Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I i सज्जनचित्तलभ FEROF BUGG * ग्रंथकर्त्ता * परम पूज्य आचार्य १०८ श्री मल्लिषेण जी महाराज * अनुवादक एवं सम्पादक * परम पूज्य अचिन्त्य प्रज्ञाशक्तिधारक युवामुनि १०८ श्री सुविधिसागर जी महाराज * वाचनाकार * पूज्य आर्यिका १०५ श्री सुविधिमती माताजी तथा पूज्य आर्यिका १०५ श्री सुयोगमती माताजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमन्ननश्चिनबहभRRED --....-... को प्राधियात्रा सुदि-.--.-....भरतकुमार इन्दरचन्द पापड़ीवाल | सिडको, एन -९,९ ११५/४९-४, शिवनेरी कालोनी औरंगाबाद (महाराष्ट्र) ४३१००३ प्रकाशनकाल - आवृत्ति क्रमांक - प्रति प्रकाशक -- १५ जून - २०७२ (श्रुतपंचमी) प्रथम पाँच हजार अनेकान्त श्रुत प्रकाशिनी संस्था पुनर्प्रकाशन हेतु अर्थसहयोग ग्यारह रुपये मात्र अर्थ सहयोग अर्थ सहयोग श्री शीतलनाथ दिगम्बर || श्रीमती सावित्रिदेवी भंवरलाल जैन मन्दिर जी सेम्बारा राजस्थानी दिगम्बर जैन भवन आदिनाथ ट्रेडर्स श्री नागेन्द्र दिगम्बर जैन समाज मस्कासाथ -ईतवारी, जूनी शुक्रवारी, ग्रेट नागरोड नागपुर (महाराष्ट्र) नागपुर -९ (महाराष्ट्र) सेन्ट dिi.ali - ht: Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल सज्जनचित्तबलभ लाल - IIVIDEO सम्पादकीय. आगम साधुओं का तृतीय नेत्र है। उसी चक्षु के माध्यम से मुनिराज वस्तुस्वरूप को देखते हैं। अपने जीवन को आगमनिर्दिष्ट मार्ग पर स्थापित करने से ही मुनिराज का जीवन जिम बन जाता है । सगुणों के आगार तथा रत्नत्रय के चलते फिरते तीर्थ वे मुनीश्वर धरती के देवता हैं। उनका दर्शन, पूजन अथवा वन्दन ही भव-भव के क्रन्दन को नष्ट कर देता है। वर्तमान में मनुष्य अज्ज का कीडा बना हुआ है अथवा भोगों का गुलाम बना हुआ है । ऐसे विकट समय में आज भी जिनलिंग के धारी मुनियों के दर्शनों का अवसर प्राप्त होता है. यह महापुण्य का ही फल समझना चाहिये। मुनिराज का स्वरूप क्या है ? मुनिराज के कौन-कौन से विशेष गुण होते हैं ? उनके योग्य और अयोग्य आचरण कौनसे हैं? मुनिराजों को अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए क्या-क्या चिन्तन करना चाहिये ? किनका जीवन सार्थक है? और किनका निरर्थक ? आदि अनेक प्रश्नों का उत्तर इस ग्रंथ में है। मुनियों के आचरणपद्धति को सुस्पष्ट करने वाले मूलाचार, भगवती आराधना, आराधनासार. चारित्रसार और अनगार धर्मामृत आदि अनेक ग्रन्थ हैं तथापि इतना संदित पद्धति से अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। यह लघुकाव्य गन्ध आत्तार्य श्री मल्लिषेण जी के व्दारा रचित है। अन्धका ईसदी सन् १०४७ के महल आचारी थे : इस ग्रन्थ के अतिरिक्त । राज्यका ने महापुराण और नागकुमार महाकाव्य की भी रचना की है। गायकार्ता जैन आगम घरम्परा के कुशल अत्यला. उत्कृष्ट साधक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजवित्तबालभर महान वक्तृत्वशैली के धनि, उस युग के श्रेष्ठ एवं जेष्ठ आचार्य थे और वे शिथिलाचार के प्रबल बिरोधि थे यह बात प्रस्तुत ग्रन्थ की शैली से सुस्पष्ट हो ही जाती है। । प्राप्त जानकारी के अनुसार इस ग्रन्थ पर आचार्य श्री चन्द्रकीर्ति के शिष्य आचार्य श्री श्रुतकीर्ति जी की तथा मुनि श्री बालचन्द जी की टीका प्राप्त होती है। दोनों ही टीकायें कन्नड़ भाषा में हैं। यह ग्रन्थ सम्बोधनप्रधान शैली में लिखा हुआ है। अतः विवेचन शैली के कारण कहीं-कहीं कठोर शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। यदि उन्हीं शब्दों को पकड़कर कोई मुनियों की आलोचना करना प्रारंभ करें तो यह उसकी बालबुद्धि का ही फल होगा । ग्रन्थकर्ता ने जितनी बातें लिखी है उसका हेतु मुनियों की आलोचना करना नहीं अपितु मुनियों को शिथिनलाचार से बचाना है। प्रस्तुत ग्रन्थ में कहीं-कहीं श्रावकों के लिए भी सम्बोधन किया गया परन्तु अधिकांश उपदेश मुनियों के लिए ही दिया गया है। मुनियों की धर्मनीति को कुल तेईस शार्दूलविक्रीडित छपद में जिसताइपेपरेशा पटाई है । इस ग्रन्थ पर गागर में सागर यह उक्ति चरितार्थ होती है। शब्दों का समायोजन अत्यन्त आलंकारिक एवं रमणीय है। इस यन्ध में कुल पच्चीस श्लोक हैं। भाषा की दृष्टि से ग्रन्थ अत्यन्त प्रौढ है। इस ग्रन्थ का अनुदान करने में मात्र आठ दिनों का समय लगा | आशा है कि पाठकवर्ग के लिए यह टीका सरल और तत्त्वबोधिनी सिद्ध होगी। इसे प्रकाशन के योग्य बनाने में मिलाई निवासी श्री दिनेशकुमार जी जैन और मालवीयनगरदुर्ग निवासी प्रो. पी. के. जैन का अपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ | जिनके पुजीत अर्थसहयोग से यह कृति आपके करकमलों तक पहुँच सकी है, उन समस्त अर्थसहयोगियों को आशीर्वाद। इस कृति में व्याकरण और सिद्धान्त विषयक जो भी त्रुटियाँ हुई हो, मान्यवर विव्दान हमें ज्ञात कराने का कष्ट करें ताकि आगामी प्रकाशन में हम अपनी भूल सुधार सकें। यह गन्ध आपके लानधन की वृद्धि करें. यही आशीर्वाद । मुनि सुविधिसागर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनका पापूर्ण मंगल आशीवाद मेरी साधना जीवन का बल है, जिनकी प्रेरणामयी मंगलवाणी, मेरे साहित्यजीवन का सम्बल है. ऐसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, कुमारश्रमण, करुणाकुबेर, वात्सल्यरत्न, भव्यैकबन्धु, ज्ञानध्यान तपोरत, सरस्वती के वरदाात्र, वादीभगज पंचानन, वीतरागमार्ग के पथिक, गुरव के आधार, श्रद्धेय गुरदय के परम पवित्र कर कमलों में प्रस्तुत कृति / सादर समर्पित। समर्पण Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १० १५ २२ wwwwwwसजनचिनवल्लभ www अनुक्रमणिका श्लोकांक विषय पृष्ठांक मंगलाचरण और प्रतिज्ञा मुनि की शोभा चारित्र से है केवल नग्नता ही मुनित्व नहीं है साधु का लक्षण धनादि की कामना का निषेध मुनियों का कर्तव्य स्त्रीकथा का त्याग शरीर का स्वरूप शरीर की दुर्गन्धयुक्तता स्त्रियों को दूर से ही छोड़ने की प्रेरणा शरीर का मोह त्यागने की प्रेरणा स्वार्थ के कारण सम्बन्ध होते हैं त्यागी हुई वस्तु को पुनः ग्रहण करने का निषेध २५ धर्म करने की प्रेरणा १५. मोह का त्याग करने की प्रेरणा मनुष्यायु कैसे व्यतीत होती है? परीषह सहन करना चाहिये संघ में रहने का आदेश शरीर से निर्ममत्व रहने की प्रेरणा उनका जीवन निष्फल हो जाता है दुर्लभत्व का बोध २२. स्त्री संगति का निषेध ४१ स्त्रियों पर विश्वास करने का निषेध शरीर के संस्कार का निषेध ४५ ग्रंथ का उपसंहार ४७ श्लोकानुक्रम हमारे उपलब्ध पूर्व प्रकाशन १४. १७. १८. १९. २०. २१. ४२ २५ 00 ४९ 100 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जविनबाभलwww आरी श्री अनिलपेण विरचित मंगलाचरण और प्रतिज्ञा नत्वा वीरजिनं जगत्त्रयगुरुम्मुक्तिश्रियोवल्लभं, पुष्पेषु क्षयनीतिबाणनियहं ससारदुःखापहम् । वक्ष्ये भव्यजनप्रबोधजननं ग्रन्थं समासादहं , नाम्ना सज्जनचित्तवल्लभमिमं श्रृण्वन्तु सन्तोजनाः ॥१॥ | अन्वयार्थ : (जगत्त्रय गुरुम्) तीनलो क के गुरु (मुक्तिश्रियोवल्लभम्) मुक्तिलक्ष्मी के प्रिय (पुष्पेषु क्षयनीतिबाणनिवह) काम के बाण को नष्ट करने वाले ब्रह्मचर्य रूपी ब्राण के धारक (संसार दुःखापह) संसार के दःखों का हरण करने वाले (भव्यजन प्रबोधजनन) भव्यजीवों को ज्ञान प्रदान करने वाले (तीरं जिनम् ) वीर जिनेन्द्र को (जत्वा) नमस्कार करके (अहम) में (सचनचित्तवल्लभ नाम्गा) सज्जनचित्तवल्लभ नाम के (इम ग्रन्थम्) इस ग्रंथ को (समासात) संक्षेप में (वक्ष्ये) कहूँगा (सन्तोजनाः) हे सजनो । (अण्वन्तु) से तुम श्रवण करो। अर्थ: जो तीन जाल के गुरु हैं. मोहालक्ष्मी के बल्ल हैं. कामबाण को नष्ट करने में समर्थ ऐसे ब्रह्मचर्य की बाणा को साग करने वाले हैं. संसार के द:खों को हरने वाले हैं भन्यजीवों को जान देने वाले हैं ऐसे भगवान महावीर को नमस्कार करने में सज्जनचित्तवल्लभ जामक गश को संक्षिप्त रूप में कहूँगा । हे सन्तजनों ! तुम इसे सुनो। | भावार्थ : गंथकता आचार्य श्री मल्लि जी ने इस श्लों में मला | | तथा गंथ की रचना करते है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ franAR मंगलाचरण करते हुए शंथकर्ता ने वीरभु को जमरकार किया है । | यहाँ प्रयुक्त हुआ वीर शब्द अनेकार्थवाची है । यथा - १. चौबीसवें तीर्थकर श्री महावीर स्वामी का एक नाम वीर भी है। 1.वि विशेषणपूर्वक हर गतौ धातु से वीर शब्द निष्पन्न होता है । जो धातु गत्यर्थक होते हैं, वे ज्ञानार्थक भी होते हैं। अतः जो विशिष्ट ज्ञान के (केवलहान के) धारक होते हैं, वे वीर कहलाते हैं। 1. वि यानि विशिष्ट ई यानि लक्ष्मी । वि विशिष्टाई लक्ष्मीः, तां राति | ददातीति वीरः जो विशिष्ट लक्ष्मी को (अन्तरंग लक्ष्मी और बहिरंग लक्ष्मी को ) प्रदान करने वाले हैं उन्हें वीर कहा जाता है। ४. जो कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं वे वीर हैं। ५. वकार से चार व रकार से दो अंक लेना चाहिये । अंक हमेशा | | विपरीत गति के धारक होते हैं। अतः वीर शब्द चौबीस तीर्थकरों का भी | बाचक है। कैसे हैं वे वीरशु ? १. जगत्त्रय के गुरु हैं अर्थात् ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में निवास करने वाले समस्त जीवों के गुरु हैं। 1. मुक्तिलक्ष्मी के प्रिय हैं अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं। ____ 1. ब्रह्मचर्यरूपी बाण के धारक हैं । कवियों के मतानुसार काम के | पाँच बाण हैं । काम उन बाणों से इतना विक्रमशील बना हुआ है कि वह संसार भर में दुर्जय हो गया है । वीरप्रभु उसे ब्रह्मचर्रा रूपी बाणों के द्वारा विद्ध करते हैं। 1. संसार के दुःखों का हरण करने वाले हैं। संसारी जीव कायिक | वाचिक, मानसिक आदि अनेक दुःखों से सन्तप्त हो रहे हैं परन्तु जो वीरप्रभु के चरणों का सेवक हैं . वे इन समरस्त ढु.खों से मुक्त हो जाते हैं। ५. भव्यजीवों को ज्ञान प्रदान करने वाले हैं । हेयोपादेय के विवेक को हाज कहते हैं अथवा जिसके द्वारा हित की पाप्ति और अहित का परिहार होता है उसे जान कहते है। श्री वीरप्रभु भन्या जीवों को हिताहित | कानि लेते हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनचित्तजभ nown ऐसे पाँच विशेषणों से विशिष्ट वीर जिनेन्द्र को ग्रंथकर्ता ने नमस्कार किया है । इन पाँच विशेषणों में यह विशेषता है कि आदि का प्रथम विशेषण हितो पढे शित्व का वाचक है, तत्पश्चात तीज विशेषण वीतरागता के वाचक हैं और अन्तिम विशेषण सर्वज्ञता का बोधक है। आचार्य श्री मल्लिषेण जी ने प्रतिमा की है कि मैं सजान शिवल्लम | ग्रंथ का संझोप पद्धति का अनुशरण करते हुए व्याख्याज करूंगा। __ मुनि की शोमा चरित्र से है रात्रिश्चन्द्रमसा विनाञ्जनिवहै!भाति पद्माकरो, यद्वत्पण्डितलोकवर्जितसभा दन्तीव दन्तं विना। पुष्पंगन्धविवर्जितं मृतपतिः स्त्री चेह तव्दन्मुनिश्चारित्रेण विना न भातिसततं यद्यप्यसौशास्त्रवान्।।२।। अन्वयार्थ : (यदत्) जिस प्रकार (चन्द्रमसा) चन्द्रमा के (विला) बिना (रात्रिः) रात, (अञ्ज निवहे बिना) कमलों के समुदाय के बिना (पदमाकरः ) तालाब, (पण्डितलोकवर्जितसभा) विद्वानों से रहित सभा, (दन्तं विना दन्ती) दॉलों के बिना हाथी, (गन्धविवर्जितं पुष्प) सुगन्ध से रहित पुष्प, (मृतपतिः स्त्री) जिसका पति मर चुका है, ऐसी स्त्री (इह) इसलोक में (न भाति) शोभा को प्राप्त नहीं होती (तल्दत्) उसीप्रकार (मुनिः) मुनि (सततं) हमेशा (चारित्रेण विना) चारित्र के बिना (न भाति) शोभित नहीं होते (यद्यपि) भले ही ते (शास्त्रवान) शास्त्रों के ज्ञाता (असो) क्यों न हो ? अर्थ : जैसे चन्द्रमा के बिना रात, कमलों के समूह से रहित सरोवर, विद्धानों के बिना सभा, दंतविहीन हाथी, गन्ध से रहित पुष्प पति के मर जाने पर स्त्री इसलोक में शोभित नहीं होती उसीप्रकार चरित्र के बिना मुनि की शोभा नहीं होती. भले ही वे मुनि कितने भी श्रुतसम्पन्न क्यों न हों। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छालामजनपिनबालपहल भावार्थ : मुनियों को शारित्रमाग में हल करने के लिए आरायन ने इस श्लोक के द्वारा करणापूर्वक उपदेश दिया है। 1. रात्रिकान में चन्द्रमा के बिना आकाश शोभा को प्राप्त नहीं होता। ३. बिना कमलों का तालाब सुन्दर नहीं दिखता। 