SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 निश्चय ही ज्ञानी (राग-द्वे पात्मक ) अनेक प्रकार के अपने भावो को (द्रष्टा भाव से) जानता हुआ पर द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न (शुद्ध) पर्यायो मे कभी भी रूपान्तरित नही होता है, न ( ही ) ( उनको) पकडता है और न ( ही ) ( उनके साथ) आत्मसात् करता है । 37 निश्चय ही ज्ञानी अन्नत पुद्गल - कर्म के फल को (द्रष्टा भाव से) जानता हुआ पर द्रव्यो के निमित्त से उत्पन्न ( फलरूप) पर्यायो मे कभी भी रूपान्तरित नही होता है, न ही ( उनको ) पकडता है और न ही ( उनके साथ) आत्मसात् करता है । 38 39 जीव के (राग-द्वेषात्मक) मनोभाव के कारण पुद्गल कर्मपने को प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार पुद्गल कर्म के कारण जीव भी ( राग-द्वेषात्मक रूप से) रूपान्तरित होता है । 40 उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी ( जीवरूपी) पर द्रव्य की पर्यायो मे न ही रूपान्तरित होता है, न ( ही ) उनको पकडता है तथा न (ही) (उनके साथ) श्रात्मसात् करता है । ( वह ) (तो) अपनी (ही) पर्यायो मे रूपान्तरित होता है । 41 जीव ( आत्मा ) (पुद्गल) कर्मरूप परिवर्तनो को कभी नही करता है, उसी प्रकार कर्म जीवरूप (चेतनरूप ) परिणामो को (कभी नही करता है), परन्तु परस्पर निमित्त से दोनो के ही परिणमन को (तुम) जानो । इस कारण से आत्मा (अपने मे ) अपने निजी भावो के ( उत्पन्न होने के कारण ही ( उनका ) कर्त्ता है, परन्तु [ 15 चयनिका
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy