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1898
कोई मुजि अनिष्ट आहार पास होने पर क्या न्तिज करें ? श्रावक मुझे अभाव से आहार के रहा है। मैं इस अन कोरी नहीं रहा हूँ । 'यदि यह भोजन मुझे खना होता तो उसमें मनुकूलता को ढूंढना उचित होता । खरीदते समय यदि अनुकूल वस्तुयें प्राप्त नहीं होती हैं तो क्रोध आना स्वाभाविक भी है क्योंकि अपना पैशा लगाया जा रहा है। मैं कुछ दे नहीं रहा हूँ फिर क्रोध करने का मुझे क्या अधिकार है ? ऐसा चिन्तन करके मुनिराज अपने क्रोध का शमन करें ।
यह तन किराये के मकान के समान है। जिसदिन गृहस्वामी घर को खाली करने का आदेश देगा तो किरायेदार को घर खाली करना पडेगा, उसीप्रकार जब आयुकर्म पूर्ण हो जायेगा, यह शरीर छोडना पड़ेगा | आयु के समाप्त होने पर इस शरीर में एक क्षण भी निवास नहीं हो सकता। इसलिए आत्मसाधक को शरीरपुष्टि का विकल्प नहीं करना चाहिये तथा इस शरीर के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र आत्मकल्याण करने का प्रयत्न करना चाहिये ।
उनका जीवन निष्फल हो जाता है।
लब्ध्वार्थं यदि धर्म्मदानविषये दातुं न यैः शक्यते, दारिद्रोपहतास्तथापि विषयासक्तिं न मुञ्चन्ति ये । धृत्वा ये चरणं जिनेन्द्रगदितं तस्मिन्सदानादरास्तेषां जन्मनिरर्थकं गतमजाकण्ठे स्तनाकारवत् ॥२०॥ अन्वयार्थ :
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(यदि अर्थ लब्ध्वा ) यदि धन को प्राप्त करके ( ये ) जो ( धर्मदानविषये ) धर्म और दान के करने में (दातुं न शक्यते ) दे नहीं सकते (ये दारिद्रोपहताः ) जो दरिद्रता से युक्त है (तथापि ) फिर भी (विषयासक्तिम्) विषयों की आसक्ति को ( न मुञ्चन्ति) नहीं छोड़ते हैं। ( थे जिनेन्द्रगदितम् ) जो जिनेन्द्र के द्वारा कथित (चरणं धृत्वा) चारित्र को धारण करके ( तस्मिन्) उसमें (सदी) हमेशा (अनादराः ) अनादर करते हैं ( तेषाम् ) उनका (जन्म) म (अजाकण्ठे स्तना
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