1. पण्डितों से रहित सभा की गरिमा नहीं रह पाती । ४. दाँतों से रहित हाथी का सौन्दर्य लुप्त हो जाता है। .. गन्धरहित पुष्प लोकप्रिय नहीं हो पाता । B. जिसका पति कर गया है, यह विटा योनित जीं होती। इन छह दृष्टान्तों के समान ही चारित्र से विहीन मुनि श्री सुशोभित नहीं होते। स्वरूपे चरणं चारित्रम् । स्वरूप में विचरण करना चारित्र है अथवा | जिसके द्वारा संसार के कारणों का विनाश होता है उसे चारित्र कहते हैं। मुनिराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र का परिपालन करते है अथवा मुनिराज सामायिक व छे दोपस्थापनादि चारित्र को अंगीकार करते हैं। चारित्रगुण से रहित मुनि भव्यसेन मुजि की तरह ग्यारह अंग और | जौ पूर्वो के पाठी होते हए भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते । इसके विपरीत श्रेष्ठ चारित्र से विभूषित शिवभूति, भीम आदि के समान मुनि अल्पल होते हुए भी शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं। अतः शांथकार मुनि की शोभा खान से नहीं. अपितु चारित्र से मानते हैं। केवल नग्नता ही मुनित्व नहीं है किं वस्त्रत्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते, क्ष्वेडेनच्युत पन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले ? मूलं किं तपसः क्षमेन्द्रियजयः सत्यं सदाचारता, रागादींश्चविभर्ति चेन्न स यति लिङ्गी भवेत् केवलम्॥३|| Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROमजनचित्तबल्लभ MARRRRRI अन्वयार्थ : (वेडे न च्युतः) केंचुली को छोड़ने मात्र से (पन्नगः) सर्प (भूतले)। इस भूतन पर (किम्) क्या (गतविषः जातवान्) विषरहित हो जाता है ? (भो मुनि!) हे साधो ! (एतावता) इन (वस्त्रत्यजनेन) वस्त्रों का त्याग करने से (असौ) वह (किम) क्य! (मुनिर्जायते) मुनि हो जाता है ? (तपसो मूलं) तप का मूल (किम्) क्या है ? (क्षमेन्द्रियजयः) क्षमा और इन्द्रियजय (सत्यम्) सत्य तथा (सदाचारता) सदाचार है। (चेत् ) यदि (सः रागादीन विभर्तिः) वह रागादिकों का पोषण करता है की वह (सति ल) माण नहीं है । (केवलम्) केवल (लिङ्गी भवेत्। वेष को धारण करने वाला होता है। | अर्थ : हे साधो ! इन वस्त्रों के त्याग कर देने मात्र से ही क्या कोई मुनि हो जाता है ? केंचुली के छोडने से इस पृथ्वी पर क्या कोई सर्प निर्विष बन जाता है ? तपश्चर्या का मूल क्या है ? क्षमादि तथा इन्द्रियजय, सत्य और सदाचारपना । यदि साधु रामादि को ही पुष्ट करता है, तो वह साधु नहीं है, मात्र लिंगी होता है। भावार्थ :____ अनन्तरपूर्व श्लोक में चारित्रसम्पन्न बनने की प्रेरणा दी गयी थी। इस श्लोक में उसी बात को दृढ़ करते हैं। जिसप्रकार काँचली छोड़ देने मात्र से ही कोई सर्प विषरहित नहीं | हो जाता, उसीतकार चारित्र से रहित केवल बाह्य जग्त वेषमात्र से कोई | मुजि नहीं कहलाता । बाह्य में वस्त्रादिक परिग्रहों के त्याग के साथ | आभ्यन्तर में चौदह प्रकार के परिग्रह का त्याग करना अत्यन्त आवश्यक होता है। आध्यन्तर व बाह्यपरिग्रह के त्याग रूप चारित्र को ग्रहण करने वाला ही पूज्य होता है। आचार्य श्री अमितगति जी लिखते हैं कि - विनिर्मलं पार्वणचन्द्रकान्तं, यस्यास्ति शारिन्नमसौ गुणज्ञः। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क मजनचिनबालभ MROM मानी कुलीनो जगतोऽभिगम्यः, कृतार्थजन्मा महनीयबुद्धिः ।। (सुभाषितरत्न सन्दोह-२३१) अर्थात् :- जिस पुरुष के अत्यन्त निर्मल पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान चारित्र होता है वही गुणवान है, वही माननीय है, वही कुलीन है, वही जगत | में वन्दनीय है, उसी का जन्म सफल है तथा वहीं महान बुद्धि का धारक है। मुनिराज ऐसे परम प्रशस्त चारित्र की निधि से सम्पन्न होते हैं। ऐसे तपोधन का जीवन पूर्ण सदात्तारमय होता है । वे उपसर्गकर्ता पर सदैव अमाभाव धारण करते हैं । इन्द्रियों को जीतकर वे स्वात्मध्यान का प्रयत्न करते हैं। सत्य का आभूषण पहनने के कारण वे अत्यन्त सुन्दर लगते हैं। जिसप्रकार अमृत का सेवन करने से क्लेश मिट ता है व पौष्टि क्तता का आविर्भाव होता है। वैसे ही चारित्र का परिपालन करने से आत्मा के सम्पूर्ण क्लेश विलीन हो जाते हैं और आत्मा पुष्ट होती है। जैसे विष का सेवन करने से महान कष्ट भोगना पड़ता है तथा प्राणों का वियोग भी होता है उसीप्रकार विषय-भोगों से जीव अनेक कर्मों का बन्ध कर लेता है तथा दारूण कुखों को भोगते हुए हुए नरक-जिगोदादि की पर्यायों को प्राप्त करता है। जो मुनिवेश को धारण करके भी रागभाव को पुष्ट करते हैं, इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हैं, विषय-भोगों से आसक्ति करते हैं, वे केवल वेषमात्र से ही मुनि हैं । ऐसे मुनियों के संसार का कामी अन्त नहीं हो सकता। आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव लिस्तते हैं .. धम्मो छोड़ लिगंजलिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। । जाणेहि भावधरगं कि लिंगेण वायव्यो। (लिंगपाहुड-२) अर्थात् :- धर्म ही लिंग होता है। लिंगमात्र को धारण करने से ही किसी को धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए भाव को ही धर्म जानो । भाव से रहित लिंग से तुझे क्या कार्य है ? Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जनचित्तवल्लभ २० भावलिंग ही मुख्य लिंग है और मोक्ष का कारण है। अतः उसे प्राप्त करके कर्मक्षपण करने का प्रयाण किया जाना उचित है। साधु का लक्षण देहे निर्ममता गुरौ विनयता नित्यं श्रुताभ्यासता, चारित्रोज्वलता महोपशमता संसारनिर्वेगता । अन्तर्बाह्य परिग्रहत्यजनता धर्म्मज्ञता साधुता, साधो साधुजनस्य लक्षणमिदं संसारविक्षेपणम् ॥४॥ अन्वयार्थ : में ( देहे निर्ममता) शरीर से निर्ममत्वता (गुरौ विनयता) गुरु विनय (नित्यं श्रुताभ्यासता) नित्य श्रुत का अभ्यास (चारित्रोज्वलता) चारित्र में निर्मलता (महोपशमता ) महान उपशम से सहितता (संसार निर्वेगता) संसार से विरक्तिभाव (अन्तर्बाह्य परिग्रहत्यजनता) अन्तरंग और बहिरंग परिवाह का त्याग ( धर्मज्ञता ) धर्म के स्वरूप का ज्ञान (साधुता ) साधुता (साधो ) हे साधी ! (इदं) ये (साधुजनस्य ) साधुओं के (संसारविक्षेपणम्) संसार का विनाश करने वाले (लक्षणम्) लक्षण हैं । अर्थ : हे साधु । देह से निर्ममता, गुरु का विजय, नित्य श्रुताभ्यास, चारित्र की उज्वलता, महा-उपशमता, संसार से निवेंगता, अन्तर्बाह्य परिग्रह रहितता, धर्मज्ञता ये साधुता के लक्षण है ऐसा साधुजनों ने कहा है । यह साधुता संसार का नाश करती है। भावार्थ : अनन्तरपूर्व श्लोक में अन्तरंग चारित्र की प्रधानता को दर्शाया गया है । वहाँ यह स्पष्ट किया गया था कि केवल नग्नवेष मोक्षमार्ग नहीं है । साधुओं में पाये जाने वाले चारित्रिक गुण ही पूजनीय होते हैं । ७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PELLLLL सज्जनवित्तपम र यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि साधुओं में ऐसे कौन से गुण होने चाहिये कि जिससे वे त्रिलोकपूज्यत्व प्राप्त कर सके ? इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत श्लोक में किया गया है । इस श्लोक में साधु के नौ मुख्य गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें साधुता का लक्षण माना गया है। प. शरीर से निर्ममत्व :- पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से शरीर की प्राप्ति होती है। यह शरीर जीव को मोक्षमार्ग की साधना में भी सहयोग प्रदान करता है तथा पत्तन के मार्ग में भी सहयोभी बनता है। शरीर के प्रति रागभाव समस्त अनर्थों की जड़ है । शरीर के प्रति किया गया। रागभाव असंयम को बढ़ाता है, तप से विमुख करता है, परीषह व उपसर्ग के सहन करने में भय उत्पन्न करता है , इष्ट कार्यों से विमुख करता है | तथा ध्यान में विघ्न उत्पन्न करता है | शरीर के प्रति जबतक रागभाव रहता है, तबतक आत्महितकारी कार्यों में प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि जो कार्य शरीर के लिए हितकारक होते हैं, वे कार्य आत्मा का अहित करने वाले होते हैं तथा जो कार्य आत्मा के लिए हितकारक होते हैं, वे कार्य शरीर का अहित करने वाले होते हैं। इसीलिए मुनिराज शरीर से ममत्वभाव नहीं करते हैं। २. गुरु में विनय :- हितोपदेष्टा गुरु मोक्षमार्ग में हस्तातलम्बन प्रदान करते हैं। गुरु ऐसा दीपक है, जिसके प्रकाश में शिष्य हिताहित का बोध प्राप्त कर लेता है। जिसके जीवन में गुरु नहीं होते, उसका जीवन प्रकाशशील एवं विकासशील नहीं होता । अतः साधुजन गुरुओं का आदर करते हैं। यहाँ यह बात विशेष रूप से नातव्य है कि जो गुणाधिक हैं, पदाधिष्ठित हैं अथवा दीक्षा में बड़े हैं, वे सब गुरु हैं। जिन्होंने अपने पर उपकार किया है, वे सब गुरु कहलाते हैं। उन सब का यथायोग्य विजय करना चाहिये। ३. नित्य श्रुत का अभ्यास :- मन को एकाग्र करने के लिए, साधना मार्ग का बोध प्राप्त करने के लिए तथा साधना के अवरोधक कारणों से बचने के लिए जिनवाणी का नित्य अध्ययन किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जनचित्तबल्लभ ख मुनिराज इस तथ्य से परिचित होते हैं कि मन चंचल हैं. बिज। स्वाध्याय के उसे रोक पाना संभव नहीं है। मन को रोके बिना साधना नहीं हो सकती । अतः मुनिराज अपने मन को निरन्तर स्वाध्याय में लीन करते हैं । ४. चारित्रोज्वलता जिसका समुद्र रत्नों का आगार होता है, उसीप्रकार मुनि चारित्र के भण्डार होते हैं। उनका आचरण स्वच्छ दर्पण की तरह पवित्र होता है। संसार के कारण राम और द्वेष का उच्चाटन करने के लिए वे सतत आत्मचर्या रूप स्व-समय में रममाण रहने का प्रयत्न करते हैं। आइ म्बर युक्त प्रवृत्ति, लोकोपचार और ख्याति लाभादि की इच्छा के बिना केवल आत्मकल्याण के लिए ही वे चारित्रगुण का अनुपालन करते हैं । मुनियों के चारित्र में लोकमर्यादा का उल्लंघन भी नहीं होता है, अतः उनका चारित्र निर्मल होता है । - -- कषाय जीव के प्रबलतम वैरी ५. महान उपशम से सहितता : हैं । मुनिराज इन्द्रियविजय की तरह कषायों पर भी विजय प्राप्त किया करते हैं। उदय में आने वाले कर्मों के कारण से प्राप्त होने वाले फल को वे हानि समताभाव से सहन करते हैं। शत्रु और मित्र, जीवन और मरण. और लाभ, कॉच और कंचन संयोग और वियोग आदि समस्त अनुकूल और प्रतिकूल परिणामों में समताभाव को अंगीकार करते हैं। पर को दोष देना तो वे जानते ही नहीं हैं। प्रतिपल वे अपने मन में सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव धारण करते हैं। इसलिए मुनिराज क्षमा की साकार मूर्ति होते हैं। उनके इस उपशम परिणाम के प्रभाव से जन्मजात वैर धारणा करने वाले प्राणी भी परम मैत्रीत्व को धारण करते हैं। ६. संसार से विरक्तिभाव :- प्रतिक्षण संसारभावना का चिन्तन करने वाले मुनिराज पंचपरिवर्तन रूप संसार से भयभीत रहते हैं। वे जानते हैं कि भववन में भटकते हुए इस जीव ने अनन्तबार विषय भोगों को प्राप्त किया, भोगा और उसके फलस्वरूप आत्मा को दुर्गति में अतीव दुःख सहन करने पड़े हैं। यदि संसार से पीति बनी रही तो आगामी काल में भी भयावह सहने पड़ेंगे। अतः वे अपनी आत्मा को प्रतिपल सम्बोधित करते हैं कि ९ " Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जरविनवलख्य भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेति तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ (इष्टोपदेश- ३० ) अर्थात् :- सभी पुद्गल परमाणु मैंने मोहवश बार-बार भोगकर छोड़ दिये हैं, फिर आज उच्छिष्ट भोजन के समान उन पुद्गलों में तत्त्ववेत्ता (बुद्धिमान) के समान मेरी क्या अभिलाषा है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । इस संसार में जीव परस्पर में कभी सम्बन्धी, कभी शत्रु और कभी मित्रादि बन जाते हैं। अधिक क्या कहें ? दुर्भाग्यवशात् कभी-कभी जीव अपना ही पुत्र बन जाता है । यह संसारसमुद्र दुःख रूपी झाग से भरा हुआ है । सर्वत्र स्वार्थ की लहरें उछल रही है। बहिरात्मा रूपी नक्रचक्र इस समुद्र में यत्र-तत्र विचरण कर रहे हैं। कुधर्म रूपी दस्यु जीव को लूट ने के लिए सदैव कटिबद्ध हैं। ऐसे असार संसार से कुछ सार की चाहना करना बालुका से तेल निकालने के समान निरर्थक है। इस सत्य के 'ज्ञाता मुनीश्वर संसार से सदैव विरक्त रहते हैं । ७. अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग :- मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं तथा क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भाण्ड ये दस प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं। ये परिग्रह के चौबीस भेद हैं। परिवाह परद्रव्य के प्रति ममत्वभाव को जागृत करता है। परिग्रह दुर्गति का कारण है । परिग्रह से मन चंचल होता है। चंचलमन साधना के मार्ग में अपात्र होता हैं। जबतक मन चंचल बना रहेगा तबतक ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है। ८. धर्म के स्वरूप का ज्ञान :- वस्तुस्वभाव को धर्म कहते हैं। आत्मा का मूल स्वभाव आत्मधर्म कहलाता है। मोक्ष का अर्थ है आत्मा को अपने स्वरूप की उपलब्धि हो जाना। स्व- समय का विचार करने में चतुर मुनिराज धर्म को अपना सर्वोत्कृष्ट हितेच्छु मानते हैं । अतः वे सदैव धर्माराधना में लवलीन रहते हैं। १० श Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हालकसजविलवामपक उत्तम क्षमा. मार्दव. आर्जव, शौच, सत्य, संटाम लप. त्याग. आकिंचन और ब्रह्मचर्य ये दस धर्म है । मुजिनाप इन धर्मों का पालन आगमोक्त रीति से करते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र को भी धर्म कहा जाता है । मुनिराज इन तीनों को यथाविधि तथा पूर्ण शक्ति से धारण करते हैं। १. साधुता : ... साधुता यानि सज्जनता, पर दुःखकातर मुनिराज अपने लिए जितने कठोर होते हैं, वे उतने ही पर के लिए कोमल होते हैं। अपने कारण किसी को कष्ट नहीं हो, इस बात का वे पूर्ण रूप से ध्यान रखते हैं। मनसा, वाचा, कर्मणा वे सदाचार का परिपालन करते हैं। दष्ट पुरुषों को भी वे सदैव सन्तोष प्रदान करते हैं । साधु के ये लक्षण कर्मक्षय करने में समर्थ निमित्तकारण होते हैं।। साधुत्व के लक्षणों का कथन करते हए आचार्य श्री शिवकोटि जी महाराज लिखते हैं - दिगम्बरी निरारम्भो नित्यानन्दपदाधिनः । धदिक्काराहामा शिशुन्यते बुधः ॥ (रत्नमाला - ८) अर्थात् :- जो दिगम्बर हैं, निरारम्भ हैं , नित्यानन्द पद के इच्छुक हैं, जो धर्म को बढ़ाने वाले हैं, जो कर्म को जलाने वाले हैं वे साधु हैं - ऐसा बुधजनों ने कहा है। इन गुणों से युक्त विशिष्ट साधुजनों के श्रीचरणों में मेरा त्रिवार और त्रिकाल सविनय शतशत् वन्दम । धनादि की कामना का निषेध किन्दीक्षा ग्रहणेन ते यदि धनाकांक्षा भवेच्चेतसि, किङ्गार्हस्थमनेन वेषधरणेनासुन्दरम्मन्यसे। द्रव्योपार्जन चित्तमेव कथयत्यभ्यन्तरस्थाङ्गनां, नोचेदर्थपरिग्रह ग्रहमतिर्भिक्षो न सम्पद्यते॥५॥ wwwहत ११ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S R I मजनचिनबह साल अन्वयार्थ : (मिनी ।): । (:: ितसि .. मा में (धनाकांक्षा भवेत्) पल की आकांक्षा है (तर्हि) तो (दीक्षााहणेन किम्) दीमागहण करने से क्या लाभ है ? (अनेन वेषधारणेन किम्) इस वेष को १२ करने से क्या लाभ है ? (गार्हस्यम्) गृहस्थावस्था को (असुन्दरम् मन्यसे) असुन्दर मानते हो ? (द्रव्योपार्जन चित्तमेव) दत्य को उपार्जन करने की इच्छा ही (आभ्यन्तरस्थ) अन्तरंगस्थ (अङ्गनां कथयति) नारी को कहती है । ( जो चेत् ) यदि ऐसा नहीं है तो (अर्थपरिग्रहलह) अर्थ खपी परियह को ग्रहण करने की (मतिर्न सम्पद्यते) मति ही उत्पन्न नहीं होती। अर्थ: हे भिक्षुक ! यदि तेरे मन में धन की अभिलाषा है तो फिर दीक्षा अहण करने से तुझे क्या लाभ हआ ? तु गृहस्थपने को बुरा मानता है किन्तु इस मुनिवेष से क्या लाभ होना है ? द्रव्योपार्जन की आसक्ति स्त्री के प्रति तेरी अभिलाषा को स्पष्ट करती है, नहीं तो यह परिग्रह के संचय करने की बुद्धि तुझ में उत्पन्न ही क्यों होती ? भावार्थ: आचार्य भगवन्त मुनिराज को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि - के मुनिराज ! आपको मन में धन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिये । यदि आपके मन में धन की आकांक्षा उत्पन्न हो जाये तो फिर गार्हस्थ्य और मुजिएद में अन्तर ही क्या रहा ) आपके मन में धनादि की अभिलाषा स्त्रीजनों के पति अाकर्षण को ही अभिव्यक्त करती है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो फिर परिगह रूपी पिशाच को पालने की बुल्दि आपके मन में उनकी तयों होती ? आत्तार्य श्री शुभचन्द्र समझाते हैं .. गादिविजयः सत्यं क्षमा शौचं वितृष्णता। मुनेः प्रयत्यते ननं सङ्गैत्यभोहितात्मनः ॥ (ज्ञानार्णव - ८३३) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनचित्तवालभ अर्थात् :- जिस मुनि का चित्त परिग्रह से मोहित हो जाता है, उसके रागादिक का जीतना, सत्य, क्षमा, शौच और निर्दोभिता आदि गुण विनष्ट हो जाते हैं। इसी आशय को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अगेनति जी ने लिखा है सद्रत्नन्रथपोषणाय वपुषस्त्याज्यस्य रक्षापराः । दत्तं येऽशनमात्रकं गतमलं धतशिविकृतिः ॥ लज्जन्ते परिगृहा मुक्तिर्विषये बद्धस्पृहा निस्पृहा - स्ते गृह्णन्ति परिग्रहं दमधरा किं संयमध्वंसकम् ॥ ( तत्त्व भावना - १०४ ) अर्थात् :- जो मोक्ष के संबंध में अपनी उत्कण्ठा को बांधने वाले सांसारिक इच्छा के त्यागी हैं और सच्चे रत्नत्रय धर्म को पालने के लिए त्यागने योग्य इस शरीर की रक्षा में तत्पर हैं और जो धर्मात्मा दातारों से दिये हुए दोषरहित भोजन को करपात्र में ग्रहण करके लज्जा को प्राप्त होते हैं वे संयम के धारी यति क्या संयम को नाश करने वाले परिग्रह को ग्रहण कर सकते हैं ? बाह्य परिग्रह मूर्च्छा का प्रमुख कारण है । मूच्छ से मन विक्षिप्त हो जाता है। विक्षिप्त हुए मन से साधना नहीं की जा सकती। अतः आत्म कल्याण करने के इच्छुक साधक को परिग्रह का पूर्णरूप से त्याग कर देना चाहिये । मुनियों का कर्त्तव्य योषा पाण्डु कगोविवर्जितपदे संतिष्ठ भिक्षो सदा, भुक्त्वाहारमकारितं परगृहे लब्धं यथासम्भवम् । षड्धावश्यक सत्क्रियासु निरतो धर्म्मानुरागं वहन् सार्द्धं योगिभिरात्मभावनपरो रत्नत्रयालंकृतः ॥६॥ अन्वयार्थ : ( भिक्षो !) हे साधो । (त्वम्) तुम (सहा) हमेशा ( योषा ) स्त्री ( पाण्डु क) नपुंसक (गो - विवर्जित पदे) पशुओं के द्वारा छोडे गये स्थान पर ( सन्तिष्ठ ) निवास करो । ( परगृहे ) दूसरों के घर में (यथासंभवम्) जहाँ तक संभव हो (अकारितम् आहार) अपनी प्रेरणा २२ १३ . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल मज्जनचिनमा छ के बिना आहार को (लां) प्राप्त करते (भुक्रवा) खाकर (षडावश्यक सरिक़यासुनिरतः) छह सावश्यक रूप समीतीज कियाओं में रत रहते हए (धर्मानुरागं तहम् ) धानुराग को करते हुए (योगिभिः साई) योनियों के साथ (आत्मभावनापरः) आत्मा की भावना करते हुए (रत्नत्रयालातः) रत्नत्रय से अलंकृत होओ। अर्थ : हे भिक्षुक ! तुम सदैव स्त्री. नपुंसक और पशुओं के द्वारा छोडे गये | स्थान पर रहो । कैसे रहना है ? परगृह में राथासंभव अपने द्वारा प्रेरित न किया गया हो. ऐसा आहार प्राप्त करके खाओ. षडावश्याक क्रियाओ में रत रहते हुए, धर्मानुराग को बढाते हए. योगियों के साथ रहते हुए, आत्म-आराधना पूर्वक रत्नत्रय से अलंकृत रहो । भावार्थ: इस श्लोक में साधुओं को अपने आचरण में पवित्रता बनाये रखने | के लिए कुछ दिशानिर्देश दिये गये हैं। यथा - 1. एकान्त स्थान में निवास : • आत्मसाधना में जनसम्पर्क अवरोध उत्पन्न करता है। आगर्य श्री पूज्यपाद देव इसे स्पष्ट करते हैं कि - जनेभ्यो वाक्तत: स्पन्दो मनश्चित्तविभ्रमा:। भवन्ति तस्मात्संगर्गजनेर्योगी ततस्त्यजेत् ॥ (समाधिशतक-७२) अर्थात् :- मनुष्यों से अनेक प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं। उन बातों को सुनने से आत्मा के परिणामों में हलन-चलन होता है, उससे मन में विविध प्रकार के क्षोभ या चित्तविक्षेप होते हैं । इस कारण से आत्मध्यान करने वाले मुनि को अन्य मनुष्यों के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। ____ वर्तमानकालीन मुनियों को वन में रहने का निषेध आचार्य श्री हेवसेज तथा आचार्य श्री शिवकोटि प्रति आचार्यों ने किया है। ज्ञाजार्णव में मुनियों के आवास के योग्य स्थानों के वर्णन में देवकुन (मन्दिर) और आगन्तुकागार (धर्मशात्ना) में रुकने का आदेश है इसके अतिरिक्त Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RST मन्जनाचनबल्लभ क की मनिराज को उसी स्थान पर निवास करना ताहिये. जो स्त्री लघु और पशुओं के द्वारा छा लगता हो । १. निदोष आहारका गहण :- मन, वचन, काला और कुत.कारित अजम्गेहना इन नौ कोटि से आहार बनाने की पतिया का त्याग करने वाले मुनिराज शरीर की स्थिति को कायम रख तर धर्मादि शुभध्यान करने के लिए आहार लेते हैं। शुद्ध श्रावक के घर यथान आहार को ग्रहण करना चाहिये । वह आहार छयालीस दोषों से रहित होना चाहिये । ३. षडावश्यकनिरत :- अनिवार्यतः करणीय कार्य आवश्यक कहलाते हैं। अथवा, जो कार्य पराश्रित नहीं होते, उन्हें आवश्यक कहते हैं। मुनियों के आवश्यककर्म छ ह हैं । यथा - सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग । मुनिराज इन आवश्यक कार्यो का यथाविधि परिपालन करते हैं। ५. धर्मानुरागवाहीत्व :- मुजि अपनी चर्या में भी प्रमाद नहीं करते । वे सदैव धर्म के प्रति उत्साहित रहते हैं। धर्म और धर्मफल का चिन्तन और अनुकरण ही हैं पाण जिनके ऐसे मुनिराज रत्नत्रयरूप अथवा दशलक्षण रूप धर्म का स्वयं पालन करते हैं तथा अव्यजीवों को धर्मोपदेश देकर उन्हें धर्म में हद करते हैं। १. योगियों के साथ निवास :- जो जैसी संगति करता है, वैसा ही बन जाता है। इस तथ्य के ज्ञाता मुनि अपनी चारित्रिक निर्मलता के लिए, साधना मार्ग पर दृढ़ता को प्राप्त करने के लिए तथा विशिष्ट तपोसाधना करने के लिए अपने से विशिष्ट ज्ञाजी तपरवी और अनुभवी साधुओं के साथ निवास करते हैं। ___. आत्माभावना में तत्परता :- स्वात्मोपलब्धि रूप मोक्ष को प्राप्त करने की अभिलाषा है जिनके मन में ऐसे मुनिराज मन को संकल्प और विकल्पों से बचाने के लिए तथा निज के का-याण के लिए रादेव अपने आत्मा को भावजा करते हैं । निरन्तर भायी गयी भावना ही उन्हें अपजे मार्ग में स्थिर करती है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ परामजनाचनबाट छ ७. रत्नत्रय से अलंकृतता :- सम्यग्दर्शन. सम्यग्रहान और सम्यक चारित्र इन तीन सालो मा रत्लान्यसंज्ञा पात है। यह रत्नत्रय ही हैं आभषण जिलकं ऐसे निर्णय श्रमणाधीश्वर रत्नत्रय की परिपालना में सतत कटिबद रहते हैं । रत्नत्रय ही मो अमार्ग है । अतः | रत्नत्रय रूपी धन के स्वामी मुनिराज शरघ ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है ? ये रातों ही भ्रमणगुण मेरे अन्दर उस्ततीर्ण हो, एतदर्थ सप्तगुण मण्डित मुनियों के चरणयुगल में मेश सविधि व सभक्ति प्रणाम हो । स्त्रीकथा का त्याग दुर्गन्धं वदनं वपुर्मलभृतम्भिक्षाट नाम्भोजनं, शैय्या स्थण्डिल भूमिषु प्रतिदिनं कट्यां न ते कर्पटम्। मुण्ड मुण्डित्तमर्द्धदग्धशववत्त्वं दृश्यते भो जनैः, साधोऽद्याप्यबलाजनस्य भवतो गोष्ठी कथं रोचते ।।७।। अन्वयार्थ : (भो साधो !) हे साधो ! (ते) आपका (दुर्गन्धं वदनम्) मुख दुर्गन्धित है (वपुः मलभृतम्) शरीर मल से भरा हुआ है (भोजनम् भिक्षाट नात्) भिक्षा से भोजन की प्राप्ति होती है । (शय्या स्थण्डि ल भूमिषु प्रतिदिन) प्रतिदिन कठोर भूमि की ही शय्या है । (कयां न कर्पट म्) कमर में लंगोट नहीं है। (मुण्ड मुण्डि तम)सिर मुण्डा हुआ है। (जनैः त्वम् अईदग्ध शववत् दृश्यते) लोगों को तुम अधजले मुर्दै के समान दिखायी देते हो ।(अद्यापि) ऐसी दशा में भी (अबलाजनस्य गोष्ठी) स्त्रियों की वार्ता (कथं रोचते) तुम्हें कैसे सुहाती है ? अर्थ: हे साधो । अब भी तुम्हें स्त्री की वार्ता कैसे सच्चती है ? तुम्हारा मुख । दर्गन्ध से युक्त है. शरीर मल से भरा हुआ है, भिक्षाटन से भोजन करते हो, प्रतिदिन कठोर भूमि ही तुम्हारी शय्या है, कमर में लंगोट भी नहीं| है, सिर मुण्डा हुआ है । तुम्हारा यह रुप लोगों को अधजले मुद्दे के समान दिवाई देता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनचिनवलभ भावार्थ: 3 जैनागम में स्त्रीकथा राजकथा वांरकथा सौनकथा इन चार कहा गया है। से कशा असंथम का पोषण करती कथाओं को हैं, कषायों को भड़काती हैं और प्रमाद की वृद्धिंगत करती हैं। इस श्लोक में गंधकार आचार्य श्री मल्लिषेण जी ने मुनियों को स्त्री विषयक कथा करने का निषेध किया है । गंधकार लिखते हैं कि हे मुने अस्जानवत के कारण आपका सर्वाग जल्ल और मल से परिपूर्ण हो चुका है और अदन्तधवन मूलगुण का परिपालन करने से आपके मुँह से दुर्गन्ध निकल रही है। आप स्वयं भिक्षाटन करके भोजन करते हो। आपके पास कोई कोमल शय्यादि नहीं है, इसलिए ही आप भूमितल पर शयन कर रहे हो। आपके पास लंगोट के बराबर भी वस्त्र नहीं है, इसलिए आप नग्न होकर चर्या कर रहे हो । सिर का मुण्डन करने से आपकी सुन्दरता नष्ट हो चुकी है। आपका मलीन व संस्कारविहीन शरीर लोगों को ऐसा लगता है मानो अधजला शव ही हो। ऐसे भयंकर रूप को धारण करके भी तुम्हें स्त्रीकथा कैसे सुहा रही है ? अर्थात् स्त्रीकथा में आपका मन नहीं लगना चाहिये । शरीर का स्वरूप अङ्ग शोणितशुक्रसम्भवमिदम्मेदोऽस्थिमज्जाकुलम्, बाह्ये माक्षिकपत्रसन्निभमहो चर्मावृतं सर्वतः । नोचेत्काकबकादिभिर्वपुरहो जायेत भक्ष्यं ध्रुवं, दृष्ट्वाद्यापि शरीरसद्मनि कथं निर्वेगता नास्ति ते ॥