________________
ao
भजनवित्तमभ र
wara तम्मिश्चेदभिलाषता न भवतः किम्भ्राम्यसि प्रत्यहं, मध्ये साधुजनस्य तिष्ठसि नकिं कृत्वा सदाचारताम्॥१८॥ अन्वयार्थ :
(यथा) जिसप्रकार (अनस्थित बनीवर्दः) स्थिति से रहित बैन (योषामध्य रतः) स्त्रियों में आसक्त होता हुआ (आत्मयूथं त्यक्त्वा) अपने समूह को छोडकर (स्वेच्छया) स्वेच्छापूर्वक(एकाकी विहरति) एकाकी विचरण करता है।
(भो!) हे साधी! (तथा) उसीप्रकार (त्वमपि) तुम भी घूम रहे हो । | (यदि) यदि (भवतः) आपकी (तस्मिन्) वैसी (अभिलाषा न) अभिलाषा नहीं है (तर्हि) तो फिर (प्रति अहम्) प्रतिदिन (साधुजनस्य मध्ये) साधुओं के मध्य में (कृत्वा सदाचारताम्) सदाचार का पालन करते हुए (किं न तिष्ठ सि ?) क्यों नहीं रहते हो ? (किं भाम्यसि) क्यों भटकते हो ? अर्थ :__ जैसे अनस्थित (स्चितिरहित) बलिष्ट बैल स्त्रियों में आसक्त होता हुआ अपने यूथ को छोडकर स्वेच्छा से एकाकी घूमता है, वैसे तुम भी घूम रहे हो । यदि उनमें तुम्हारी इच्छा नहीं है. तो तुम साधुजनों के मध्य में क्यों नहीं रहते हो ? भावार्थ:
जिनकल्पी और स्थविरकल्पी के भेद से मुनियों के दो भेद हैं। जिन्होंने राग, द्वेष और मोह रूपी शओं को जीत लिया है, जो चतुर्विध उपसर्ग और बाईस प्रकार के परीषह रूपी शत्रु पर विजय को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, जो सिजेन्द्र मलावाज के समान बिहार करते हैं, जो उत्तम सिंहनन के धारी होते हैं और सामायिक २. सारित्र का परिपालन करते । हैं, वे मुनि जिनकल्पी कहलाते हैं। दो मुनि एकाकी विचरण किया करते
है। वे मुनि धृतिगुणसमा. श्रुतबल से परिपूर्ण, एकत्वम्भावना में रत. हो तपोवृद्ध, झामद. आचरण सुशिल और परमतिरपृहत्व आदि गुणों के
धारक होते हैं।
AAI
-Ai