो (छ) 1 / 1 सम्मादिट्ठी ( सम्मादिट्ठि) 1/1 ( वाकी के लिए देखे 119 ) 121 हवदि (हव) व 3 / 1 ग्रक सम्मूढो ( अमम्मूढ) 1 / 1 वि सहिट्टि (म- हिट्ठि) मूलशब्द 1 / 1 वि सव्वभावेसु [ ( सन्त्र ) - (भाव) 712] श्रमूढदिट्टी (प्रमूढदिट्ठि) 1/1 ( वाकी के लिए देखे 119 ) 2 = नही करेटि 122 सिद्धभत्तिजुत्तो [ ( मिद्ध) - (भत्ति ) - ( जुत्त) भूक 1/1 प्रनि ] उग्रहण गो ( उवगूहाग ) 1 / 1 विदु ( अ ) = श्रौर सव्वधम्माक्ष [(सव्व) - (घम्म) 6/2] उवग्रहणगारी ( उवगृहगार) 1 / 1वि बाकी के लिए देखें 119 4 [ (कस्म ) - 123 उम्मा (उम्मग्ग) 2 / 1 गच्छत (गच्छ) वकृ 2 / 1 सग ( सग ) 2 / 1 विपि (अ) पादपूरक मग्गे (मग्ग) 7/1 ठवेदि (ठव) व 3 / 1सक कभी कभी द्वितीया के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम-प्राकृत-व्याकरण, 3-135 ) । कभी कभी सप्तमा के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है । (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-134 ) 1 3 पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल शब्द काम मे लाया जा सकता है । ( पिशल प्राकृत भाषामो का व्याकरण पृष्ठ 517 ) 1, गमन भय की क्रियायो के साथ द्वितीया विभक्ति होती है । चयनिका - [ 91 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 जो (ज) 1/1 सवि कुणदि ( कुरण) व 31 / सक वच्छलत्त ( वच्छलत्त ) 2 / 1 तिन्ह (ति) 6 / 2 साहूण (साहू) 6/2 मोक्खमग्गमि [ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 7 / 1 ] सो (त) 1 / 1 सवि वच्छल भावजुदो [ वच्छल ) - (भाव) - (जुद ) 1 / 1 वि] सम्मादिट्ठी ( सम्मादिट्ठी) 1 / 1 वि मुणेदव्वो (मुख) विधि 1 / 1 6 125 विज्जारहरूदो [ (विज्जा ) + (रह) + ( प्रारूडो ) ] [ (विज्जा) - (रह ) 3 2 / 1] श्रारूढो ( श्रारूढ ) 4 भूकृ 1 / 1 अनि मरणोरहपहेसु [मरणोरह) - ( पह) 7 /2] भमइ (भम) व 3 / 1 सक जो (ज) 1/1 सवि चेदा (वेद) 1/1 सो (त) 1 / 1 सवि जिरणरणारण पहावी [ ( जिरण) - ( गाण) - ( पहावि) 1 / 1 वि] सम्मादिट्ठी ( सम्मादिट्ठि) 1 / 1 वि मुणेदव्वो (मृण) विधि 1/1 1 2 3 सक जो (ज) 1 / 1 सवि चेदा (चिद) 1 / 1 सो (त) 1 / 1 सवि ठिदिकरणाजुत्तो [ ( ठिदिकरणा ) 1 - ( जुत्त) 1 / 1 वि ] सम्मादिट्ठी ( सम्मादिट्ठि) 1 / 1 वि मुणेदव्वो (मुण) विधिकृ 1 / 1 4 5 6 समासगत शब्दो मे स्वर हस्व के स्थान पर दोघं मौर दोघ के स्थान पर हृस्व हो जाया करते हैं । यहाँ ठिदिकरण' का ठिदिकरणा' हुआ है । ( हेम - प्राकृत - व्याकरण 1-4 ) । कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-134 ) तीम्ह तिह (दीर्घ स्वर के भागे सयुक्त स्वर हो तो, उस दीर्घ स्वर का हस्व स्वर हो जाया करता है (हेम-प्राकृतव्याकरण 1-84 ) । कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( हेम - प्राकृत-व्याकरण 3 - 137 ) । 'प्रारूढ' प्राय कर्तृवाच्य में प्रयुक्त होता है । कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-135 ) । 'मरणोरह' = सकल्परूपी नायक, यहां 'रह' का भयं 'नायक' है । 