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T - उपयुक्त विवेचने से स्पष्ट है कि निश्चयनय से आत्मा मे पुद्गल के कोई भी गण-नही है। अंत आत्मा 'रेस-रहित, रूपरहित, गंध-रहित, शब्द-रहित तथा अदृश्यमान है । उसका स्वभाव चेतना है। उसका ग्रहण: बिना किसी चिन्ह के (केवल अनुभव से) होता है और उसका आकार अप्रतिपादित है' (20, 21) । यदि व्यवहारनय से औत्मा मे-पुद्गल के गुण कहे गहे हैं (26) तो यह समझा जाना चाहिए कि वर्णादि के साथ जीच (आत्मा) का सम्बन्ध दूध और जल के समान अस्थिर है । वे वर्णादि आत्मा मे स्थिररूप से बिल्कुल ही नहीं रहते हैं, क्योकि आत्मा तो ज्ञान-गुण से ओत-प्रोत होता है (23) | समयसार का कथन है कि जैसे मार्ग में व्यक्ति को लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग कहते हैं कि यह मार्ग लूटा जाता है। किन्तु वास्तव मे कोई मार्ग लूटा नहीं जाता है, लूटा तो व्यक्ति जाता है (24), उसी प्रकार ससार मे व्यवहारनय के आश्रित लोग कहते हैं कि वर्णादि जीव के हैं (26), किन्तु वास्तव मे 'वे-देहं के गुण हैं, जीव के नही। मुक्त (स्वतन्त्रता को प्राप्त) जीवो मे किसी भी प्रकार के वर्णादि नहीं होते हैं (21)। यदि इन गुणो को निश्चर्य से जीव को माना जायेगा तो जीव और अजीव मे कोई भेदं ही नहीं रहेगा (28) : . - " in . . - --7
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- प्रात्मा और कम: - - - - - - * व्यक्ति-जन्म-जन्मो से कर्मों को लिए हुए उत्पन्न होता है-।-ऐसी देह-युक्त आत्मा (व्यक्ति) मन, वचन और-काय की क्रियायो मे सलग्न रहती है। जब व्यक्ति इनके माध्यम से क्रियाओ को करता है, तो वे सभी क्रियायें सवेग से प्रेरित होकर ही उत्पन्न होती हैं। जैसे, क्रोध से प्रेरित होकर मन-वचन-काय की क्रियाएं उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार दूसरे-सवेगो,(कषायो)
चयतिका
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