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or मज्ज चनवलपरासन भावार्थ:
यहाँ संसार : नापने को साया है । यद्यपि अतिरंजकता का अनुभव होता है, परन्तु कदाचित ऐसा भी संभव है। मनुष्य के मर जाने पर परिवार वाले लोग तो अग्निसंस्कार के तुरन्त बाद ही उसे भूल जाते हैं। यदि घर में धन हो तो पत्नी अधिक द.रव नहीं करती ।
कहते हैं कि समय सारे जख्म का एकमात्र मलहम है। धीरे-धीर मनुष्य के परिजन मृत्युशोक को भूलकर अपनी पूर्ववत क्रियाओं में रम जाते हैं फिर मृतक की स्मृति किसी को भी नहीं रहती है ।
त्यागी हुई वस्तु को पुनः ग्रहण करने का निषेध अष्टाविंशतिभेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधो व्रतं, साक्षीकृत्य जिनान् गुरूनपि कियत्कालं त्वया पालितम्।
भङ्ग वाञ्छसि शीतवातविहितो भूत्वाधुना तद्वतं, । दारिद्रोपहतः स्ववान्तमशनंभुङ्कतेक्षुधार्तोऽपि किम्॥१३॥
अन्वयार्थ :न (साधो !) हे साधो ! (त्वया) तुम्हारे द्वाश (पूरा) पहले (जिनान्) *जिनेन्द्र की (गुरून् अपि) गुरु की भी (साक्षीकृत्य) साक्षी करके (अष्टाविंशति भेदम) अहाईस भेद रूप (व्रत आत्मनि समारोप्य) व्रतों को आत्मा में आरोपित करके (कियत्कालम्) कितने ही कालपर्यन्त (पालितम्) पाला गया । (तद् व्रतम्) उस व्रत को (अधुना) अब (शीतवातविहितो भूत्वा) शीतवायु से व्याकुल होकर (म वाञ्छ सि) ॐग करना चाहता है, (दारिद्रोपहतः) दरिद्रता से युक्त (क्षुधार्तः अपि) भूस्खा मनुष्य भी (किम) क्या (स्व-वान्तम्) अपने हास्न वो (अशनं भुट्टते) स्वाता है ? अर्थात नहीं खाता है । अर्थ :- हे साधो - अगवाज और गु२. को साक्षी में पहले तुम्हारे हाश
लगुणों को धारण कर कुछ तालार्सन्त पाया गया भा. अब शतायु
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