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है, किन्तु ममयमार का शिक्षण है कि ये माधव (कर्म) यद्यपि मात्मा (जीव) मे जुड़े हुए हैं, फिर भी ये अलग होने योग्य होते हैं ये अस्थिर हैं तया स्पायो महारे-रहित है (34) । नाप ही ये कर्म जो मानसिक तनाव उत्पन्न करते हैं स्वय दुख रूप होते हैं और दुख को उत्पत्ति का कारण बनते हैं तथा दुख-परिणामवाले रहते है (32,34) | ज्ञान का उदय होने पर व्यक्ति इनसे दूर होने के लिए तत्पर होता ही है (31,32)। प्रशान की स्थिति मे व्यक्ति इन मानसिक तनाव उत्पन्न करनेवाले कर्मों से एकीकरण किया हुमा जीता है और माननिक तनावो की परम्परा को जन्म देता रहता है और उसे प्रात्मा और कर्म (मानमिक तनाव) मे भेद नजर नही माता है, जिसके फलस्वस्प वह क्रोधादि कषायो से एकमेक रहकर दुखी होता रहता है (29,30) । जिस क्षरण व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि उसकी चेतना अपने मूलरूप मे शुद्ध (स्वतन्य/तनाव-मुक्त) है, स्पायरहित है, ज्ञान-दर्शन से अोतप्रोत है, उसी क्षण मे मानसिक तनाव विदा होने लगते हैं (33) ।
यहाँ प्रश्न है कि प्रात्मा से कर्मों (मानसिक तनावो) के मयोग का क्या कारण है ? यह बात सर्वविदित है कि व्यक्ति वस्तुप्रो और मनुष्यो/प्राणियो के मध्य रहता है। यदि हम जांच कर तो ज्ञात होगा कि प्रत्येक मानसिक तनाव के मूल मे कोई न कोई वस्तु या मनुप्य/प्राणी विद्यमान होता है। यदि क्रोध व्यक्ति के प्रति होता है तो लोभ वस्तु के प्रति होता है। इससे यह निष्कर्ष निकालना कि मनुष्यो/प्राणियो मोर वस्तुप्रो से कर्म-बन्धन होता है, अनुचित है। ममयसार का कहना है कि निस्सन्देह वस्तु और मनुप्य/प्राणी को प्राश्रय करके कपाएं उत्पन्न होती हैं, फिर भी वस्तु आदि से कम-बन्धन (मानसिक तनाव) नही होता है।
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