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। पहले यह (पर द्रव्य) मेरा था, फिर भी (यह) मेरे लिए होगा,
पूर्वकाल मे भी मैं यह (पर द्रव्य) (था) (तथा) मैं भी यह
(पर द्रव्य) होऊँगा, (तो वह अज्ञानी है)। 12 इस प्रकार से हो (जो) बिल्कुल अयथार्थ (मिथ्या) विकल्प
को मन में विचारता है, (वह) अज्ञानी (है), और (जो) यथार्य को जानता हुआ उस (मिथ्या विकल्प) को मन मे नही विचारता है, (वह) ज्ञानी है ।
13.
व्यवहारनय कहता है (कि) जोव और देह एक (समान) होते हैं, परन्तु निश्चयनय के अनुसार) जीव और देह कभी एक (समान) पदार्थ नही (होते हैं)।
14 वह (केवलो/समतावान/तनाव-मुक्त के पुद्गलमय शरीर की)
(स्तुति) निश्चग्दृष्टि से उपयुक्त नही होती है, क्योकि केवली के (आत्मानुभव मे) शरीर के गुण नहीं होते है । जो केवली (समतावान) के गुणो (आत्मानुभव की विशेषताओ) की स्तुति करता है, वह वास्तव मे केवली (समतावान) की
स्तुति करता है। 15 जैसे नगर का वर्णन किया हुआ होने पर भी, राजा का
वर्णन किया हुआ नही होता है, (वैसे ही) देह-विशिष्टताओ की स्तुति किए जाते हुए होने पर भी अरहत (शुद्ध आत्मा) की विशिष्टताएँ स्तुति की हुई नही होती है।
16 जो इन्द्रियासक्ति को जीतकर ज्ञानस्वभाव से अोतप्रोत आत्मा
का अनुभव करता है, उस (व्यक्ति) को ही वे, जो पक्के साधु हैं, इन्द्रियो को जीतनेवाला कहते हैं।
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