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की स्वतन्त्रक पाश्रय में है, ऐसा मा जाने पर, उसी प्रकार
उत्पन्न नहीं करता है (53)। चूंकि निश्चयष्टि चेतना की स्वतन्त्रता पर आश्रित दृष्टि है, इसलिए जानी कर्ता निश्चयनय के आश्रय से चलता है । जीव (आत्मा) के द्वारा कर्म किया गया है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है (57) | योद्धाओ द्वारा युद्ध किए जाने पर, राजा के द्वारा युद्ध किया गया हैं, इस प्रकार लोक कहता है। उसी प्रकार व्यवहार से कहा जाता है कि अज्ञानी अात्मा के द्वारा कर्म किया गया है (58) सच तो यह है कि आत्मा जिस भाव को अपने मे उत्पन्न करता है, उसका वह कर्ता होता है। ज्ञानी का यह भाव 'ज्ञानमय होता है और अनानो का भाव अज्ञानमय होता है (61)। ज्ञानी शुद्ध भावो (अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रि सुख आदि) का कर्ता होता है और इसके विपरीत अज्ञानी अशुद्ध भावो (काम, क्रोध आदि) का का होता है । जानो ज्ञाता-द्रष्टा होता है (147, 148), इसलिए कर्मा के फल को व उनके वन्ध को जानने वाला होता है, सुख-दु खात्मक फल को भोगनेवाला नही होता है (151, 152) । अज्ञानी कर्मो के फल व उनके वध के साथ एकीकरण कर लेता है, इसलिए सुख-दुखात्मक फल को भोगनेवाला होता है (43)।
यदि यह मान लिया जाए कि ज्ञानो अपने शुद्ध भावो का कर्ता व भोक्ता होने के साथ-साथ पुद्गल कर्म का भी कर्ता और मोक्ता होता है, तो ऐसा होने से ज्ञानी दो विरोधी क्रियाओ से युक्त हो जायेगा (44)। एक ओर तो हमे मानना होगा कि वह ज्ञानी स्व भावो का ही कर्ता और भोक्ता है,तथा दूसरी ओर मानना होगा कि वह ज्ञानी पर भावो का भी कर्ता और भोक्ता है। यह दोनो विरोधो क्रियाएँ सभव नहीं है। यदि हम यह मानते हैं कि ज्ञानी पर भावो का कर्ता व भोक्ता है, तो नानी को पर भावो से
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