92 ] समयसार Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 जह (अ)=जमे रणाम (म) वाक्यालकार को वि (क) 1/1 सवि पुरिसो (पुरिस) 1/1 गेहन्भत्तो [(णेह) -(भत्त) भूक 1/1 अनि दु (प्र) = पादपूरक रेण बहुलम्मि [ (रेणु)-(बहुल) 7/1] ठाम्मि (ठाण) 7/1 ठाइदूरण (ठाम) सकृय (म)= पादपूरक फरेदि (कर) व 3/1 सक सत्येहि (सत्य) 3/2 वायाम (वायाम) 21 127 दिददि (छिद) व 3/1 मक भिवदि (भिद) व 3/1 सक य (अ) =ीर तहा (प्र)=तथा तालीतलकयलिवसपिंडीपो [(ताली)(तल)-(कयलि)-(वस)-(पिडी) 2/2] सच्चित्ताचित्ताण [(सच्चित्त)+ (अचित्ताण)] [(सच्चित) वि-(अचित्त) 6/2] फरेदि (कर) व 3/1 सक दवारणमुवघाद (दव्वाण) + (उवधाद)] दवाण (दन्व) 6/2 उवघाद (उवधाद) 1/1 128 उवघाद (उवघाद) 2/1 कुन्वतस्स (कुन्व) वकृ 6/1 तस्स (त) 611 पाणाविहेहि (णाणाविह) 3/2 करणेहि (करण) 3/2 रिपच्छयदो (पिच्छय) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय चितेज्ज (चित) व 1/2 सक हु (अ)=पादपूक कि (क) 1/1 सवि पच्चयगो (पच्चय) 1/1 ग' स्वार्थिक दु (अ)=निश्चय ही रयवधो [(स्य) -(वध) 1/1] 129. जो (ज) 1/1 सवि सो (त) 1/1 सवि दु (अ)=पादपूरक गेहभावो [(णेह)-(भाव) 1/1] तम्हि (त) 7/1 स गरे (गर) 7/1 तेण (त) 3/1 स तस्स (त) 6/1 स रयवघो [(ग्य)- (वघ) 1/1] रिणच्छयदो [णिच्छय) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय विष्णेय (विण्णेय) विधिक 1/1 अनि ए (अ)=नहीं कायचेट्टाहि [(काय)-(चेट्ठ) 3/2] सेसाहिं (सेस) 312 वि चयनिका [ 93 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 एव (अ)= इस प्रकार मिच्छादिट्ठी (मिच्छादिट्ठि) 1/1 वि बट्ट तो (वट्ट) व 1/1 बहुविहासु [(बहु)-(विह। 7/2] चिठ्ठासु (चिट्ठा) 7/2 रायादी [(राय) + (प्रादि)] [(राय)-(आदि) 212] उवनोगे (उवप्रोग) 7/1 फुव्वतो (कुव्व) वकृ I/l लिप्पदि (लिप्पदि) व कम 3/1 सक अनि रयेण (रय) 3/1 131 जोगेसु (जोग) 712 अकरतो (प्र-कर) वकृ) 1/1 रागादी [(गग) + (प्रादी)] [(राग)-(प्रादि) 2/2] (बाकी के लिए देखें 130) 132 अज्भवसिदेण (मज्भवसिद) 3/1 बघो (वध) 1/1 सत्ते (नत्त) 2/2 मारेहि (मार) विधि 2/1 सक मा (अ)-मन व (अ) =अथवा एसो (एत) 1/1 सवि बघसमासो [ (वय)-(ममास) 1/1] जोवारण (जीव) 612 लिच्छपरणयस्त (णिच्छयणय) 6/1 133 एवमलिये [(एव) + (अलिये)] एव (प्र)=इस प्रकार अलिये (अलिय) 7/1 अदत्ते (अदत्त) 711 अवभचेरे (प्रवभचेर) 7/1 परिग्गहे (परिग्गह) 7/1 चेव (अ)=पादपूरक कोरदि (कीरदि) व कर्म 3/1 सक अनि अज्झवसारण (अज्झवमाण) 1/1 ज (ज) 1/1 सवि तेण (त) 3/1 स दु (अ) ही बज्झदे (वज्झदे) व कर्म 3/1 अनि पाव (पाव) 1/1 134 तह (अ) उमी प्रकार वि (अ)=ही य (म)=और सच्चे (मच्च) 7/1 दत्ते (दत्त) 7/1 बम्हे (बम्ह1 711 अपरिग्गहत्तणे (अपरिग्गहत्तण) 7/1 चेव (अ)=पादपूरक कीरदि (कीरदि) व कर्म 3/1 सक अनि अज्झवसारण (अज्झवमाण) 1/1 ज (ज) 1/1 अवि तेण (त) 3/1 स दु (प्र)=ही वज्झदे (वज्झदे) व कर्म 3/1 सक अनि पुण्ण (पुण्ण) 1/1 94 ] समयसार Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 