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143 प्रज्ञा के द्वारा विभक्त करन के कारण ही जीव तथा (कर्म)
वध निश्चित स्व-लक्षणो द्वारा विभक्त कर दिए जाते है। (वे) विभक्त किए हुए पृथकता को प्राप्त होते है) ।
144 (जव) जीव तथा (कर्म)-वध निश्चित स्व-लक्षणो द्वारा
विभक्त कर दिये जाते हैं, (तब फिर) वध नष्ट कर दिया जाना चाहिए और शुद्ध पात्मा ग्रहण की जानी चाहिए।
145 वह आत्मा कैसे ग्रहण किया जाता है ? वह आत्मा प्रज्ञा से
ही ग्रहण किया जाता है। जैसे प्रज्ञा के द्वारा (आत्मा कर्म से) अलग किया हुआ (है), वैसे ही प्रज्ञा के द्वारा (आत्मा)
ग्रहण (अनुभव) किया जाना चाहिए। 146 जो प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण किए जाने योग्य है, वह आत्मा
निश्चय से मैं ही (हूँ) । अत जो अवशिष्ट वस्तुएं हैं, वे मेरे से भिन्न समझी जानी चाहिए।
147. जो द्रष्टा (भाव) (है), वह निश्चय-दृष्टि से मै (हूँ।।
(यह) प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए। जो शेष भाव (है), वे मुझे से भिन्न हैं। इस प्रकार (ये भाव) समझे जाने चाहिए।
148 जो जाता (भाव) (है), वह निश्चय-दृष्टि से मैं (हूं)।
जो शेप भाव है, वे मुझ से भिन्न है। इस प्रकार (ये) (भाव) समझे जाने चाहिए ।
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