८॥ अन्वयार्थ : ( शोणित शुक्रसम्भवम् ) खेत और वीर्य से उत्पन्न ( मेदोऽस्थिमज्जा कुलम् ) हड्डी, मांस और मध्नादि से भरे हुए (बाह्ये सर्वतः माक्षिकपत्र सन्निभम् ) बाहर में सभी ओर से भवखी के पंखों के समान (चर्मावृतम्) चमडी से ढका हुआ है । (नो चेत्) यदि ऐसा नहीं होता तो (काकबकादिभिः ) को और बगुलादि पक्षियों के द्वारा (इद वपुः ) यह शरीर ( भक्ष्यं जायेत ) खाया जाता । १७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wwwww सज्जनाचनवल्लभ www (अहो!) अहो। (दम) इस (अङ्गम्) शरीर को (दृष्ट्वा ) देखकर (अद्यापि शरीरसमनि) अना भी शरीर रूपी सदन से (ते निर्वे गता नास्ति) आपको निर्वेगता नहीं आयी ? अर्थ: अहो । इस शरीर के स्वरूप को हेस्वकर भी तुम्हें इस शरीर रूपी सदन से निर्वेता नहीं हुआ ? कैसा है यह शरीर ? शोणित और शुक्र से बजा हुआ है, मेद - अस्शि व मज्जा से भरा हुआ है, बाहर से सभी तरफ से मवरवी के परों के समान चमड़ी से ढका हुआ है, यदि ऐसा न होता तो काक्र, बक आदि पक्षियों के द्वारा इस शरीर को खाया आता । भावार्थ: जीव सबसे अधिक प्रेम अपने शरीर से करता है । जबतक शरीर से प्रेम नहीं हट ता, तबतक वैराग्य परिपुष्ट नहीं हो सकता । अतः वैराग्य | को दृढ़ करने के लिए इस श्लोक में अशुचित्व का वर्णन किया गया है। कैसा है यह शरीर? आचार्य श्री शुभचन्द्रदेव ने लिखा है कि - अजिनपटल गूढं परं कीवसानां , कुथितकुणिपगन्धः पूरितं मुटु गाढम् । यमवदननिषण्णं रोगमोगीन्द्रगेहूं, कमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ।। (ज्ञानार्णव-२/११८) अर्थात् :- मनुष्यों का शरीर चमड़े के समूह से ढका हुआ, हड्डियों का ढाँचा, सड़े-गले मृत शरीर के समान दुर्गन्ध से अतिशय परिपूर्ण, यम के मुख में बैठा हुआ - नाशोन्मुख और रोगरूप भयानक सर्यों का स्थान है यह यहाँ मनुष्यों को प्रीति का कारण कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता - वह | सर्वथा ही अनुराग के अयोग्य है। इस शरीर की उत्पत्ति माता के रज और पिता के वीर्य से होती है । इसमें अनेक दुर्गन्धित पदार्थ भरे हुए हैं । यह तो बहुत अच्छा हुआ कि इस पर चमड़ी का आवरण है अन्यथा अत्यन्त ग्लानिप्रद हो जाता । इतना ही नहीं अपितु पक्षीगण इसे स्वा लेते। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRR सज्ज चनबल्लभ सहका आचार्य श्री शुभचन्द्र जी लिखते हैं कि - कलेवरमिदं न स्याद्यदि 'चविगुण्ठितम् । मक्षिकावृमिकाकेश्य: स्यात्वातुं कस्तदा प्रभुः॥ । _ (ज्ञानार्णव २/११२) अर्थात् :- यह शरीर यदि चमड़े से आच्छादित न होता तो मक्खी, लट और कौओं से भला उसकी रक्षा कौन कर सकता था ? अर्थात् कोई नहीं। ग्रंथकर्ता मुनिराज को सम्बोधित करते हैं कि - हे साधो ! इतने घृणित शरीर रूपी घर से आपको आसक्ति करना उचित नहीं है । इस शरीर के द्वारा रत्नत्रय की साधना करके आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिये। शरीर की दुर्गन्धयुक्तता दुर्गन्धं नवभिर्वपुः प्रवहति व्दारैरिदं सन्ततं, तदृष्ट वापि च यस्य चेतसि पुनर्निर्वेगता नास्ति चेत्। तस्यान्यद् भुवि वस्तु कीदृशमहो तत्कारणं कथ्यता, श्रीखण्डादिभिरङ्गसस्कृतिरियं व्याख्याति दुर्गन्धताम् ॥९॥ अन्वयार्थ : (अहो!) अहो ! (इदं वपुः) यह शरीर (दुर्गन्ध) दर्गन्ध से युक्त (नवनिः दारैः सन्ततं प्रवहति) नव मलदारों से निरन्तर मल बहता रहता है । (श्रीखण्डादिभिरिय) चन्द जादि के द्वारा इस (अङ्गं संस्कृतिः) शरीर को संस्कारित करने पर भी (दुर्गन्धत व्याख्याति) दुर्गन्ध को ही सुस्पष्ट करता है । (तद् दृष्टवा) उरो देखकर भी (यस्य चेतसि) जिसके चित्त में (निर्वे गता नास्ति) लिगता नहीं जाती है (चेत्) तो (तस्य) उसको (अवि) इस पृथ्वी पर (अन्यत्) अत्य (कीशं वस्तु) कौन सी वस्तु (तत्कारणम्) वैराग्रा का कारण हो सकेगी (कथ्यताम्) सो कहो । अर्थ : अरे ! यह शरीर दुर्गन्धयुक्त एवं जन मलतहारों से सतत रूप में मल प्रबाहमान हो रहा है. केशर. चन्दनादिक से सजाया लगी ताया भी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामजनपिनबाभळ वर्ग ही छोड़ती है । उसे देखकर भी जिसके मन में निर्वेगता नहीं है, उसने पृथ्वी पर ऐसी अन्य कौउसी वस्तु होगा जो वैरा का कारक बन सके। भावार्थ: अनन्तरपूर्व इलोक में शरीर की अशुचिता का संक्षेप से वर्णन किया गया था। इस श्लोक के द्वारा पुनः उसी का वर्णन किया गया है। इस शरीर से पतिसमय मुख, दो नासापुट, दो आँख. दो कान, मलद्वार और मूत्रद्वार, टो नौ ब्दार मल को बहाते रहते हैं । इस शरीर को चाहे चन्दनादि सुगन्धित पदार्थो से संस्कारित किया जाये या सागर के | जल के समान विशाल जल से धोया जाये तो भी इसकी स्वाभाविक मलिनता नहीं जा सकती। यह अपवित्र शरीर अपने सानिध्य में आये हुए पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र बना देता है। आचार्य भगवन्त पूछते हैं कि - हे यते । शरीर की इतनी घृणित | दशा को देखकर भी तुम्हें वैराग्य नहीं होला, तो ये बताओ कि किस वस्तु को देखकर तुम्हें वैराग्य होगा ? अर्थात् फिर वैराग्य के उत्पन्न होने की कोई संभावना नहीं है। स्त्रियों को दूर से ही छोड़ने की प्रेरणा स्त्रीणां भावविलास विभ्रमगतिं दृष्ट्वानुराग मनाग्मागास्त्वं विषवृक्षपक्वफलवत्सुस्वादवन्त्यस्तदा। ईषत्सेवन मात्रतोऽपि मरणं पुंसां प्रयच्छन्ति भोः, तस्माद् दृष्टि विषाहिवत्परिहर त्वं दूरतो मृत्यवे ॥१०॥ अन्वयार्थ : (भो !) है साधी । (स्त्रीणाम् ) स्त्रियों का (भावविलास विश्नमगतिम्) भावविलास से युक्त विभमगति को (दृष्ट्वा ) देखकर (त्वम्) लुम (मनागपि) यत्किंचित् भी (अनुरागां मा गाः) अनुराग मत करो · (विषवृक्षपक्वफलवत्) विषवृाल के पक्के हए फल के समान Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनचितवल ( सुस्वादवन्त्यः ) सुस्वाद वाली हैं । ( ईषत्सेवन मात्रतोऽपि ) अल्प | सेवन मात्र से ही (पुंसाम् ) पुरुषों को ( मरणं प्रयच्छन्ति) मृत्यु पव्हान करती है। (तस्मात् ) इसीलिए (दृष्टि विषाहिवत् ) दृष्टि विष सर्प के समान (त्वम्) तुम (मृत्यु वे ) मृत्यु से बचने के लिए उन्हें (दूरतः ) दर से ही (परिहर) छोड़ दो । अर्थ : अरे ! नारियों के भावविलास और विश्वमगति को देखकर तुम मन से भी अनुराग मत करो। वे विषवृक्ष के पके फलों के समान सुस्वाद युक्त हैं. जिनके अल्पसेवन मात्र से ही पुरुष को मृत्यु होती है. इसीलिए दृष्टि विषधारक सर्प के समान तुम उन्हें दूर से ही छोड़ दो । भावार्थ : वैराग्य की उत्पत्ति के लिए संसार, शरीर और भोगों से अनासक्त होना बहुत आवश्यक है। भोगों से कराने का उद्देश्य मन में रखकर यहाँ आचार्य भगवन्त ने भोगों में साधनभूत स्त्रियों की निन्दा की है। स्त्रियों की निन्दा करते हुए आचार्य श्री प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि :समधनमुपहर्तृ कामचौरप्रचारम् । निश्चयति निकामं कामनी यामनीयम् ॥ सपदि विदधतीया मोहनिद्रासमुद्राम् । जनयति जनमन्तः सर्वचैतन्यशून्यम् ॥ ( श्रृंगार वैराग्यतरंगिणी - ४०) अर्थात् :- स्त्री शम रूपी धन का अपहरण करने में काम रूपी चोरों का प्रचार बढ़ाने वाली है, मोहनिद्रा रूपी समुद्र को विकसित करने वाली है, विवेक और चैतन्यता को नष्ट करने वाली है । ठीक ही है, वह कामिनी यामिनी (रात्रि ) के समान है । जिसप्रकार आँखों में कोई भी रोग हो जाने पर वस्तुयें दिखाई नहीं देती । उसीप्रकार जिस पुरुष के 'ज्ञानचक्षु में कामदेव रूपी रोग हो गया है, उसे अपना स्वरूप भी स्पष्ट दिखाई नहीं देता। जिसे नेत्ररोग हो गया हो, उसे पथ सुस्पष्ट दिखाई नहीं देता, उसीपकार कामदेव रूपी रोग से ग्रसित ज्ञानदक्षु को मोअपथ दिखाई नहीं देता । अतः वह भवभवान्तर में भटकता फिरता है। २१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rooमन्जनाचत्तबार यहाँ साचार्य भगवन्त मुनिराज को सम्बोधित करते हैं कि हे यते ! रित्राव भाव भंगिमा ती दिभमयुक्त को हेडकर 011वलित of अनुशा मत करो । ये स्त्रियाँ विषवृक्ष के पके हए सुन्दर फलों के समान सुस्वाद होती हैं । यदि इनका थोडा सा भी सेवन किया जाता है लो पुरुष को काल -कवलित होना पड़ता है । जिसप्रतार विषवृक्ष का फल रचाह में तो अत्यन्त मिष्ट लगता है. परन्तु थोड़ा सा श्री खाये जाने पर भरणमा तराण करना पड़ता है । उस्ग के समान समस्त स्त्रियाँ भोला के काल में तो अच्छी लगती है परन्तु अगल में हारक में ले जाने वाली होती हैं। जिसप्रकार दृष्टि विष जाति के सर्प को दूर से ही त्यागा जाता है, | उस प्रकार भोगों के कारण रूप इस स्त्री का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये । मोक्ष को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ऐसी विवेकबुद्धि को जागृत रखने के लिए यही सर्वोतम उपाय है ।। शरीर का मोह त्यागने की प्रेरणा यद्यब्दाञ्छति तत्तदेव वपुषे दत्तं सुपुष्टं त्वया, सार्द्ध नैति तथापि ते जड मते मित्रादयो यान्ति किम् । पुण्यं पापमिति द्वयञ्च भवतः पृष्टे नुयातीहते, तस्मान्मास्मकृथा मनागपि भवान्मोहं शरीरादिषु ।।११।। अन्वयार्थ : ( भते।) हे मन्दबुद्धिधारी ! (इदं शरीरम) राह शरीर (यद - यत् वस्तु) जो जो वस्तु (भवतः) आग्रसे (वाछ ति) चाहता है (त्वया) तेरे द्वारा (तद् तद् एव) वही-बही (वपुषे) शरीर के लिए (सुपुष्ट म्) पु. करने वाली (वस्तु दतम्) वस्तुयें ही गई । (तथापि) फिर भी वह (ते सार्द्धम् ) आपके साश्च (नैति) नहीं जाता। तब (किम्) त्या (मित्रादयो यान्ति) मित्रादिक जायेंगे? (इह) इस लोक में (ते) आपका (पुण्यं पापं दयं च) पुण्य और पा से हो है। (भवतः) 1 (पष्ट आयाति) पी जाता है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लमज्जरित्तवाला हा (तस्मात्) इसीलिए (अरीरादिषु) शरीरादि से (भवान्) आप (मनाक अपि) विचित भी (मोहम्) म्योह को (मा स्म कृथा.) मत नशे । अर्थ : हे जड़मते । तुमसे इस शरीर ने जो जो वस्तुयें चाही, तुमने शरीर को वही-वहीं पुष्टि कारक वस्तुयें ही किन्तु यह शरीर तुम्हारे साथ नहीं जाता । फिर मित्रादिक कैसे जायेंगे ? इसलोक में कमाए पुण्य और पाप ये दो ही तुम्हारे साथ जाले हैं, इसलिए तुम शरीरादिक में किंचित् भी मोह मत करो। भावार्थ: इस श्लोक में अन्यत्वभावना का संक्षिप्त वर्णन किया गया है । पण्डितप्रवर द्यानतराय जी ने लिखा है कि - जहाँ देह अपनी नही, तहाँ नअपना कोय। घर संपत्ति पर प्रगट है, पर हैं परिजन लोय ॥ (बारह भावना - ५) अर्थात् :- जहाँ शरीर ही अपना नहीं है, वहाँ और कुछ भी अपना कैसे हो सकता है ? घर, संपत्ति, परिजन लोग तो प्रकट में ही पर हैं। | कवि गौतम दारा विरचित संबोध पंचासिया अन्य की गाथा अतारह की टीका में टीकाकार ने बहुत अच्छी उत्प्रेक्षा की है । यथा - पुद्गलमयं शरीरं कथयति। किम् ? अहं पुद्गलमयं शरीरं हुताशन मध्ये प्रज्वलामि, काष्ठाग्निभक्षणं करोमि | परन्तु अनेन जीवेन सह न गच्छामि। अर्थात् :- पुद्गलमय शरीर कहता है । क्या कहता है ? मैं पुद्गलमय शरीर अग्नि में जल जाऊंगा, काष्ठाग्नि को भक्षण करूंगा परन्तु इस जीव के साथ नहीं जाऊंगा। यह शरीर कृतोपकार को विस्मृत करने वाला कृती है । इसे कितना ही खिला कर घुष्ट करो, इसको कितनी ही मनोनुकूल वस्तुयें प्रदान करो यह जीव के साथ प्राभल में मन नहीं करता । जब स्व Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STARTS दिया n aa पोपित तन भी परभत में साथ नहीं जाता, तब क्या मित्रादि प्रत्यक्ष परजीव सक्ष जा सकते है ? नहीं जा सकते। जीन के द्वारा उपार्जित किये गये पाप और पुण्य ही जीव के साथ | परभव में जाते हैं। उन्हीं के कारण मनुष्य को इष्टानिष्ट संयोग और विद्योग, सुख और दस्त प्राप्त होते हैं । अतः शरीर से मोह को हटा कर | आत्मविकास में मन को लगाना चाहिये । स्वार्थ के कारण से सम्बन्ध होते हैं शोचन्ते न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेहं धनं, तच्चेन्नास्ति रुदन्ति जीवनधिया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम् । कृत्वा तदहन क्रियां निज-निजव्यापार चिन्ताकुलाः, तन्नामापि च विस्मरन्ति कतिभिः सम्वत्सरैः योषिताः॥१२॥ अन्वयार्थ : (यदि) यदि (गेहे) घर में (धनम् अस्ति) धन है तो (वनिता ) स्त्रियाँ (कदापि) कभी भी (मृतं न शोचन्ते) भरे हुए जीव का विचार नहीं करती हैं । (चेत) यदि (नास्ति) नहीं हो तो (प्रति-अहं जीवनधिया) प्रतिदिन जीवन को धारण करने के लिए (स्मृत्वा पुनः रुदन्ति) याद करके रोती है । परिजन (तद्दहनक्रियाम्) उसकी दहनक्रिया को (कृत्वा) करके (निज-निजव्यापारचिन्ताकुला) अपने -अपने व्यापार की चिन्ता में आकुलित होते हुए (तन्नामापि) उसके नाम को भी (विस्मरन्ति) भूल जाते हैं। (योषिता अपि) स्त्रियाँ श्री (कतिःि संवत्सरेः) कुछ वर्षों में (उसके नाम को भूल जाती है ।) अर्थ : यदि घर में धज है. तब स्त्री मरने का कभी विचार नहीं करती है. यदि धन नहीं है तब जीवन धारण करने के लिए उस मरने वाले को याद करके रोती है। सम्बन्धी लोग उसकी दाह क्रिया को अपजे - अपने व्यापार की चिन्ता से आकुल होते हैं तथा कुछ त में ही स्त्री उसका नाम भी भूल जाती है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । w or मज्ज चनवलपरासन भावार्थ: यहाँ संसार : नापने को साया है । यद्यपि अतिरंजकता का अनुभव होता है, परन्तु कदाचित ऐसा भी संभव है। मनुष्य के मर जाने पर परिवार वाले लोग तो अग्निसंस्कार के तुरन्त बाद ही उसे भूल जाते हैं। यदि घर में धन हो तो पत्नी अधिक द.रव नहीं करती । कहते हैं कि समय सारे जख्म का एकमात्र मलहम है। धीरे-धीर मनुष्य के परिजन मृत्युशोक को भूलकर अपनी पूर्ववत क्रियाओं में रम जाते हैं फिर मृतक की स्मृति किसी को भी नहीं रहती है । त्यागी हुई वस्तु को पुनः ग्रहण करने का निषेध अष्टाविंशतिभेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधो व्रतं, साक्षीकृत्य जिनान् गुरूनपि कियत्कालं त्वया पालितम्। भङ्ग वाञ्छसि शीतवातविहितो भूत्वाधुना तद्वतं, । दारिद्रोपहतः स्ववान्तमशनंभुङ्कतेक्षुधार्तोऽपि किम्॥१३॥ अन्वयार्थ :न (साधो !) हे साधो ! (त्वया) तुम्हारे द्वाश (पूरा) पहले (जिनान्) *जिनेन्द्र की (गुरून् अपि) गुरु की भी (साक्षीकृत्य) साक्षी करके (अष्टाविंशति भेदम) अहाईस भेद रूप (व्रत आत्मनि समारोप्य) व्रतों को आत्मा में आरोपित करके (कियत्कालम्) कितने ही कालपर्यन्त (पालितम्) पाला गया । (तद् व्रतम्) उस व्रत को (अधुना) अब (शीतवातविहितो भूत्वा) शीतवायु से व्याकुल होकर (म वाञ्छ सि) ॐग करना चाहता है, (दारिद्रोपहतः) दरिद्रता से युक्त (क्षुधार्तः अपि) भूस्खा मनुष्य भी (किम) क्या (स्व-वान्तम्) अपने हास्न वो (अशनं भुट्टते) स्वाता है ? अर्थात नहीं खाता है । अर्थ :- हे साधो - अगवाज और गु२. को साक्षी में पहले तुम्हारे हाश लगुणों को धारण कर कुछ तालार्सन्त पाया गया भा. अब शतायु AME Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिगहाल्छ | से विहत (व्याकुल) होकर उन बतों को खण्डित करना चाहते हो ? क्या कोई भूरत से बत्त होत र अपलो नमन को खाना चाहता है ? नहीं। | भावार्थ: मुनिराज के पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक और सात विशेष गुण ये अहाईस मूलगुण होते हैं तथा बारह तप और बाईस परीषह ये चौतीस उत्तरगुण होते हैं। इनमें से मुख्य गुणों को मूलगुण कहते हैं। जो गुण मूलगुणों की रक्षा | एवं वृद्धि करते हैं, उन्हें उत्तरगुण कहते हैं।। . | साधक दीक्षा के समय देव. शास्त्र और गुरु की साक्षी से मूलगुण | और उत्तरगुणों की निरतिचार परिपालना करने का संकल्प करता है। आचार्य भगवन्त मुनिराज को सम्बोधित करते हैं कि - हे मुने ! तुमने दीक्षा ग्रहण करते समय देव. शास्त्र और गुरु की साक्षी से व्रत गृहण किये थे । अबतक तुमने उन्हें निरतिचार पाला भी है। आज अत्यधिक शीतलता हो गयी है। शीतवायु से आकुलचित्त वाले होकर तुम व्रतों को रतण्डित करना चाहते हो तथा शीत को दूर करने के उपाय स्वरूप अग्नि आदि भोग्य वस्तुओं को ग्रहण करना चाहते हो । विचार तो करो। अज्ञानी, दरिद्री क्षुधातुर व्यक्ति भी अपने वमन को नहीं खाना चाहता। तुम तो ज्ञानी हो । त्यागी हुई वस्तुओं को पुनः गृहण करने की भावना क्यों करते हो ? तुम्हें धीरतापूर्वक इन परीषहों को सहन करना चाहिये ताकि कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की प्राप्ति हो सके। धर्म करने की प्रेरणा अन्येषां मरणं भवानगणयन्स्वस्यामरत्वं सदा, देहिन् चिन्तयसीन्द्रियद्विपवशी भूत्वा परिभ्राम्यसि । अद्य श्वः पुनरागमिष्यति यमो न ज्ञायते तत्वत - स्तस्यादात्महितंकुरुत्वमचिराद्धर्मं जिनेन्द्रोदितम्॥१४॥ अन्वयार्थ : (देहिन् !) हे जीव ! (भवान्) आप (अन्येषां मरणम्) दूसरों के मरण को (अगणयन) नहीं गिनते हुए (सदा स्वस्थ) हमेशा अपने Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जनचित्तदालभ ( अमरत्वं चिन्तयसि ) अमरत्व का चिन्तन करते हो (इन्द्रिय द्विपवशी भूत्वा ) रिपी हाथी के वश में होकर (परिभ्राम्यसि ) घूमते हो ( तत्वतः ) निश्चय ही ( यमः ) मृत्यु (अद्य पुनः श्वः ) आज या कल (आगमिष्यति) आयेगी (इति न ज्ञायते) ऐसा जाना नहीं जाता है। (तस्मात्) इसलिए (जिनेन्द्रोदितम्) जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित ( आत्महितम् ) आत्महितकारी (धर्मम्) धर्म को (त्वम् ) तुम (अचिरात् ) शीघ्र ही (कुरु) करो। अर्थ : I हे टेति । दूसरे के परण को न मिलते हुए तू सदैव अपने अमरत्व का विचार करता है और इन्द्रिय रूपी हाथी के वश में होकर परिभ्रमण करता है। आज या कल यम आयेगा, क्या यह पता नहीं है ? इसीलिए तू आत्महितकारी जिनेन्द्रोदित (जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित ) धर्म को धारण कर । भावार्थ: जिस जीव का जन्म हुआ है, उसका मरण अवश्य होता है यह ध्रुव सत्य है। प्रत्येक मनुष्य दूसरों के भरण को देखकर प्रतिदिन इस सत्य की प्रतीति कर रहा है। संसार के बड़े-बड़े वीर भी इस मृत्युमल्ल के द्वारा क्षणभर में परास्त हुए हैं। संसार में मृत्युमल्ल ही एक ऐसा मल्ल है, जो दुर्जय है । आचार्य श्री स्वामी लिखते हैं कुमार अड्बलिओ वि राउदो मरणविहीणो ण दीसदे को वि । रविवज्जंतो वि सथा रक्थ्यप्पयारेहि विविहेहिं ॥ - (कार्तिकेयानुप्रेक्षा - २६ ) अर्थात् आयुकर्म का क्षय होते ही मनुष्य को यह शरीर रूपी किराये का मकान खाली करना पडता है। आयुकर्म के क्षयोपरान्त यह जीव इस शरीर में एक पल भी नहीं रह सकता। दूसरों की मृत्यु को देखकर प्रत्येक मनुष्य को ऐसा विचार करना चाहिये कि सभी जीव आयुकर्म के यशवती हैं। अपनी बारी आने पर सब को मृत्यु रूपी सिंह भक्षण करता रहता है। आज यह चला गया । कल मुझे भी जाना पड़ेगा । २४ २७ - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W w wमनाचलवळभ :&ARI मृत्यु संसार का चिरन्तर ध्रुवसत्य है। इसे मानते हुए भी जीव दमरों | की मृत्यु को देखकर स्टेत नहीं होता। यह ऐसा विचार करता है कि | माजों वह अभर ही रहने वाला हो । इसलिा? मनुष्टय मृत्यु की चिन्ता किये बिना सांसारिक सुखों के उपभोग में सदैव निमग्न रहता है ! इन्द्रिय रूपी हाथी अट्ठाईस विषय रुपी सूंडों से युक्त है । वह इष्ट अनिष्ट की कल्पना रुपी मढ़ से मत्त हो गया है । आत्मा के सदगुण रूपी वन को उजाडने के लिए संयम को तोडकर वह इतस्ततः दौड लगा रहा है । उसकी अखत रूपी चिंघाड इतनी तीव है कि उसकी आवाज को सुनकर चेतनारूपी हिरणी भयाक्रान्त हो रही है । मिथ्यात्व रूपी औरें उसके आसपास मंडरा रहे हैं, जिससे उसकी मादकता और बढ़ रही है । आचार्य भगवत दया से युक्त होकर समझाते हैं कि - हे जीव ! इस बात को कोई भी संसारी प्राणी नहीं जानता कि उसकी मृत्यु किस पल होने वाली है। इसलिए उसे प्रतिपल सजग रहना चाहिये । क्या पता कि अगला पल उसे देखने मिले या न मिले ? इसलिए मृत्युमल्ल का नाश करने में समर्थ ऐसे जिलेन्द्रकथित धर्म का आचरण करके उसे अपने जीवन को सफल बना लेना चाहिये । मोह का त्याग करने की प्रेरणा सौख्यं वाञ्छसि किन्त्वया गतभवे दानं तपो वा कृतं, नोचेत्त्वं किमिहैवमेव लभसे लब्धं तदत्रागतम्।। धान्यं किं लभते विनापि वपनं लोके कुटुम्बीजनो, देहे कीटक भक्षितेक्षुसदृशे मोहं वृथा मा कृथाः ॥१५॥ अन्वयार्थ : (त्वम्) तुम (सौख्यं ताम्छ सि) सुख को चाहते हो । (किम) क्या (त्वया) तुम्हारे द्वारा (भतभवे) पूर्वभव में (दानं वा तपः ) दाला अथवा ताप (कृतम्) किया गया ? (जो चेत्) यदि नहीं तो (किम् इह एवमेव) अब इसलोक में किसप्रकार (लभसे) पाप्त कर सकते हो ? (लोके) नोक्त में (लब्धं तत् अत्र आगतम्) जो किया है दह' साथ में आया है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज क मजनाचनबल्लभ लललल कुटुम्बीजनः) कुटु म्बीजन भी (किं वपनं विनापि) तथा बोरो बिना ही (धान्यं लभते) याज् पाते हैं । (कीर कमक्षित) कीड़ों के पास खाये गये (इक्षु सहशे) गल्ने के समाज (देहे) शरीर में (वृथा मोहम्) व्यर्थ में ही मोह (मा कृथाः) मत करो । अर्थ : हे जीव ! तुम सुख चाहते हो ? क्या तुमने पूर्व भत में दान अथवा तप किया है ? यदि नहीं, तो इस लोक में सुख कैसे मिलेगा ? जैसा तुमने किया. वैसा ही इस लोक में आ गया। क्या कुटुम्बीजन भी बिना कुछ बोये धान्य प्राप्त कर सकते हैं ? कीडों के द्वारा रताये गये गन्ने के समान इस शरीर में तुम व्यर्थ ही मोह मत करो। भावार्थ : सातावेदनीय का उदय तथा लाभान्तराय कार्य का क्षयोपशम आदि निमित्तों की प्राप्ति होने पर संसार के सुखों की प्राप्ति होती है। बीज के समान ही वृक्ष होता है । यह सर्वमान्य लोक ति: पूसा है। जीव जैसा करता है, वैसा ही भोगता है । जिसने पूर्वभव में सत्पात्रों को दाज नहीं दिया है व इच्छा के निरोध रुप तप नहीं किया है, तो उरो इसम्भव में सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि जीव कृतकर्मों का फल । | अवश्य ही भोगता है। इस शरीर की रिश्चति कोडे लगे हुए या काने गन्ने की तरह है। इससे रत्नत्रय की प्राप्ति कर लेना ही बुद्धिमत्ता है। कविवर श्री मंगतराय जी लिखते हैं कि :काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवे। पले अनंत जुधर्मध्यान की भूगि विषैबोवै।। केशर चन्दन पुषा सुगन्धित वस्तु देव सारी। देह परसते होय अपावन निशदिन मल जारी॥ (बारह भावना -१५) शरीर निःसार दल्यों से भरा हुआ है। जैसे काना गल्ला बोने पर मीठा आला प्राप्त होता है. उसीपकार शरीर को तप में लगाने पर वह शाश्वत सुख रूपी गल्ले को पढ़ान नाता है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRR मन्जनविजवाहर ____ जो शरीर के स्वरूप को जाने बिना उस पर मोह करता है वह आपने जीवज को व्यर्थ खो देता है। कैसा है यह शरीर ? इस शरीर के स्पर्श होजे से केशर, चन्दन, पुष्प एवं सुगन्धित वस्तुयें अपवित्र हो जाती है. इस शरीर से प्रतिदिन, प्रतिसमय लगातार मल बहता रहता है। अतः भव्य जीव को शरीर का मोह छोडकर आत्मोद्धार कर लेना चाहिये। मनुष्यायु कैसे व्यतीत होती है ? आयुष्यं तव निद्रयार्द्धमपरं चायुस्त्रिभेदादहो, बालत्वे जरया किमद् व्यसनतो यातीति देहिन् वृथा। निश्चित्यात्मनि मोहपाशमधुना संछिद्य बोधासिना , मुक्तिश्रीवनितावशीकरणसच्चारित्रमाराधय ॥१६॥ अन्वयार्थ : (अहो) अहो (दे हिन् !) हे शरीरधारी । (तव) तुम्हारी | (अर्धमायुष्यम्) आधी आयु (निद्रया) निद्रा में (अपरम्) अन्य (बालत्वे जरया) बाल और वृद्धावस्था में तथा (कियद् व्यसनतः) कुछ व्यसनों से. इसप्रकार (रिभेदात्) तीन प्रकार से (वृथा याति) व्यर्थ हो जाती है। (अधुना) अब (आत्मनि) आत्मा में (निश्चित्य) निश्चय करके (बोध असिना) ज्ञान रूपी तलवार से (मोहपाशं संछिद्य) मोहपाश का छेदन करके (मुक्तिश्रीवनितावशीकरण) मुक्तिरसपी लक्ष्मी को वशीभूत करने वाले (सच्चारित्रम्) सम्यक चारित्र की (आराधय)। आराधना करो। अर्थ : हे देहिन् । अहो तेरा आधा आयुष्य निद्रा में दसरा आधा आयुष्य | बालपन और बुढाऐं में, कुछ व्यास जों में, इन तीन प्रकारों से व्यर्थ हो जाता है । इसप्रकार अब स्वयं निश्त्तय तरके ज्ञान रूपी तलवार से | मोहपाश का छेदन करके मुक्तिश्री को वश में करने के लिए सत्त्वारित्र | की आराधना करो। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । Ammanderer' Rozaar सज्जननिसवल्लभ wwwxowa भावार्थ:___ मनुष्य पर्याय की प्रामि होजा अतिशय कठिन है। अतिशय शुभकर्म का उदय इस पर्याय की प्राप्ति का हेतु है। मनुष्य के पास पर्याप्त शारीरिक बल है. मस्तिष्क की अद्भुत विभूति है. समस्त साधनसामग्री को या तो उसे प्रकृति ने प्रदान कर दिया है या मनुष्य ने अपने पुरुषार्थ से प्राप्त | कर लिया है। मनुष्य के पास पाप और पुण्य करने की पूर्ण सामर्थ्य है तथा दोनों का विनाश करके मोक्ष प्राप्त करने की क्षमता भी । प्रत्येक क्षण आ रहा है और जा रहा है । एक समय ऐसा आयेगा कि आयुकर्म का यह कच्चा धागा टूट जायेगा और मनुष्य को शरीर का पिंजरा छोडना पड़ेगा । अमूल्य पर्याय व्यर्थ में ही नष्ट हो जायेगी । ग्रंथकर्ता समझाते हैं कि - आधा आयुष्य निद्रा में व्यतीत हो जाता है। शेष आधी आयु बालपन, वृद्धावस्था और व्यसनों में व्यतीत हो जाती है । यदि तुम चाहते हो कि यह आयु सफल हो जाये तो मोह रूपी |पाश को ज्ञान रूपी तलवार से छेद दो । मोक्षलक्ष्मी को वश में करने के लिए चारित्र का आचरण करो । परीवह सहन करना चाहिये यत्काले लघुपात्रमण्डितकरो भूत्वा परेषां गृहे, भिक्षार्थं भ्रमसे तदा हि भवतो मानापमानेन किम् । भिक्षो तापसवृत्तितः कदशनात् किं तप्यसेऽहर्निशम्, श्रेयार्थं किल सह्यते मुनिवरैर्बाधा क्षुधाधुद्भवाः ||१७|| अन्वयार्थ : (भिक्षो!) हे साधो ! (यत्काले) जिससमय (लघुपात्रमण्डि तकरो भूत्वा) हाथ को छोटा-सा पात्र बनाकर (परेषां गहे) दसरों के घर (मिक्षार्थ भमसे) भिक्षा के लिए भ्रमण करते हो (तदा हि) तब (भवतः) आपको (मानापमान किम) वटा मान और क्या अपमान ? (अहर्निशम्) दिन-रात (तापसवृत्तितः) तापस-वृत्ति से (कदशनात्) अनिष्ट भोजन से (किं तप्यसे) क्यों दुःखी होते हो ? (मुनिवरैः) श्रेष्ठ मुनिजन (किल) निश्चय से (श्रेयार्थम्) श्रेय के लिए (शुधधुशवा WR ३१PORTRA Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRC मज चत्तबल्लभ बाधा सह्यते) क्षुधा आदि से उत्पन्न होने वाली बाधाओं को सहन करते | अर्थ : हे भिक्षो ! जब हाथ को छोटा भोजन का पात्र बनाकर दूसरों के गृह में भिक्षार्थ भ्रमण करते हो, तब तुम्हें मानापमान से क्या प्रयोजन है ? अहर्निश तापसवृत्ति के कारण कुं... लोजन से तुम ढुःखित क्यों होते हो ? || मुनिगण अवश्यमेव श्रेयार्थ क्षुधादिक से उत्पन्न बाधाओं को सहन करते भावार्थ: मुनिराज बाह्याभ्यन्तर परिवाह के त्यागी होते हैं। अतः वे अपने | पास भोजन के लिए कोई पात्र आदि भी नहीं रखते हैं। जब वे आहार करते हैं, तब वे अपने दोनों हाथों को मिलाकर उसे एक पात्र का रूप देते हैं और उसी करपात्र में स्निग्ध-रुक्ष, इष्ट - अनिष्ट अथवा स्वादिष्ट - नीरस यथालब्ध आहार को ग्रहण करते हैं। आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि - हे मुने ! जब तुम पराये घर में | भोजन ग्रहण कर रहे हो तो मानापमान का विकल्प छोड दो । उनोदर, रसपरित्याग अथवा अशुभ कर्मोदय से भरपेट भोजन न मिलने पर अथवा रुचिकर भोजन की प्राप्ति नहीं होने पर विषाद मत करो । मुनिराज के बाईस परीषहों पर विजय और बारह तयों का परिपालन ये सौतीस उत्तरगुण हैं। मुनिराज मूलगुणों के परिपालन के साथ-साथ उत्तरों की परिपालना में मन को लीज करते हैं। आत्मकल्याण के लिये लुधा और तृषा से उत्पन्न होने वाले महाज कष्टों को भी शान्त रिणामों से सहज करते हैं। मन में मनीजता को प्रवेश नहीं करने देना, infil गहान तप है । संघ में रहने का आदेश एकाकी विहरत्यनस्थितबलीवर्दो यथा स्वेच्छया , योषामध्यरतस्तथा त्वमपि भो त्यक्त्वात्मयूथं यते। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ao भजनवित्तमभ र wara तम्मिश्चेदभिलाषता न भवतः किम्भ्राम्यसि प्रत्यहं, मध्ये साधुजनस्य तिष्ठसि नकिं कृत्वा सदाचारताम्॥१८॥ अन्वयार्थ : (यथा) जिसप्रकार (अनस्थित बनीवर्दः) स्थिति से रहित बैन (योषामध्य रतः) स्त्रियों में आसक्त होता हुआ (आत्मयूथं त्यक्त्वा) अपने समूह को छोडकर (स्वेच्छया) स्वेच्छापूर्वक(एकाकी विहरति) एकाकी विचरण करता है। (भो!) हे साधी! (तथा) उसीप्रकार (त्वमपि) तुम भी घूम रहे हो । | (यदि) यदि (भवतः) आपकी (तस्मिन्) वैसी (अभिलाषा न) अभिलाषा नहीं है (तर्हि) तो फिर (प्रति अहम्) प्रतिदिन (साधुजनस्य मध्ये) साधुओं के मध्य में (कृत्वा सदाचारताम्) सदाचार का पालन करते हुए (किं न तिष्ठ सि ?) क्यों नहीं रहते हो ? (किं भाम्यसि) क्यों भटकते हो ? अर्थ :__ जैसे अनस्थित (स्चितिरहित) बलिष्ट बैल स्त्रियों में आसक्त होता हुआ अपने यूथ को छोडकर स्वेच्छा से एकाकी घूमता है, वैसे तुम भी घूम रहे हो । यदि उनमें तुम्हारी इच्छा नहीं है. तो तुम साधुजनों के मध्य में क्यों नहीं रहते हो ? भावार्थ: जिनकल्पी और स्थविरकल्पी के भेद से मुनियों के दो भेद हैं। जिन्होंने राग, द्वेष और मोह रूपी शओं को जीत लिया है, जो चतुर्विध उपसर्ग और बाईस प्रकार के परीषह रूपी शत्रु पर विजय को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, जो सिजेन्द्र मलावाज के समान बिहार करते हैं, जो उत्तम सिंहनन के धारी होते हैं और सामायिक २. सारित्र का परिपालन करते । हैं, वे मुनि जिनकल्पी कहलाते हैं। दो मुनि एकाकी विचरण किया करते है। वे मुनि धृतिगुणसमा. श्रुतबल से परिपूर्ण, एकत्वम्भावना में रत. हो तपोवृद्ध, झामद. आचरण सुशिल और परमतिरपृहत्व आदि गुणों के धारक होते हैं। AAI -Ai Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र सज्जनाचनबल्लभ र ह न स्थविरकल्पी मुनिराज छ हों संहननों में से किसी एक संहनन के धारक होते हैं। इनमें सामायिक और छे दोपरथापना ये हो चारित्र पाये जाते हैं । अपने संहनन के अनुसार ये मुनि कायक्लेशाढि तपों का अनुष्ठान करते हैं । यद्यपि इनका चारित्र. श्रुत और श्रद्धान भी परम प्रशंसनीय होता है तथापि वे उत्तम संहनन के अभाव में घोरोपसर्ग सहन करने में सक्षम होते भी हैं और नहीं भी । चारित्र का परिपालन करते हुए कषायोद्रेक न हो, प्रमाद चारित्र को दृषित न करे और अशुभोपयोग का जन्म न हो इसलिए चतुर्विध संघ के मध्य में वास करते हैं। इससे इन्हें अपूर्व श्रुतलाभ भी होता है। किसप्रकार का आचरण करने वाले मुनिराज को अकेले नहीं रहना | चाहिये ? इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री वहकेर लिखते हैं कि - समंदगदागदीसयणणिसराणादाणमिक्खवोसरणे। सोनिमसरू विएगागी। (मूलाचार-१५०) अर्थात् :- गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना - इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है, और बोलने में भी स्वच्छन्द रूचि वाला है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे। ऐसे मुनि को आचार्यदेव पापश्रमण कहते हैं। पापश्रमण जिनाज्ञा प्रणाश, अनवस्था, मिथ्यात्वोपसेवन, आत्मनाश, लोकजिन्दा और संयमविराधना आदि दोषों का आगार बन जाता है। । ऐसे मुनिराज को सम्बोधित करते हुए यहाँ ग्रंथकार कहते हैं कि - हे मुने । जिसप्रकार बैल स्त्रियों में आसक्त होकर अपने यूथ को छोडकर एकाकी विहार करता है, उसी प्रकार तुम्हें स्वच्छन्दतापूर्वक गमन नहीं करना चाहिये। मूलाचार में सदाचार के लिए समता, समाचार, सम्माचार, सम्मानाचार और सम्यक् आत्तारादि शब्दों का प्रयोग पाया जाता है। उनका अर्थ निम्नप्रकार से है - ..समता :- राग और द्वेष का अभाव समता है। *:-- -.... . ... ...-. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनवित्तबालभ ललललललल १. समाचार :- महावतों का जिहोंष पालन समाचार है । 1. सम्माचार . - मूलोत्तगुणों का परिपालन जिरतित्तार करना । 1. सम्मानाचार :- विनयात्तार पूर्वक अपने क्रियानुष्ठान करना । .. सम्यक् आचार : - लोक व आगम के अनुकूल आचरण करना । आशय यह है कि मुनिराज को अपने पद के अनुकूल कार्य करने चाहिये। शरीर से निर्ममत्व रहने की प्रेरणा क्रीतान्नं भवता भवेत् कदशनं रोषस्तदाश्लाघ्यते, भिक्षायां यदवाप्यते यतिजनैस्तद्भुज्यतेऽत्यादरात्। भिक्षो भाट कसद्मसन्निभतनोः पुष्टिं वृथा मा कृथाः, पूणे किं दिवसावधौ क्षणमपि स्थातुं यमो दास्यति॥१९॥ MAMI . अन्वयार्थ : (कदशनम्) अरुचिकर भोजन (भवता) यदि आपके द्वारा (क्रीतान्नं भवेत्) खरीदा हुआ हो (तदा) तब (रोषः) क्रोध करना (श्लाघ्यते) प्रशंसनीय है। (भिक्षायाम्) भिक्षा में (अति-आदरात) अत्यन्त आदर से (यत् अताप्यते) जो प्राप्त होता है (यतिजनैः) यतिगण (तद् भुज्यते) उसे खाते हैं। (भियो।) हे भिक्षुक ! (भाट क सदम सन्निम) किराये के मकान के समान (तनोः) इस शरीर की (वृथा) व्यर्थ में ही (पुष्टि' मा कृथाः) पुष्टि मत करो । (दिवसावधौ पूर्णे) आयु की अवधि पूर्ण हो जाने पर (किम्) क्या (क्षणमपि) क्षण भर भी (यमो) रामराज (स्थातुं दास्यति) हरने देगा ? अर्थात् ठहरने नहीं देगा। अर्थ: यदि अरुचिकर भोजन आपके द्वारा क्रीत हो अर्थात् खरीदा हुआ हो तब आपका क्रोध करना भी प्रशंसनीय हो सकता है । भिक्षा में अति आदर से जो प्राप्त होता है , यतिजन उसे खाते हैं। किराये में लिये हुए घर के समान यह शरीर है। इसे वृथा ही पुष्ट मत करो | आयुष्य की र ३५RROWORDI. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जनचिन समाप्ति पर क्या राम तुम्हें क्षणभर के लिए भी ठहरने देगा ? अर्थात् आयुष्य के समाप्त हो जाने पर इस शरीर का त्याला करना ही पड़ेगा । भावार्थ: एषणासमिति पूर्वक आहार करने वाले मुनिराज आहार में भी निस्पृह होते हैं । वे छयालीस दोषों का निवारण करते हुए आहार लेते हैं। उनके आहार ग्रहण करने के छह कारण होते हैं । यथा वैयणवेचे किटियाचे व संजलाए : तध पाणधम्मचिंता कुन्जा एदेहिं आहारं ॥ (मूलाचार : ४७१ ) अर्थात् :- वेदना के शमन के लिए, वैय्यावृत्ति के लिए, क्रियाओं परिपालन करने के लिए, संयम की निर्मलता के लिए तथा प्राणों की और धर्म की चिन्ता के लिए इन कारणों से मुनिराज आहार करें। आहार लेना मुनियों के लिए इसलिए आवश्यक है कि उसके बिना मुनिराज अपने शरीर रूपी रथ को मोक्ष महल तक नहीं ले जा सकेंगे । भोजन आवश्यक होते हुए भी मुनि उसमें आसक्त नहीं होते। वे निर्दोष दाता के हाथों से छियालिस दोषों से रहित आहार लेते हैं। चौदह मलदोष को टालकर और बत्तीस अन्तरायों को पालकर वे अपनी आहारचर्या करते हैं। — आहार करते समय अपने स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु मुनिराज मौन ही रखते हैं। उससमय हुंकार भरना, इशारे करना आदि कार्यों को छोडकर शष्ट और अनिष्ट, जैसा भी आहार मिलता है, वे शान्त परिणामों से ग्रहण करते हैं। मुनिराज अनियत आहार-विहारी होते हैं। अनेक ग्राम-नगरों में विहार करते समय उन्हें विवेकी अथवा विवेकहीन श्रावक के द्वारा अनुकूल अथवा प्रतिकूल आहार पास होता है ! वे उसमें हर्ष विषादादि नहीं करते | यदि कचित आहार का लाभ नहीं हुआ तो भी वे मुनि रुष्ट नहीं होते। मैंने अज्ञानतावश पूर्वअव में जो दुष्कृत्य किये थे, उसका फल आज मुझे पास हो रहा है. ऐरगानकर के मुनि मज में समताभाव को धारण करते हैं । ३६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1898 कोई मुजि अनिष्ट आहार पास होने पर क्या न्तिज करें ? श्रावक मुझे अभाव से आहार के रहा है। मैं इस अन कोरी नहीं रहा हूँ । 'यदि यह भोजन मुझे खना होता तो उसमें मनुकूलता को ढूंढना उचित होता । खरीदते समय यदि अनुकूल वस्तुयें प्राप्त नहीं होती हैं तो क्रोध आना स्वाभाविक भी है क्योंकि अपना पैशा लगाया जा रहा है। मैं कुछ दे नहीं रहा हूँ फिर क्रोध करने का मुझे क्या अधिकार है ? ऐसा चिन्तन करके मुनिराज अपने क्रोध का शमन करें । यह तन किराये के मकान के समान है। जिसदिन गृहस्वामी घर को खाली करने का आदेश देगा तो किरायेदार को घर खाली करना पडेगा, उसीप्रकार जब आयुकर्म पूर्ण हो जायेगा, यह शरीर छोडना पड़ेगा | आयु के समाप्त होने पर इस शरीर में एक क्षण भी निवास नहीं हो सकता। इसलिए आत्मसाधक को शरीरपुष्टि का विकल्प नहीं करना चाहिये तथा इस शरीर के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र आत्मकल्याण करने का प्रयत्न करना चाहिये । उनका जीवन निष्फल हो जाता है। लब्ध्वार्थं यदि धर्म्मदानविषये दातुं न यैः शक्यते, दारिद्रोपहतास्तथापि विषयासक्तिं न मुञ्चन्ति ये । धृत्वा ये चरणं जिनेन्द्रगदितं तस्मिन्सदानादरास्तेषां जन्मनिरर्थकं गतमजाकण्ठे स्तनाकारवत् ॥२०॥ अन्वयार्थ : - : (यदि अर्थ लब्ध्वा ) यदि धन को प्राप्त करके ( ये ) जो ( धर्मदानविषये ) धर्म और दान के करने में (दातुं न शक्यते ) दे नहीं सकते (ये दारिद्रोपहताः ) जो दरिद्रता से युक्त है (तथापि ) फिर भी (विषयासक्तिम्) विषयों की आसक्ति को ( न मुञ्चन्ति) नहीं छोड़ते हैं। ( थे जिनेन्द्रगदितम् ) जो जिनेन्द्र के द्वारा कथित (चरणं धृत्वा) चारित्र को धारण करके ( तस्मिन्) उसमें (सदी) हमेशा (अनादराः ) अनादर करते हैं ( तेषाम् ) उनका (जन्म) म (अजाकण्ठे स्तना ३७ ३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक मज्जनचित्तल कारवत्) बकरी के कण्ठ में लगे हुए स्तन के समान (निरर्थकं गतम्) निर्थक हो जाता है । अर्थ : अर्थ को प्राप्त करके भी जो धर्मकार्य में नहीं देते हैं, जो दरिद्रता से उपहत ( युक्त ) होते हुए भी विषयासक्ति नहीं छोड़ते हैं, जो जिनेन्द्र के द्वारा प्ररूपित धर्म को प्राप्त करके भी उसमें सदैव अनादर भाव रखते हैं उनका जन्म बकरी के गले में लगे हुए स्तन के समान निरर्थक हैं । भावार्थ: संसार में तीन तरह के मनुष्यों का जन्म निरर्थक हो जाता है। १. जिनके पास प्रचुरमात्रा में सम्पदा है, परन्तु उसका उपयोग धर्म कार्य और पात्रदान के लिए नहीं होता है । उनके पास धन का होना या नहीं होना समान ही है। पूर्वकृत् पुण्यकर्म का उदय होने पर धन का लाभ होता है। धन एक साधन है। उसके द्वारा पुण्य अथवा पाप का | अर्जन किया जा सकता है। विषयभोगों के लिए व्यय हुआ धन पायों का सृजक हैं और धर्मकार्य तथा पात्रदान में लगा हुआ धन पुण्य रूपी कल्पवृक्ष की वृद्धि करता है। इस संसार में धन को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। जिनके पास धन हो, उनमें दान की भावना उत्पन्न होजा उससे भी कठिन है। दान करने की इच्छा हो और सत्पात्र का समागम हो जाये यह संयोग तो महादुर्लभ है। जिन जीवों को ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं और फिर भी वे दानधर्म में प्रवृत्ति न करें तो उनका धन व्यर्थ ही है । ३. कुछ लोग अपने स्वोपार्जित पापोदय से निर्धन अवस्था को प्राप्त होते हैं। उन जीवों के पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कराने वाले साधन भी नहीं होते हैं। दरिद्रता उनके ओज, तेज, प्रभाव आदिक समस्त गुणों का हरण कर लेती है। उनके पास परिजन और मित्रजनों का भी अभाव होता है । वे फटे हुए और मैले हुए वस्त्रों को पहनने के लिए विवश होते हैं। उनका जीवन दूसरों की किंकरता को करते-करते ही समाप्त हो जाता है। सारे तत्वविद् कहते हैं कि दरिद्रता से बढ़कर कोई दुःख नहीं है। दरिद्र व्यक्ति के पास शरीर रूपी धन है। उस धन के द्वारा वह धर्म करके पुण्यार्जन कर सकता है। यदि दरिद्र मनुष्य अपनी ३८ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनचित्तवलभ विषयासक्ति पर अंकुश लगा ले अर्थात् तपोमार्ग में प्रवृत्त हो जावे तो भी वह अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। जो स्वस्थ शरीर को पाकर भी विषायासक्ति को नहीं छोड़ता, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है। प्र ३. इस अनादि संसार में जीव को मनुष्य पर्याय का लाभ अत्यन्त कठिनता से होता है। उसमें भी उच्चकुल, दीर्घायु, आरोग्यसम्पन्नता और धर्मभावना का होना कठिन है। आचार्य श्री स्वामी कुमार लिखते हैं। - इय सव्व दुलह- दुलहं दंसणणाणं तह्रा चरितं च । मुणिऊणय संसारे महायरं कुणह तिन्हं पि ॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा - ३०१ ) अर्थात् :- इसलिए जिसे चारित्र की प्राप्ति हो गयी है वह धन्य है । मोक्ष का साक्षात् कारण चारित्र है । उसको प्राप्त करके भी जो उसका आदर नहीं करता उसका जीवन व्यर्थ है ! आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि जो जीव धन पाकर दान नही करता, तन पाकर चारित्र का पालन नहीं करता और चारित्र को प्राप्त करके भी उसमें आदर नहीं करता उन तीन तरह के जीवों का जीवन ठीक उसीप्रकार व्यर्थ है जैसे बकरी के गले के स्तन व्यर्थ होते हैं । दुर्लभत्व का बोध लब्ध्वा मानुषजातिमुत्तमकुलं रूपं च नीरोगतां, बुध्दिधीधनसेवनं सुचरणं श्रीमज्जिनेन्द्रोदितम् । लोभार्थं वसुपूर्णहेतुभिरलं स्तोकाय सौख्याय भो देहिन्देहसुपोतकं गुणभृतं भंक्तुं किमिच्छास्ति ते ॥२१॥ अन्वयार्थ : ( भी ) हे मुझे ( मानुषजाति) मनुष्यजाति (उत्तमकुलम् ) उत्तम कुल (रूपम्) रूप (निरोगताम् ) आरोग्य (बुद्धि) बुद्धि (धीधन - सेवनम् ) पण्डितों के द्वारा सेवा (श्रीमज्जिनेन्द्रो दितम् ) श्री जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कथित (सुचरणम् ) सम्यक् चारित्र को ( लब्ध्वा ) प्राप्त . करके (वसुपूर्णहेतुभिः) धन की पूर्णता के लिए (लोभार्थम्) लोभ के एयर ३९ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्जनाचनवल्लभ w काश स्तोकाय साध्याय) अल्प सुख को पाति के ला (गुण भृतम्) ठाणों से भरे हा (देहसुपोतकम) हेह रूपी इनाम जहाज को (भंततं अलम्) तोड़ने को (ते) तुम्हारी (इच्छ। किमस्ति) इच्छा क्यों हो रही अर्थ : मनुष्यजाति, उत्तम कुल, रूप, निशेगता. बुद्धि, विद्वानों के द्वारा सेवा. श्री जिगेन्द्रदेव के व्दारा कथित तारित्र को प्राप्त कर किंचित् सुख के लिये गुण से भरे हुए शरीर रूपी जहाज को नष्ट करने की इच्छा तू क्यों कर रहा है ? (तू उसका क्यो दुरुपयोग कर रहा है ?) भावार्थ: इस संसारचक्र में अनादिकाल से परिभ्रमण करता हुआ यह जीव अनन्त कालपर्यन्त निगोद पर्याय में वास करता रहा है । किसी प्रकार वहाँ से निकल गया तो बहुकाल स्थावर पर्याय में व्यतीत हो गया । स्थावर पर्याय से निकलकर कभी ये जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीव अर्थात् विकलत्रय बज जाता है । यहाँ पर भी बहुत काल व्यतीत हो जाता है । कभी पञ्चेन्द्रिरा भी हुआ तो तिर्यच, नारकी अथवा देव होकर काल व्यतीत करता रहा । ___मनुष्यपर्याय को प्राप्त करना कितना कठिन है. इसे सोदाहरण स्पष्ट करते हुए स्वामी कुमार लिखते हैं कि - स्थांचउप्पहे पिवमण्यत्तंसदलदल्लहलहिय। (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा-२१०) तथा रयणुव्व जलहिपडियं मणुयत्तंतंपिअइदुलहं। (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा. २१७) अर्थात् :- जिसप्रकार चौराहे पर गिरे हुए रत्न का हाथ आना दुर्लभ है, | उसीप्रकार मनुष्यभव भी अत्यन्त दुर्लभ है। अथवा, जिसप्रकार समुद्र में गिर गये रत्न की प्राप्ति होना दुर्लभ है, उसीप्रकार मनुष्य भव को प्राप्त करना दुर्लभ है। मगुष्ट्यपर्याय को पा करके भी उत्तम कुल स्य. आरोलासम्पन्नतः. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O tutafahamu बद्धि और बद्धिमानो को समाजम दलभ है । उत्त सब का संयोग परत होने पर भी सत्यदर्शन बी पप्ले होगा तथा सम्यक्षाल कानाभ होजा कठिन है। उन दोनों के प्राप्त होने पर भी चारित्र की प्राति भजनीर है अर्थात हो अथवा न भी हो । जिनको चारित्र की प्राप्ति हो गयी, उनका जीवन इस संसार में अतिशय धन्य है। आचार्य भगवन्त मुनियों को सम्बोधित कर रहे हैं कि - हे मुने ! दुर्लभ से दुर्लभ चारित्ररत्न की प्राशि तुम्हें हुई है । उसको प्राप्त करके अर्थलाभ के लोभ में उसे व्यर्थ मत करो । उगे टारित्र मोक्ष दे सकता है. शाश्वतसुख को प्रदान कर सकता है. उससे तुच्छ वैभव की चाहना करना बुद्धिमत्ता नहीं है । यदि आप चारित्र को प्राप्त करके भी लोभ को धारण कर रहे हो तो ठीक वैसा ही होगा जैसे कोई नाविक रत्नों से भरे हुए गाल को डूबाने का प्रयत्न कर रहा हो । अतः आपको चारित्र की सुरक्षा निस्पृह होकर करनी चाहिये । स्त्री संगति का निषेध वेतालाकृतिमददग्धमृतकं दृष्ट्वा भवन्तं यते, यासां नास्ति भयं त्वया सममहो जल्पन्ति तास्तत्पुनः। राक्षस्यो भुवने भवन्ति वनिता मामागता भक्षितुं , मत्वैवं प्रपलाप्यतांमृतिभया त्वंतत्रमा स्थाःक्षणम्॥२२॥ अन्वयार्थ : (वेतालाकृतिम् ) वेताल की आकृति वाले (अर्थदग्धमृतकम्) जिले मूढे के समान (भवन्तम) आपको (दृष्ट्वा ) देवकर (यासाम्) जिनको (भयं नास्ति) भर नहीं है (अहो!) अरे ! (त्वया सह) तुम्हारे साथ (तद् जल्पन्ति) ले बोलती हैं (लाः वनिताः) वे स्त्रियाँ (भुवने) इस संसार में (राक्षस्यो भवन्ति) राक्षसी हैं । (माम्) मुझे (भक्षितुं आगता) खाने के लिए आयी हैं (एवं मत्वा) ऐसा मानकर (मृति भयात्) मरण के भय से (प्रपलाप्यताम्) शीट भाग जाओ (त्वम्) तुम । (तत्र) वहाँ पर (क्षणं गा स्थाः ) क्षाय भर भी मत त हरो। MORE४१ लाहाछ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rawww मजचिनवग्लभ www अर्थ : वेताल (प्रेत की) आकृति वाले. अधजले मृतक के समान तुम्हें देखकर को भा नहीं है तुन्हा शारक्षबात करती हैं ऐसी वे स्त्रियाँ || धरती पर राक्षसियों के समान हैं । वे मुझे खाने आयी हैं ऐसा मानकर मरण के भय से तू भाग जा. वहाँ एक पल भी मत रह। भावार्थ : संआषण प्रीति का बीज है । नीतिकारों के मतानुसार भी लेना, देना, खाना, खिलाजा, बोलना और सुनना से छह प्रीति के उत्पादक कारण हैं । स्त्रीविषयक यह प्रीति आगे चलकर धीरे-धरि वासना का रूप ले सकती है । चरणानुयोग पद्धति आत्मनाश के कारणों को प्रारंभ में ही दर करने की शिक्षा देती है । इसी बात को ध्यान में रखकर यहाँ इस श्लोक का अवतरण हुआ है। स्त्री की निन्दा करना, यह उद्देश्य ग्रंथकार का नहीं है क्योंकि साध परनिन्दा जैसे दष्कर्म का आचरण नहीं करते हैं। यहाँ साधु को वैराग्य में प्रवृत्ति कराने के लिए और स्त्रियों से दर हटने के लिए प्रेरित किया गया है। शंका :- स्त्री को राक्षसी कहना तो निन्दायुक्त वचन ही है। समाधान :- श्लोक का प्रत्येक विशेषण विलोकनीय है । मुनिराज रत्नत्रय से पवित्र होते हैं । मोक्षमार्ग के पश्चिक मुनिराज जो कि जगत् में सर्दपूज्य हैं, उनके लिए वेतालाकृति और अर्धदग्धमृतक ये दो विशेषण उनके शरीर की मलिनता को देखकर दिये गये हैं। उनमें भी अनुराग को उत्पन्न करने वाली स्त्री कौन होगी? वेताल की अजरागिनी मानुषी तो हो लहीं सकती क्योंकि वेताल से राक्षसी का ही प्रेम होता है। इसतरह विशेषण -विशेष्य का सम्बन्ध जोडकर विचार करने पर मुनि के तन को कुरूप और स्त्री को इष्टा ऐसा आचार्य देत कह रहे हैं यह अर्थ स्पष्ट । होता है। भावार्थ यह है कि आहारादि का राश्वेष्ट लाभ न होने के कारण तथा कठोर तपश्चर्या के कारण मुजि का शरीर अस्थिकंकाल अर्थात हहियों का पुतल. मात्र रह जाता है । स्नानादित क्रियाओं के न करने से सर्वांग Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमरजनचिनवलभ जल्ल और मल से पूरित हो जाता है। इससे उनका शरीर कुरूप होता है। अस्थिकंकालत्व और कुरूपता ये दो लक्षण प्रेत में पाये जाते हैं। अत यहाँ मुनिराज के शरीर को प्रेत की उपमा दी है। प्रेत से वार्तालाप करने के लिए राक्षसी के समान दुष्ट मना व हिम्मत वाली स्त्री ही चाहिये । अतः यहाँ स्त्री को राक्षसी की उपमा दी गई है। आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि हे मुजे । स्त्री रूपी राक्षसी मुझे अर्थात् मेरे रत्नत्रय को, धर्म को या मोक्षपुरुषार्थ को खाने के लिए आयी है ऐसा विचार करके आप उसकी संगति में एक पल भी मत रुको। आत्मनाश या संयमनाश ही साधु का मरण है। मरण के भय से मनुष्य दूर-दूर भागता है, अतः साधना का मरण न हो इसलिए हे मुळे ! आप स्त्री रूपी राक्षसी से दूर भागो । उनकी संगति में एक क्षण भी व्यतीत मत करो। स्त्रियों पर विश्वास करने का निषेध मागास्त्वं युवतीगृहेषु सततं विश्वासतां संशयो, विश्वासे जनवाच्यतां भवति ते नश्येत् पुमर्थं ह्यतः । स्वाध्यायानुरतो गुरुक्तवचनं शीर्षे समारोपय स्तिष्ठत्वं विकृतिं पुनर्व्रजसि चेद्यासित्वमेव क्षयम् ॥२३॥ अन्वयार्थ : - । (त्वम्) तुम ( सततम् ) हमेशा ( युवतीगृहेषु) स्त्रियों के घर में आपके द्वारा ( विश्वासतां मा गाः) विश्वास मत करो। (ते विश्वासे) विश्वास किये जाने पर (जन वाच्यताम् ) लोक चर्चा एवं ( संशयो भवति) संशय होता है। (नश्येत् पुम् अर्थम्) पौरुष नष्ट होता है (अतः ) इसलिए (त्यम्) तुम (गुरुक्तवचनम् ) गुरु के द्वारा कथित वचनों को (शीर्षे समारोपय: तिष्ठ :) सिर पर धारण करो । ( स्वाध्यायानुरतः ) स्वाध्याय में मग्न रहो। (चेत् पुनर्विकृतिं व्रजेत् ) यदि भ्रष्ट हो जाते हो तो ( त्वमेव ) तुम ही (क्षयं यासि ) क्षरा को प्राप्त हो जाओगे । 