वत्यु (वन) 2/1 पड़च्च (प्र)-प्राश्रय करके त (त) 1/1 सवि पुरण (प्र) =फिर अझयसारण (प्रज्झवसाण) 1/1 तु (अ) निम्मदेह होदि (हो) व 3/1 प्रक जीवाणं (जीव) 6/2 ए (प्र) नही हि (प्र) =वाम्नव में वत्युदो (वत्यु) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय दु (अ)=तो भी वधो (वघ) 1/1 अभवसाग (मग्भवमाए) 3/1 ति (म)=अत 136 एव (प्र) =उस प्रकार ववहारणपो (ववहारण) 1/1 पडिसिद्धो (पटिसिट) भूक 1|| अनि जाए (जाण) विधि 2/1 सक पिच्छपपयेण(रिणच्छयणय)3/1 पिच्छपरण्यासिदा[(पिच्छयणय) + (मासिदा)] [(पिच्छयणय)-(प्रासिद) भूक 1/2 अनि ] पुग्ण (प) =और मुरिगणो (मुरिण) 1/2 पावति (पाव) व 3/2 नक रिणवाणं (गिवारण) 2/1 137 मोरया (मोक्य) 2|| असद्दहतो (असद्दह) वकृ 1/1 अभवियसत्तो [(अभिवय) वि-(सत्त) 1/1] दु (अ)=भी जो (ज) 1/1 सवि अधोयेज्ज (अघी य) व 3/1 सक पागे (पाठ) 1/l ए (प्र)नही फरेदि (कर) व 3/1 सक गुण (गुण) 2/1 असहतस्स (असह) व 4/1 णाण (गाण) 2/1 तु (अ)-ती 1 श्रद्धा के योग में द्वितीय विभक्ति का प्रयोग होता है। 2 प्रकारान्त घातुपों के मतिरिक्त शेष स्वरान्त धातुमो में 'म (य)' विफल्प से जुटता है। प्रत यहाँ 'प्रपो+म (य) हुमा है। चयनिका [ 95 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 पायारादी [(आयार)+ (आदी)] [(आयार)-(प्रादि) 2/2] गाण (णाण) 1/1 जोवादी [(जीव) + (प्रादी)] [(जीव)(प्रादि)12/2] दसण (दमण) 1/1 च (अ)=पौर विष्णेय (विण्णेय) विधि 1/1 अनि एन्जावणिकर (रज्जीवरिणका) 2/1 च (अ)=पादपूरक. तहा (प्र)=इस प्रकार भरादि (भरण) व 3/1 मक चरित्त (चरित्त) 1/1. तु (प्र)=तो ववहागे (ववहार) 111 139 ण (अ)=नही वि (प्र)कभी भी रागदोसमोहं [(गग) (दोम)-(मोह) 2/1] कुवदि (कुन्च) व 3/1 सक गाणी 1/1 (गारिण) 1/1 वि कसायभावं [(कमाय)-(भाव) 2/1] वा (प्र) =अथवा सयमप्पणी [ (मयं) + (अप्पणो) ] सय (अ)=न्वय अप्पणो (अप्प) 6/1 सो (त) 1/1 मवि तेण (अ)= इसलिए फारगो (कारग) 1/1 वि तेसि (त) 612 स भावाण (भाव)612 140 नह (अ)=जमे बंधे (वंध) 7/1 चिततो (चित) वकृ 1/1 बघणवद्धो [(ववरण)-(बद्ध) भूकृ 1/1 अनि] रण (अ)-नहीं पावदि (पाव) व 3/1 सक विमोक्ख (विमोक्व) 211 तह (प्र) =उसी प्रकार जीवो (जीव) 1/1 वि (प्र)=भी - 1 कभी कभी मप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-च्याकरण 3-137) । 2 एज्जीवणिकाय-छज्जीवणिका (ध्यवन लोप अभिनव प्रास्त प्यावरण, पृ123) । 3 कभी कभी द्वितीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-135) 96 ] समयसार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 जह (43) जैसे ब। (वध) 7/1 छेत्तूण (छेतूण) सकृ अनि य (म)=पादपूति वधरणबद्धो [(वधरण)-(बद्ध) भूक 1/1 अनि] दु (म) - पादपूर्ति पावदि (पार) व 3/1 सफ विमोक्खं (विमोक्ख) 2 । तह (अ)=वैसे ही य (अ)= पादपूति जीवो (जीव) 111 सपावदि (मपाव) व 3/1 सक 142 बधारण (वध) 6/2 च (अ)- पादपूर्ति सहाव (महाव) 2/1 वियारिणदु (वियाण) मक अप्परगो (अप्प) 6/। घ (अ)= और वसु (वध) 7/2 जो (ज) 1/1 