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मज्जनचिन
समाप्ति पर क्या राम तुम्हें क्षणभर के लिए भी ठहरने देगा ? अर्थात् आयुष्य के समाप्त हो जाने पर इस शरीर का त्याला करना ही पड़ेगा । भावार्थ:
एषणासमिति पूर्वक आहार करने वाले मुनिराज आहार में भी निस्पृह होते हैं । वे छयालीस दोषों का निवारण करते हुए आहार लेते हैं। उनके आहार ग्रहण करने के छह कारण होते हैं । यथा
वैयणवेचे किटियाचे व संजलाए : तध पाणधम्मचिंता कुन्जा एदेहिं आहारं ॥
(मूलाचार : ४७१ ) अर्थात् :- वेदना के शमन के लिए, वैय्यावृत्ति के लिए, क्रियाओं परिपालन करने के लिए, संयम की निर्मलता के लिए तथा प्राणों की और धर्म की चिन्ता के लिए इन कारणों से मुनिराज आहार करें।
आहार लेना मुनियों के लिए इसलिए आवश्यक है कि उसके बिना मुनिराज अपने शरीर रूपी रथ को मोक्ष महल तक नहीं ले जा सकेंगे । भोजन आवश्यक होते हुए भी मुनि उसमें आसक्त नहीं होते। वे निर्दोष दाता के हाथों से छियालिस दोषों से रहित आहार लेते हैं। चौदह मलदोष को टालकर और बत्तीस अन्तरायों को पालकर वे अपनी आहारचर्या करते हैं।
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आहार करते समय अपने स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु मुनिराज मौन ही रखते हैं। उससमय हुंकार भरना, इशारे करना आदि कार्यों को छोडकर शष्ट और अनिष्ट, जैसा भी आहार मिलता है, वे शान्त परिणामों से ग्रहण करते हैं।
मुनिराज अनियत आहार-विहारी होते हैं। अनेक ग्राम-नगरों में विहार करते समय उन्हें विवेकी अथवा विवेकहीन श्रावक के द्वारा अनुकूल अथवा प्रतिकूल आहार पास होता है ! वे उसमें हर्ष विषादादि नहीं करते | यदि कचित आहार का लाभ नहीं हुआ तो भी वे मुनि रुष्ट नहीं होते। मैंने अज्ञानतावश पूर्वअव में जो दुष्कृत्य किये थे, उसका फल आज मुझे पास हो रहा है. ऐरगानकर के मुनि मज में समताभाव को धारण करते हैं ।
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