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मज्जनचित्तदालभ
( अमरत्वं चिन्तयसि ) अमरत्व का चिन्तन करते हो (इन्द्रिय द्विपवशी भूत्वा ) रिपी हाथी के वश में होकर (परिभ्राम्यसि ) घूमते हो ( तत्वतः ) निश्चय ही ( यमः ) मृत्यु (अद्य पुनः श्वः ) आज या कल (आगमिष्यति) आयेगी (इति न ज्ञायते) ऐसा जाना नहीं जाता है। (तस्मात्) इसलिए (जिनेन्द्रोदितम्) जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित ( आत्महितम् ) आत्महितकारी (धर्मम्) धर्म को (त्वम् ) तुम (अचिरात् ) शीघ्र ही (कुरु) करो।
अर्थ :
I
हे टेति । दूसरे के परण को न मिलते हुए तू सदैव अपने अमरत्व का विचार करता है और इन्द्रिय रूपी हाथी के वश में होकर परिभ्रमण करता है। आज या कल यम आयेगा, क्या यह पता नहीं है ? इसीलिए तू आत्महितकारी जिनेन्द्रोदित (जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित ) धर्म को
धारण कर ।
भावार्थ:
जिस जीव का जन्म हुआ है, उसका मरण अवश्य होता है यह ध्रुव सत्य है। प्रत्येक मनुष्य दूसरों के भरण को देखकर प्रतिदिन इस सत्य की प्रतीति कर रहा है। संसार के बड़े-बड़े वीर भी इस मृत्युमल्ल के द्वारा क्षणभर में परास्त हुए हैं। संसार में मृत्युमल्ल ही एक ऐसा मल्ल है, जो दुर्जय है ।
आचार्य श्री स्वामी
लिखते हैं कुमार
अड्बलिओ वि राउदो मरणविहीणो ण दीसदे को वि । रविवज्जंतो वि सथा रक्थ्यप्पयारेहि विविहेहिं ॥
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(कार्तिकेयानुप्रेक्षा - २६ )
अर्थात्
आयुकर्म का क्षय होते ही मनुष्य को यह शरीर रूपी किराये का मकान खाली करना पडता है। आयुकर्म के क्षयोपरान्त यह जीव इस शरीर में एक पल भी नहीं रह सकता। दूसरों की मृत्यु को देखकर प्रत्येक मनुष्य को ऐसा विचार करना चाहिये कि सभी जीव आयुकर्म के यशवती हैं। अपनी बारी आने पर सब को मृत्यु रूपी सिंह भक्षण करता रहता है। आज यह चला गया । कल मुझे भी जाना पड़ेगा ।
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