मवि विरज्जदि (विरज्ज) व 3/1 अक सो (त) ||| मवि फम्मविमोक्खण [(कम्म)(विमोक्वण) |1] कुरणदि (कुरण) व 3/1 सक 143 जीवो (जीव) 111 वधो (बध) 1/1 य (म)=पादपूति तहा (प्र) = तथा छिज्जति (छिज्जति) व कर्म 312 सक पनि सलक्खणेहि [(स) वि-(लक्खण) 3/2] रिणयदेहि (रिणयद) 3/2 पगाछेदरगएण [(पण्णा)-(छेदण) स्वार्थिक 'म' प्रत्यय 3/1] दु (प्र) =पादपूर्ति छिण्णा (छिण्णा) भूक 1/2 पनि पारणत्तमावण्णा [(पारणत) + (मावण्णा)] गायत्त (णापत्त) 21 प्रावण्णा (पावण्ण) भूक 1/2 प्रनि 144 जीवो (जीव) 1/1 वधो (वष) 111 य (प्र)=पादपूर्ति तहा (म) = तथा विज्जति (छिज्जति) व कर्म 3/2 सक अनि सलक्खणेहि [(स) वि-(लक्खण) 312] रिणयदेहि (रिणयद)3/2 कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-135) । 2 कभी कभी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है (हेम-प्राकृत-ध्याकरण 3-136)। चयनिका [ 97 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदेदव्यो (छेन) विषिक 1/1 सुद्धो (मुद्ध) 1/1 वि अप्पा (अप्प) 1/1 य (प्र) =और घेत्तन्वो (वेत्तन्बो) विधिकृ 1/1 मनि 145 किह (अ)=कमे सो (त) 1/1 मवि घेप्पदि (घेप्पदि) व कर्म 3/1 मक अनि अप्पा (अप) 1/1 पण्णाए (पण्णा) 3/1 दु (अ)=ही घेप्पदे (घेप्पदे) व कर्म 3/1 मक अनि अह (अ)= जमे पण्णाइ (पण्णा) 3/1 विहत्तो (विहत्त) भूक 111 अनि तह (अ)-वैसे हो पण्णाए (पण्णा) 3/1 व (प्र)=हीं घेत्तत्वो (घेत्तन्दो) विधिकृ 1/1 अनि । 146 पण्णाए (पण्णा) 3/1 घेत्तन्बो (घेत्तम्बो) विधिक 1/1 अनि जो (ज) 1/1 सवि चेदा (चेद) 1/1 सो (न) I|| मवि अहं (अम्ह) 1/1 म तु (प्र)=ही णिच्छयदो (रिणच्छय) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय अवसेसा (प्रवसेस) 1/2 वि जे (ज) 1/2 सवि भावा (भाव) 1/2 ते (त) 1/2 सवि मझा (अम्ह) 611 स परे (पर)1/2 मवि त्ति (म)= अत. रणादन्वा (णा) विधिकृ1/2 147 पण्णाए (पण्णा) 3/1 घेत्तन्वो (घेत्तव्य) विधिकृ 1/1 अनि. जो (ज) 1/1 सवि दट्ठा (दट्ठा) 1/1 सो (त) 1/1 सवि अह (अम्ह) 1/1 स तु (अ)=पादपूरक विग्छयदो (रिणच्ठय) पचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय अवसेसा (अवसस) 1/2 वि ने (ज) 1/2 मवि भावा (भाव) 1/2 ते (त) 1/2 सवि मन्झ (ग्रह) 6/1 परे (पर) 1/2 मवि ति (अ)=इस प्रकार यादव्वा (णा) विधिकृ 1/2 1 कभी भी पत्रमी विभक्ति के स्थान पर पप्ठी रिभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-134)। 98 ] समयसार Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 पादा (पादु) 111 वि (वाकी के लिए देखें 147) 149 अण्णापो (मण्णारिण) 1/1 वि कम्मफल [(कम्म)-(फल) 2/1] पडिसहामट्टिदो [(पाड)-(सहाव)-(ट्ठिद) 1/1 दि] दु (म) =ही वेदेदि (वेद) व 3/1 पाणि (पाणि) 1/1 वि पुरण (म)=किन्तु जारणदि (जाण) व 3/1 सक उदिद (उदिद) भूक 2/1 अनि ए (म)= नही 150 ए (म)-नही मुयवि (मुय) व 3/1 सक पयस्मिभन्यो [(पहि) + (मभन्यो) ] पहिं (पडि) 2/1 मभन्बो (मभन्व) 1/1 वि सुट्ट (म)= भली प्रकार वि (अ)= भी अज्झाइदूण (मज्झान) सकृ सत्यारिण (सत्य) 1/2 गुडदुद्ध [(गृड)-(दुद्ध) 2/1] पि (म)= भी पियता (पिव) व 1/2 पण्णया (पण्णय) 1/2 रिपरिवसा (रिणविम) 1/2 वि होति (हो) व 3/2 अक 151 रिणम्वेयसमावण्णो [ (रिणब्वेय)-(समावण्ण) भूक 1/1 अनि ] पाणी (पाणि) 1/1 वि कम्मफल [ (फम्म)-(फल) 2/1] वियाणादि (वियाण) व 3/1 सक महुर (महुर) 2/1 वि कड्य (कडुय) 2/1 वि बहुविहमवेदगो [(बहुविह) + (प्रवेदगो)] बहुविह (बहुविह) 2/1 वि अवेदनो (मवेदग) 1/1 वि तेण (अ)= इसलिए सो (स) 1/1 सवि होदि (हो) व 3/1 प्रक 152. [ वि (प्र)-न ही कुन्वदि (कुन्व) व 3/1 सक घेददि (वेद) व 3/1 सक गाणी (णाणि) 1/1 वि कम्माइ (कम्म) 2/2 यहुप्पयाराइ [ (बहु) वि-(प्पयार) 2/2 ] जाणदि (जाण) व 3/1 मक पुरण (प्र)-किन्तु कम्मफल [(कम्म)-(फल) 2/1] 1 वर्तमान काल के प्रत्ययों के होने पर कभी कभी अन्त्यस्य 'अ' के स्थान 'मा' हो जाता है हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-158 वृत्ति) । चयनिका [ 99 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 जीवस्स (जीव ) 6 / 1 जे (ज) 1/2 सवि गुरगा (गुरण) 1/2 केई (प्र) = कोई रत्थि ( अ ) = नहीं ते (त) 1/2 सवि खलु (घ) निश्चय ही परेसु (पर) 7 / 2 वि दव्वेसु (दव्व) 7/2 तम्हा (प्र) = इसलिए सम्मादिट्टिम्स ( सम्मादिट्ठि) 6/1 वि रागो (राग) 1 / 1 दु (अ) - बिल्कुल विसएसु (विसप्र ) 7/2 154 पास डिय1 ( पास डिय) मूलशब्द 6 / 2 लिंगारिख (लिंग) 2/1 * (अ) = श्रीर गिहिलिंगारिग [ ( गिहि ) - (लिंग) 2 / 1] 2 (अ) = प्रोर बहुव्ययाराणि (बहुप्पयार ) 2 / 2 वि घेत्तु ( घेत्तु ) सकृ अनि वदति ( वद ) व 3 / 2 सक मूढा ( मूढ ) 1/2 वि लिगमिरग [ (लिंग) + (इ)] लिंग ( लिंग ) 1 / 1 इण ( इम) 1 / 1 मोबखमग्गो [ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 1 / 1] ति (श्र) 11 इस प्रकार 1 बघ (वध) 2 / 1 पुष्पण (पुण्ण) 2 / 1 च (प्र) = प्रौर पावं (पाव) 2 / 1 च (प्र) = तथा 155 ग ( प्र ) = नही दु ( अ ) = निश्चय ही होदि (हो) व 3 / 1 ग्रक मोक्खमग्गो [ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 1 / 1] लिंग (लिंग) 1 / 1 ज ( अ ) ==क्योकि देहरिणम्नमा ( (देह) - (गिम्मम ) 1/2 वि] अरिहा (afte) 1/2 लिंग (लिंग) 2/1 मुइत्तु 3 ( मुप्र ) सकृ दसरणखाणचरिताणि [ ( दमण ) - ( लाण ) - ( चरित) 2 / 2 ] सेवते (मेव) व 3 / 2 सक 2 3 100 = पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल सज्ञा शब्द काम ( पिशल प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृष्ठ 517 ) । 'और' प्रथ को प्रकट करने के लिए 'थ' भव्यय कभी कभी दो बार प्रयोग किया जाता है । मुत्र + मुत्तु (यहाँ उपर्युक्त 'मुद्दत्त' मे अनुस्वार का लोप हुप्रा है ( हेम प्राकृत - व्याकरण 2-156 वृत्ति ) । ] लाया जा सकता है समयसार Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ए (अ)-नही वि (म)= भी एस (एन) 1/1 सवि मोक्खमग्गो [ (मोक्ख)-(मग्ग)111] पासडिया (पास स्य) मूल शब्द गिमियाणि [(गिहि)-(मय) 1/2 वि] लिंगारिण (लिंग) 1/2 