153 ४३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ: तू सतत स्त्रियों के घर में विश्वास मत कर, तेरे विश्वास कर लेने से लोक चर्चा होगी. संशय उत्पन्न होगा एवं पौरुष नष्ट होगा। तुम स्वाध्याय में मग्न रहकर गुरु के वचनों को सिर पर धारण करो । यदि तुम भ्रष्ट होते हो तो क्षय को प्राप्त हो जाओगे । भावार्थ: सज्जनचित्तवलभ आचारशास्त्रों में सदाधार की मर्यादा का परिपालन करने के लिए अनेक नियम बनाये गये हैं। उन नियमों का धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। स्त्रियों पर विश्वास करने से पाँच दोष उत्पन्न होते हैं - ऐसा मूलाधार में आचार्य श्री वह केर जी का मत है । वे पाँच दोष कौनसे हैं ? शंका : समाधान:- आचार्य श्री वसुनन्दि जी ने लिखा है किआज्ञाकी पानवस्थामिथ्यात्वाराधनात्मनाशासंयम विराधनानि । - (मूलाचार टीका - ५ / १२७ ) अर्थात् :- आज्ञाकोप, अनवस्था, मिथ्यात्व - आराधना, आत्मनाश और 'संयम की विराधना ये पाँच दोष होते हैं । : 1. आज्ञाकोप जिनेन्द्र की आज्ञा है कि स्त्रियों पर विश्वास न करें। विश्वास करने से उनकी आज्ञा का उल्लंघन होता है । 1. अनवस्था :- गृहस्थ हो या मुनि, उनके पद की एक गरिमा होती है। एक को विलोक कर दूसरे भी उस मर्यादा का पालन करते हैं । एक के द्वारा मर्यादा का भंग करने पर अन्य लोग भी मर्यादा का भंग करेंगे। इसी दोष को अनवरथा दोष कहा जाता है। ३. मिथ्यात्व आराधना सर्वज्ञ की आज्ञा का भंग होने से मिथ्यात्व को पुष्ट होने का अवसर प्राप्त होगा । ४. आत्मनाश :- मिध्यात्व का उदय होने पर सम्यग्दर्शन का अभाव हो जाता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में द्वाज और चारित्र का भी विनाश हो जाता है । रत्नत्रय के विनाश को ही आत्मा का नाश कहा जाता है । -- - ४४ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w wwसज्जनभित्तबल्लभ पर ५. संयम की विराधना :-- स्त्रियों में किया गया विश्वास धीरेधीर पीति को उत्पन्न करता है। प्रीति वासना की जननी है । वासना के कारण इन्द्रियजिवाह रूप संयम का अभाव होकर असंयम वर्द्धित होता ग्रंथकर्ता ने इस श्लोक में तीन मुलदोषों का वर्णन किया है। 1. लोक में अपकीर्ति :- यह साधु स्त्रियों में अनुरागी है, ऐसी अपकीर्ति स्त्रियों में विश्वास करने वाले मुनि के प्रति निश्चित ही उत्पल्ल होती है। १. संशय :- मुनि का चारित्र संशयास्पद हो जाता है। 1. पौरुषनाश :- अस्ति पुरुषश्चिदात्मा (पुरुषार्थसिद्धयुपाय-१) चैतन्यमयी आत्मा ही पुरुष है । पुरुष का कार्य, गुण या धर्म ही पौरुष कहलाता है। स्त्रियों में विश्वास करने से आत्मधर्म अथवा आत्मगुण जे लगते हैं अत्यतिकर कार्यो का विनाश होने लगता है। | शरीर संस्कार का निषेध किं संस्कारशतेन विट्जगति भोः काश्मीरजंजायते , किन्देहः शुचितां व्रजेदनुदिनं प्रक्षालनादम्भसा। संस्कारो नखदन्तवक्त्रवपुषां साधो त्वया युज्यते, नाकामो किल मण्डनप्रिय इति त्वं सार्थकं मा कृथाः ॥२४॥ अन्वयार्थ: (किंग) तया (जगति) संसार में (संस्कार शतेल) सैकड़ों जार किये गये संस्कार से (विट) टेिऽत(काश्मीरजं जायते ?) चन्दन बन जाती है ? (किम् ) वसा (देह) : शीर (अनुदिन) प्रतिद्धिता (अभिसा प्रक्षालनात्)। पालित करने में (अतितांतजेत् ?) पति हो जाता है ? (जअदज्रतिकावपुषाम) जस्तूल. हात. मुख और शरीर का (संस्कारः त्वया युज्यते ) तू संसाः परा है (त्वं भण्ड नप्रियः), तू मला जांप्रेन है (किल अकामी न) निश्वास से अकमी नहीं है (इति सार्थकम् ) तू ऐसा सार्थक नाम (मा कृथाः) मत रख । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनचिनवलन व्य अर्थ : क्या विष्ठा पर सौ बार संस्कार करने पर विष्ठा कभी चन्दन हो आती है ? क्या यह काया प्रतिदिन जलरजान से पवित्र हो जाती है ? नखदन्त, मुख और वपु का संस्कार तू कर रहा है। तू मण्ड नप्रिय हैं, अकामी नहीं ऐसी सार्थकता मत करो। (मण्ड नप्रिय इस नाम को सार्थक मत करो ।) भावार्थ: शरीर का दासत्व करना आत्मा के लिए अहितकर है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अमितगति जी लिखते हैं कि ये भावाः परिवर्धिता विद्यते कायोपकारं पुनस्ते संसारपयोधिमज्ञ्जनपुरा जीवापकार सदा ॥ जीवानुग्रहकारिणी विद्यते कायापकारं पुननिश्चिव्येति विमुच्यतेऽनर्घार्धया कापोपकारि त्रिधा । ( तत्व भावना - ४४ ) अर्थात् :- जो धारण किए हुए व बढ़ाए हुए, रागादिभाव व स्त्री, पुत्र, मित्र, राज्य, धनसम्पदा आदि पदार्थ इस शरीर का भला करते हैं परन्तु वे भाव या पदार्थ संसार समुद्र में डुबाने वाले हैं इसलिए वे हमेशा जीव का बुरा करते हैं तथा जो वीतराग भाव या तप, व्रत, संयम आदि जीव के उपकार करने वाले हैं वे शरीर का बुरा करते हैं अर्थात् शरीर को संयमी व संकुचित रहने वाला बनाते हैं ऐसा निश्चय करके निर्मल बुद्धिमान मानव को मन, वचन, काय तीनों प्रकार से शरीर को लाभ देने वाले और आत्मा का बुरा करने वाले पदार्थों को या भावों को छोड़ देना उचित है। - इसी तथ्य की अभिव्यक्ति करते हुए श्री पूज्यपादाचार्य लिखते हैंराज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम् । राधेहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ॥ ( इष्टोपदेश - ९८ ) अर्थात् :- जो जीव (आत्मा) का उपकार करने वाले होते हैं, वे शरीर का अपकार (बुरा) करने वाले होते हैं। जो चीजें शरीर का हित या उपकार करने वाली होती है वही चीजें आत्मा का अहित करने वाली होती हैं । २०४६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनजिवलय का । जबतक आत्मीपोम पारीर में लगा हुआ होता है तनतकारस्थानी हुआ वह मूढ जीव आत्मकल्याण से दागुर हो जाता है। इसीलिए शरीर से ममत्व का त्याग करता साधनामार्ग के साधक का प्रथम कर्त्तव्य | है। इसके लिए शरीर के मण्डज करने की रुचि सर्वप्रथम छोड देनी चाहिये। इसी तथ्य को इस श्लोक में ग्रंथकर्ता ने स्पष्ट किया है । वे | करुणापूर्वक समझाते हैं कि . हे साधो ! यह शरीर विष्ठा से भरे हुए। बर्तन के समान है । यह कभी भी शुद्ध नहीं होता। क्या सैकड़ों बार जल से प्रक्षालित किये जाने पर भी विष्ठा कभी चन्दन बन सकती है ? जिस | प्रकार विष्ट । चन्दन का रूप धारण नहीं कर सकती. उसीप्रकार सैकड़ों बार प्रक्षालित करने पर भी शरीर कभी पवित्र नहीं होता । शरीर का संस्कार करते समय यदि तुम जख,केश और मुख को श्रृंगारित करते रहोगे तो तुम मण्ड प्रिय कहलाओगे और यदि तुम मण्ड नप्रिय हो तो तुम्हें अपना नाम अकामी नहीं रखना चाहिये । इसलिए तुम शरीर का मण्ड नकार्य शीघ्र ही छोड़ दो। ग्रंथ का उपसंहार वृतैर्विंशतिभिश्चतुर्भिरधिकैः सल्लक्षणेनान्वितै -- ग्रन्थं सज्जनचित्तवल्लभमिमं श्री मलिषेणोदितम् । श्रुत्वात्मेन्द्रियकुन्नरान् समटतो रुन्धन्तु ते दुर्जरान्, विद्वान्सो विषयाटवीषु सततं संसारविच्छित्तये ।।२५|| अन्वयार्य : (श्री मल्लिषे यो दितम्) श्री मल्लिषेण के द्वारा कथित ग्रह (सज्जनचित्तवल्लभं ग्रन्थम्) सज्जनचित्तबल्लभ नामक लांथ (सल्ल -क्षणान्वितैः) समीचीन लक्षणों से युक्त है (चतुभिरधिक: वृत्तैर्विं - शतिभिः) चौबीस छ न्दों से युक्त है । (ये विन्दान्सः) जो बुद्धिमान हैं (ते इमं ग्रन्थं श्रुत्वा) वे इस हांथ को सुनकर (संसारविच्छि त्तये) संसार का विनाश करने के लिए (दुर्जरान्) जिसको जीतना कठिन है ऐसे (आत्मेन्द्रियकुअरान्) अपने इन्द्रिय रूपी हाथियों को (विषयाट वीषु) ਨੂੰ ਨੁਣੁ ੪g pਨੁਣਾਨੁ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www मनचित्तबालभ खलल विषय रूपी वन में (सततम्) हमेशा (समट तः) परिश्रमण करने से (रुन्धन्तु) रोकते हैं . अर्थ: आचार्य श्री मन्निषेण जी द्वारा कथित चौबीस छन्दों वाला सच्चे लक्षणों से युक्त यह सजनविमल लामक : है. लो सुतः विद्वान् लोग अपने इन्द्रिय रूपी हाथियों को, जो कि विषय वन में| निरंतर घूम रहे हैं, जिनको रोकना कठिन है. उनको रोकें। भावार्थ:-- यह सम्बोधनप्रधान ग्रन्थ है । इस में उपसंहार पद्य को छोडकर चौबीस पद्य हैं । इस गन्थ का नाम सनचित्तवल्लभ है और इसके लेखक आचार्य श्री मल्लिषेण जी हैं। इस लान्थ के पठन-पाठन करने से जो इन्द्रिय रूपी हाथी अत्यन्त डुर्जय है तथा जो विषय रूपी अट वी में सतत परिभ्रमण कर रहा है वह इन्द्रिय रूपी मातंग भी वशवर्ती हो जाता है। इसीलिए इस ग्रन्थ को सुनकर बुद्धिमाज पुरुष को इन्द्रिय रूपी गज को वश में करने का प्रयत्न करना चाहिये । इति सज्जनचित्तवल्लभनामा ग्रन्थं समाप्तम्। इसप्रकार सज्जनचित्तवल्लभ नामक ग्रन्थ पूर्ण हुआ। - ___ माँ जिनवाणी के भव्य प्राणियों पर असीम उपकार हैं। उसी की अनुकम्पा है कि भव्यजीव इस अपार संसार में आधिव्याधि और उपाधिजनीत दुःखों को सदा-सर्वदा के लिए विनष्ट करके अक्षय सौख्य के आलय को प्राप्त कर लेता है। ऐसी भव्योद्धारिणी माता के चरणों में शत-शत वन्दन। मुनि सुविधिसागर - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. ૧ २. 3 ४. ५ E ७. ८. g 13 सज्जनचित्तल श्लोकानुक्रमणिका आचार्य श्री सविधिसागर जी महारा श्लोक क्र. १४. श्लोक अ अद्वशोणित शुक्रमसम्भवगिदम अन्येषां भरणं भवान गणयन अष्टाविंशति बेदमात्मति पुरा आ आयुष्यं तव निद्रार्द्धगपरं ए एकाकी विहरत्रानस्ति बलि ५० दुर्गन्धं नवभिर्वपुः प्रवहति करें ११. दुर्गन्धं वदनं वधुर्मलभृतम् १२. देहे निर्ममता गुरौविनयता ज नवा वीरजिनं जगत्त्रय गुरूम I मागास्त्वं युवतीगृहेणु सततं थ ५५ यत्काले लघु णत्रमण्डित करो १६ राधांछति ततदेव वपुणे ६४९ क किं दीक्षा ग्रहणेन ते यदि धा किं वस्त्रं त्यजनेन भो मुनि रसा किं संस्कार शतेन विट्जगत्ति भोः कीनं भवता भवेत कदशनं ८. १४ १३ १६ १८ ५ 3 २४ १५ ७ 3 " २३ १:७ ११ शक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहा मज्जाचनवाप्रभ रहल श्लोक क्र. क्र. | १७ . श्लोक योषा पाउडुक गोवितर्जित पदे रात्रिश्चन्द्रमसा दिनानिवहै लावार्थ यदि धर्मादाजविषये लावा भाषातमुत्तमपुर न वृत्तैर्विशतिभिश्चतुर्भिरधिकैः वेतालाकृतिम दग्धमृतकं शोचन्ते न मृतं कदापि वनिता सौख्यं वाञ्छसि किन्त्वया गतभवे स्त्रीणां भावविलासविधाममति मनुष्य जीने के लिए स्वयं लालायित रहता है। प्राणों का मोह सभी प्रकार के मोह से अधिक प्रबल होता है। यदि मनुष्य अपने प्राणों के समान अन्य को भी अपने प्राण 'यारे हैं, ऐसा मान लेवें तो उसके मन में दयाभाव अवतीर्ण हो जायेगा। दया की वृत्ति मनुष्य के अन्दर विराजित ग्यम्पूर्ण सद्गुणों में प्रमुख है। यही वृत्ति सत्वेषु मैत्री के सिध्दान्त का परिपालन कगती है। दया के वशीभूत होकर ही मनुष्य परोपकार की दिशा में अग्रसर होता है। जो उपकार करता है, वह भी आत्मरुप से उपक़त होता है। जो जीवदया के रंग में रंग जाता है, वही | Mi का सबमें श्रेष्ठ बहेता होता है। गर एEOख ५० लाख Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालसजनपिसाबमस्याला सहायक ग्रन्थों की सचि क्रम । [ori mi x gwsvoor ......... ग्रन्थ का नाम लिंगपाहुड सुभाषित रत्न सन्दोह इष्टोपदेश रलमाला ज्ञानार्णव तत्त्वभावना समाधिशतक कार्तिकेयानुप्रेक्षा मूलाचार श्रृंगार वैराग्य तरंगिणी बारहभावना बारहभावना | ग्रन्थकर्ता आचार्य श्री कुन्दकुन्द जी आचार्य श्री अमितगति जी आचार्य श्री पूज्यपाद जी आचार्य श्री शिवकोदि जी आचार्य श्री शुभचन्द्र जी आचार्य श्री अमितगति जी आचार्य श्री पूज्यपाद जी आचार्य श्री स्वामी कुमार जी आचार्य श्री वट्टकेर जी आचार्य श्री प्रभाचन्द्र जी पंडितप्रवर श्री मंगतराम जी पंडितप्रवर श्री धानतराय जी मनुष्य मरणधर्मा है। उसका जीवितव्य पानी के बलबूले की भाँति ही क्षणस्थायी है। जबतक जिन्दगी की धड़कनें शेष हैं, तबतक मनुष्य को अपने आत्मकल्याण कर लेना चाहिये। यह शिक्षा जिनवाणी माता प्रतिपल दे रही है। जो इस शिक्षा को ध्यान में रखकर अपने जीवन के प्रत्येक समय को व्यतीत करता है उसके जीवन में मृत्यु किसी भी पल आ जाये, उसे|| अफसोस नहीं होता है। मुनि सुविधिसागर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे उपलब्ध प्रकाशन 1- रत्नमाला 27 रु. 2- प्रमाणप्रमेयकलिका २.रु. 3- सम्बोहपंचासिया १३रु. 4- ढव्यसंग्रह 5- वैराग्यसार 6- कषायजय-भावना १०रु 7- सज्जनचित्त वल्लभ 8- ज्ञानांकुश ३०रु. repchla 30रु 15. 11 रु. 7! १७रु. १८रु. १३रु. 1- कल्याणमन्दिर विधान भक्तामर विधान रविव्रत विधान रोटतीज व्रत विद्यान 5- जिनगुणसम्पत्ति व्रत विधान 6- श्रुतस्कन्ध विधान 7 - 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