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W w wमनाचलवळभ :&ARI
मृत्यु संसार का चिरन्तर ध्रुवसत्य है। इसे मानते हुए भी जीव दमरों | की मृत्यु को देखकर स्टेत नहीं होता। यह ऐसा विचार करता है कि | माजों वह अभर ही रहने वाला हो । इसलिा? मनुष्टय मृत्यु की चिन्ता किये बिना सांसारिक सुखों के उपभोग में सदैव निमग्न रहता है !
इन्द्रिय रूपी हाथी अट्ठाईस विषय रुपी सूंडों से युक्त है । वह इष्ट अनिष्ट की कल्पना रुपी मढ़ से मत्त हो गया है । आत्मा के सदगुण रूपी वन को उजाडने के लिए संयम को तोडकर वह इतस्ततः दौड लगा रहा है । उसकी अखत रूपी चिंघाड इतनी तीव है कि उसकी आवाज को सुनकर चेतनारूपी हिरणी भयाक्रान्त हो रही है । मिथ्यात्व रूपी औरें उसके आसपास मंडरा रहे हैं, जिससे उसकी मादकता और बढ़ रही है ।
आचार्य भगवत दया से युक्त होकर समझाते हैं कि - हे जीव ! इस बात को कोई भी संसारी प्राणी नहीं जानता कि उसकी मृत्यु किस पल होने वाली है। इसलिए उसे प्रतिपल सजग रहना चाहिये । क्या पता कि अगला पल उसे देखने मिले या न मिले ? इसलिए मृत्युमल्ल का नाश करने में समर्थ ऐसे जिलेन्द्रकथित धर्म का आचरण करके उसे अपने जीवन को सफल बना लेना चाहिये ।
मोह का त्याग करने की प्रेरणा सौख्यं वाञ्छसि किन्त्वया गतभवे दानं तपो वा कृतं, नोचेत्त्वं किमिहैवमेव लभसे लब्धं तदत्रागतम्।। धान्यं किं लभते विनापि वपनं लोके कुटुम्बीजनो,
देहे कीटक भक्षितेक्षुसदृशे मोहं वृथा मा कृथाः ॥१५॥ अन्वयार्थ :
(त्वम्) तुम (सौख्यं ताम्छ सि) सुख को चाहते हो । (किम) क्या (त्वया) तुम्हारे द्वारा (भतभवे) पूर्वभव में (दानं वा तपः ) दाला अथवा ताप (कृतम्) किया गया ? (जो चेत्) यदि नहीं तो (किम् इह एवमेव) अब इसलोक में किसप्रकार (लभसे) पाप्त कर सकते हो ? (लोके) नोक्त में (लब्धं तत् अत्र आगतम्) जो किया है दह' साथ में आया है।