दलगणाणचरित्ताशि [ (दमण)-(णाण)-(चरित) 212 ] मोक्खमग्ग [ (मोक्ख)-(मरग) 211] जिणा (जिरण) 112 विति (बू) व 312 मक 157 तम्हा (अ)-इमलिए जहित्तः (जह) सकृ लिगे (लिंग) 212 सागारणगारियेहि [(सागार) + (मणगारियेहि)] [(सागार)(प्रणगारि) स्वार्थिक 'य' प्रत्यय 312] वा (अ)-पादपूर्ति गहिदे (गह) भूक 212 दसणणारणचरिते [(दंसण)- (णाण)(चरित्त) 7/1] अप्पारण (अप्पाण) 2/1 ] जुब्ज (जुञ्ज) विधि 2/1 सफ मोक्खपहे [(मोक्ख-(पह) 7/1] 158 मोश्यपहे [(मोक्ख)-(पह) 7/1] अप्पारण (अप्पाण) 2/1 वेहि (ठब) विधि 2/1 सक चेदयहि (चेदय) विधि 2/1 सक झाहि (भा) विधि 2|| सक त (त) 2/1 सवि चेव (अ)=ही तत्थेव (अ)-वहाँ ही विहर (विहर) विधि 2/1 सक रिगच्च (अ)== सदा मा (म)=मत विहरसु (विहर) विधि 2/1 अक अण्णदग्वेसु [ (अण्ण)- (दम्ब) 7/2] 1 पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल सशा शब्द काम में लाया जा सकता है (पिशल प्राकृत भाषामो का व्याकरण, पृष्ठ 517)। 2 जह-अहित (यहाँ उपयुक्त जहित्तु' में अनुस्वार का लोप हुमा है।) (हेम-प्राकृत-व्याकरण, 2-146 वृत्ति) चयनिका [ 101 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 पासडिय (पासडिय) मूल शब्द 6/2 लिगेसु (लिंग) 7/2 व (प्र) =तथा गिहिलिगेसु [(गिहि)-(लिंग) 712] (अ)= तथा बहुप्पयारेसु (बहुप्पयार) 7/2 कुन्वति (कुन्ब) व 3/2 सक जे (ज)1/2 ममत्त (ममत्त) 2/1 तेहि (त) 312 स ण (अ)= नही रणाव (णा) भूकृ 1/1 समयसार (समयसार) 111 160 ववहारिओ (ववहारिअ) 1/1 वि पुण (प्र)=पादपूर्ति गो (णम) 1/1 दोणि (दो) 2/2 वि (प्र)=ही लिंगाणि (लिंग) 2/2 भणदि (भण) व 3,1 सक मोक्खपहे [(मोवख)(पहे) 7/1] णिच्छयणो [(पिच्छय)-(ण) 1/1] दु (प्र) =किन्तु णेच्छदि [ण) + (इच्छदि)] ण (अ)=नही इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक मोक्खपहे [(मोक्ख)-(पह) 7/1] सव्वालिंगाणि [(सन्व)-(लिंग) 212 ] 1 तथा' पर्ष को प्रकट करने के लिए '' भव्यय कभी कभी दो वार प्रकट किया जाता है। समयसार Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ zufact क्रम I 2 4 5 6 7 8 समयसार - चयनिका एव समयसार गाथा -क्रम 10 11 12 13 14 15 16 17 18 समयमार Eufern समयसार चयनिका TH 4 5 X 11 12 14 15 17 18 20 21 22 27 29 30 31 35 38 कम 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 क्रम 44 49 50 51 57 58 59 60 61 62 69 70 71 72 73 74 76 77 aafoet क्रम 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 समयमार क्रम 78 79 80 81 82 83 84 85 91 92 93 96 97 98 99 100 101 102 [ 103 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चयनिका समयसार चयनिका समयसार चयनिका समयसार क्रम क्रम क्रम क्रम क्रम क्रम 55 97 188 56 98 189 150 151 152 153 57 99 ___103 7 6 10477 __105 78 106 79 107 108 195 58 100 197 59 80 154 101 198 60 81 155 102 200 61 126 82 156 103 201 62 127 83 157 104 202 63 128 84 158 205 64 129 85 159 206 65 105 106 107 108 130 86 160 208 