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सज्जनाचनबल्लभ र
ह न स्थविरकल्पी मुनिराज छ हों संहननों में से किसी एक संहनन के धारक होते हैं। इनमें सामायिक और छे दोपरथापना ये हो चारित्र पाये जाते हैं । अपने संहनन के अनुसार ये मुनि कायक्लेशाढि तपों का अनुष्ठान करते हैं । यद्यपि इनका चारित्र. श्रुत और श्रद्धान भी परम प्रशंसनीय होता है तथापि वे उत्तम संहनन के अभाव में घोरोपसर्ग सहन करने में सक्षम होते भी हैं और नहीं भी । चारित्र का परिपालन करते हुए कषायोद्रेक न हो, प्रमाद चारित्र को दृषित न करे और अशुभोपयोग का जन्म न हो इसलिए चतुर्विध संघ के मध्य में वास करते हैं। इससे इन्हें अपूर्व श्रुतलाभ भी होता है।
किसप्रकार का आचरण करने वाले मुनिराज को अकेले नहीं रहना | चाहिये ? इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री वहकेर लिखते हैं कि - समंदगदागदीसयणणिसराणादाणमिक्खवोसरणे। सोनिमसरू विएगागी।
(मूलाचार-१५०) अर्थात् :- गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना - इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है, और बोलने में भी स्वच्छन्द रूचि वाला है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे।
ऐसे मुनि को आचार्यदेव पापश्रमण कहते हैं। पापश्रमण जिनाज्ञा प्रणाश, अनवस्था, मिथ्यात्वोपसेवन, आत्मनाश, लोकजिन्दा और संयमविराधना आदि दोषों का आगार बन जाता है। । ऐसे मुनिराज को सम्बोधित करते हुए यहाँ ग्रंथकार कहते हैं कि - हे मुने । जिसप्रकार बैल स्त्रियों में आसक्त होकर अपने यूथ को छोडकर एकाकी विहार करता है, उसी प्रकार तुम्हें स्वच्छन्दतापूर्वक गमन नहीं करना चाहिये।
मूलाचार में सदाचार के लिए समता, समाचार, सम्माचार, सम्मानाचार और सम्यक् आत्तारादि शब्दों का प्रयोग पाया जाता है।
उनका अर्थ निम्नप्रकार से है - ..समता :- राग और द्वेष का अभाव समता है।
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