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समयसार-चयनिका
काम-भोग (सासारिक विषमता) के निरुपण की कथा सव (मनुष्यो) के द्वारा निश्चय ही सुनी हुई (है), जानी हुई (है). (तथा) अनुभव की हुई (है), (किन्तु) केवल समतामयी अद्वितीयता का अनुभव ही सुलभ नहीं (हुआ है)।
उस समतामयी अद्वितीयता को निज की स्व शक्ति से (मैं) प्रस्तुत करूँगा । यदि प्रस्तुत कर सकें, तो (वह) यथार्थ ज्ञान (होगा) (और) (यदि) चूक जाऊँ तो (समझना कि) अयथार्थता ग्रहण किये जाने योग्य नहीं होती है)।
जैसे अनार्य (व्यक्ति) अनार्य भाषा के बिना पढने के लिए कभी समर्थ नही हुआ है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ (सर्वोच्च सत्य) का कथन सभव नही हुआ है।
( जीवन मे महत्वपूर्ण होते हुए भी) व्यवहारनय अवास्तविक है (और ) (अध्यात्म मार्ग मे ) शुद्धनय ही वास्तविक कहा गया (है) । वास्तविकता पर आश्रित जीव
ही सम्यग्दृष्टि होता है। चयनिका
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