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उत्पन्न होती हैं और लोहमय वस्तु से कडे आदि उत्पन्न होते हैं वैसे ही अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते है (66) । अज्ञानी आत्म-स्वभाव को न जानता हुआ राग और आत्मा को एक ही मानता है (94)। वह कर्म के फल का सुख-दुख रूप से अनुभव करता है। चूंकि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते है. अत वह कर्म के फल का ज्ञाता-द्रष्टा होता है, उसे सुख-दुखरूत से अनुभव नहीं करता है (149, 151, 152) । वह ज्ञानी क्रोधादि सवेगो से, जो कर्म के कारण आत्मा मे उत्पन्न हुए हैं तथा कर्मों से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के फलो से आत्मसात् नहीं करता है (35, 36, 37) । ज्ञानी कर्म के फल को अनासक्तिपूर्वक ही भोगता है (99), किन्तु अज्ञानी आसक्तिपूर्वक कर्म के फल को भोगने के कारण कर्मों (मानसिक तनावो) के बोझ को बढाता रहता है।
मात्मा का कर्तृत्व : (ज्ञानी और अज्ञानी कर्ता)
मनुष्य विभिन्न प्रकार के सवेगो का अनुभव करता है। इस तरह उसमे काम, क्रोध, लाभ, ईर्ष्या, भय, दया, प्रेम, कृतज्ञता आदि सवेग क्रियाशील होते हैं। इन सवेगो के कारण ही पुद्गलकर्म-परमाण आत्मा से जुड़ जाते हैं और फिर ये कर्म-परमाण समय पाकर आत्मा को सवेगात्मक रूप में परिवर्तित करते रहते हैं (39) । इसे अस्वीकार नही किया जा सकता है कि ये सभी सवेग मनुष्य मे मानसिक तनाव की उत्पत्ति करते हैं, जो मनुष्य मे दुख का करण बनते हैं। यह स्थिति उस समय उत्पन्न होती है, जब व्यक्ति इन सवेगो से एकाकरण करके जीता है। अत यह उसकी अज्ञान अवस्था का ही द्योतक है। समयसार का कथन है कि अज्ञानी आत्मा ही इन सवेगो का कर्ता होता है, इसलिए वह xl ]
समयसार