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n aa पोपित तन भी परभत में साथ नहीं जाता, तब क्या मित्रादि प्रत्यक्ष परजीव सक्ष जा सकते है ? नहीं जा सकते।
जीन के द्वारा उपार्जित किये गये पाप और पुण्य ही जीव के साथ | परभव में जाते हैं। उन्हीं के कारण मनुष्य को इष्टानिष्ट संयोग और विद्योग, सुख और दस्त प्राप्त होते हैं । अतः शरीर से मोह को हटा कर | आत्मविकास में मन को लगाना चाहिये ।
स्वार्थ के कारण से सम्बन्ध होते हैं शोचन्ते न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेहं धनं, तच्चेन्नास्ति रुदन्ति जीवनधिया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम् । कृत्वा तदहन क्रियां निज-निजव्यापार चिन्ताकुलाः, तन्नामापि च विस्मरन्ति कतिभिः सम्वत्सरैः योषिताः॥१२॥ अन्वयार्थ :
(यदि) यदि (गेहे) घर में (धनम् अस्ति) धन है तो (वनिता ) स्त्रियाँ (कदापि) कभी भी (मृतं न शोचन्ते) भरे हुए जीव का विचार नहीं करती हैं । (चेत) यदि (नास्ति) नहीं हो तो (प्रति-अहं जीवनधिया) प्रतिदिन जीवन को धारण करने के लिए (स्मृत्वा पुनः रुदन्ति) याद करके रोती है । परिजन (तद्दहनक्रियाम्) उसकी दहनक्रिया को (कृत्वा) करके (निज-निजव्यापारचिन्ताकुला) अपने -अपने व्यापार की चिन्ता में आकुलित होते हुए (तन्नामापि) उसके नाम को भी (विस्मरन्ति) भूल जाते हैं। (योषिता अपि) स्त्रियाँ श्री (कतिःि संवत्सरेः) कुछ वर्षों में (उसके नाम को भूल जाती है ।) अर्थ :
यदि घर में धज है. तब स्त्री मरने का कभी विचार नहीं करती है. यदि धन नहीं है तब जीवन धारण करने के लिए उस मरने वाले को याद करके रोती है। सम्बन्धी लोग उसकी दाह क्रिया को अपजे - अपने व्यापार की चिन्ता से आकुल होते हैं तथा कुछ त में ही स्त्री उसका नाम भी भूल जाती है।