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भाव है, वही 'मैं' है (147, 148)| जो शेप भाव है, वे मुझ में भिन्न है (147, 143)। इस तरह से स्वचेतना की स्वतन्त्रता का स्मरण होते ही व्यक्ति में ज्ञाता-द्रप्टा भाव का उदय हो जाता है, उसकी प्रना जागृत हो जाती है, उसकी शुद्ध आत्मा पर दृष्टि लग जाती है और वह व्यक्ति निश्चय पर आथित हो जाता है।
यहाँ यह व्यान देने योग्य है कि स्वचेतना की म्वतन्त्रता का स्मरण होने से, ज्ञाता-द्रप्टा भाव का उदय होने में, प्रजा के जागृत होने मे, शुद्ध पात्मा पर श्रद्धा होने मे, निश्चयनय पर आश्रित होने से सम्यग्दृष्टि में निम्नलिखित विशेषताएं पैदा हो जाती है । सम्यग्दृष्टि की आत्मा में श्रद्धा होती है, इसलिए उसको स्वचेतना की स्वतन्त्रता में कोई शका नही होती है। इम कारण से वह निर्भय हो जाता है। (1) मातो प्रकार के भय उसके जीवन से निकल जाते हैं (118) । (2) वह किमी भी शुभ क्रिया से फल-प्राप्ति की चाहना नही करता हैं तथा उससे उत्पन्न कर्म-फल को भी नहीं चाहता है (119)। (3) वह जीवन में किसी भी सेवा-कार्य के प्रति घृणा नही करता है (120) । (4) वह सभी (तथाकथित) शुभ कार्यों मे मूढतारहित होता है। उनके प्रति उचित दृष्टिकोण अपनाता है। समाज मे शुभ समझे जाने वाले बहुत से कार्य मूर्खतापूर्ण हो सकते हैं। उनको करने का कोई सवल तार्किक आधार नही होता है। सम्यग्दृष्टि ऐसे कार्यो को त्याग देता है और तार्किक दृष्टि अपनाता है (121) । (5) वह शुद्धात्मा की भक्ति से युक्त होता है। वह दूसरो को भलाई के कार्यो को गुप्त रखता है। उनको उजागर करके वह
1 मात भय लोक-मय, परलोक-भय, मरक्षा-भय, प्रगुप्ति-भय, (सयल हीन होने का
भय), मृत्यु-भय, वेदना-भय और अकस्मात-भय ।
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