66 131 209 67 08 109 210 87 14188 14289 14390 166 167 168 177 68 :9 110 69 111 211 214 218 70 144 91 181 112 92 113 219 71 72 73 145 14693 147 9 4 148 95 44 183 184 185 186 187 114 115 116 220 221 222 74 75 149 96 117 223 104 ] समयसार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aufant क्रम 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 चयनिका समयसार चयनिका क्रम 228 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 246 262 क्रम 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 समयसार क्रम 263 264 265 272 274 276 280 291 292 293 294 295 296 297 COO चयनिका क्रम 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 समयसार क्रम 298 299 316 317 318 319 370 408 409 410 411 412 413 414 [ 105 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोष 1 समयसार प्राचार्य कुन्दकुन्द सम्पादक श्री बलभद्र जैन (श्री कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली, 1978) 2 हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण व्याख्याता श्री प्यारचन्द्रजी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाडी बाजार, ब्यावर राजस्थान) 3 प्राकृत भाषाम्रो का व्याकरण डॉ आर पिशल (विहार-राष्ट्र-भाषा-परिषद्, पटना) 4 अभिनव प्राकृत व्याकरण डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री (मारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 5 प्राकृत भाषा एव साहित्य का डॉ नेमीचन्द्र शास्त्री पालोचनात्मक इतिहास (नारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 6 प्राकृत मार्गोपदेशिका प वेचरदास जीवनराज दोशी (मोतीलाल बगारसीदास दिल्ली) 7 सस्कृत निबन्ध-दर्शिका वामन शिवराम आप्टे (रामनारायण बेनीमाधव, इलाहावाद) 106 ] समयसार Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 9 पाइग्र-सह-महण्णवो प्रौढ़-रचनानुवाद कौमुदी 10 संस्कृत हिन्दी कोश 11 12 Sanskrta-English Dictionary वृहत् हिन्दी-कोश चयनिका डाँ कपिलदेव द्विवेदी ( विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी प हरगोविन्दास त्रिकमचन्द सेठ ( प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) वामन शिवराम आप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) M Monier Williams Munshiram Manoharlal, New-Delhi) सम्पादक कालिकाप्रसाद श्रादि ( ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) ထို [ 107 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि - पत्र पृष्ठ गाथा पक्ति अशुद्ध शुद्ध - 12 12 मानसिक मासिक निरुपण निरूपण 5 1 निरुपण निरूपण 1 परमप्पारणम कुव्व परमप्पारगमकुव्व 19 493 प्राकर प्रकार कम्मसुह वियातो कम्ममसुह वियाणतो 3295 52 151 54 160 151 पाणी णाणी 1 1 मोक्खपही मोक्खपहे - - 108 ] समयसार Page #145 -------------------------------------------------------------------------- _